मुगल शासन प्रणाली (Mughal governance system) मुगल कालीन भारत (India During the Mughals)
मुगल शासन प्रणाली (Mughal governance system)
जानकारी के साधन
- मुगल शासन के विषय में जानकारी के साधन कई स्थानों पर असम्बद्ध और बिखरे पड़े हैं.
- इस विषय की जानकारी हमें अनेक विवरणों यथा-
- अबुल फज़ल की ‘आइन-ए-अकबरी‘,
- मुहम्मद खान कृत ‘इकबालनामा जहाँगीर‘,
- अब्दुल हमीद लाहौरी कृत ‘पादशाह- नामा’,
- निजामुद्दीन कृत ‘तुजके जहाँगीरी‘ और ‘तबकाते अकबरी‘,
- बदायूँनी कृत ‘मॅतख़ब-उत-तवारीख‘ तथा
- सर थामस रो, बर्नियर, हॉकिन्स, मनुक्की, टेरी इत्यादि विदेशियों के लेखों से प्राप्त होती है.
- कुछ सामग्री हमें शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाली में रखी जाने वाली सरकारी नियमावली (दस्तूर-उल-अमल) तथा श्री यदुनाथ सरकार द्वारा पटना से प्राप्त ‘अधिकारियों के कर्तव्य‘ से भी प्राप्त होती है.
मुगल राज व्यवस्था
- मुगल शासन व्यवस्था मुख्यतः सैनिक तथा आधार रूप से केन्द्रित सामन्तशाही थी.
- बादशाह धर्म और राज्य का सरताज होता था.
- मुगल शासन प्रणाली वास्तविक रूप से फारस और अरब की प्रणाली भारतीय परिस्थितियों में प्रयोग की गई थी.
- तत्कालीन प्रचलित भारतीय व्यवस्था और व्यावहारिक रीति-रिवाजों का सम्मान किया जाता था, किन्तु उसी सीमा तक जहाँ तक वे मुसलमान शासन प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों से नहीं टकराते थे.
मुगल सम्राट की स्थिति
- मुगल सम्राट् शासन का स्वामी था.
- सम्राट् निरंकुश था, किन्तु स्वेच्छाचारी नहीं था.
- उलेमा फतवे द्वारा सम्राट् को सिंहासनच्युत कर सकते थे.
- किन्तु जब तक सम्राट् के पास शक्तिशाली सेना रहती, ये फतवे केवल कागज के टुकड़े ही रह जाया करते थे.
- शासन कई विभागों में बंधा हुआ था.
- कुछ प्रमुख विभागें हैं–
अधिकारी | उत्तराधिकारी |
(1) दीवाने आला | राज्य कोष और राजस्व |
(2) खाने सामान | शाही हरम का प्रबन्ध |
(3) शाही बख्शी | सेना का वेतन तथा हिसाब कार्यालय |
(4) मुख्य काजी | कानून विभाग, दीवानी और फौजदारी |
(5) मुख्य सरदार | धार्मिक दान-दक्षिणा विभाग |
(6) मोहतसिव | प्रजा के चरित्र व व्यवहार की देखभाल |
(7) मीर आतिश | तोपखाना |
(8) दरोगा-ए-डाक चौकी | सूचना विभाग और डाक कार्य |
(9) दरोगा | टकसाल |
अधिकारी वर्ग
वजीर या दीवान
- वजीर राज्य का प्रधानमन्त्री होता था.
- अकबर के समय प्रधानमन्त्री को ‘वकील‘ और वित्तमन्त्री को ‘वजीर‘ कहते थे.
- आरम्भ में वजीर राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था, किन्तु कालान्तर में अन्य विभागों पर भी इसका अधिकार हो गया.
- बादशाह या सम्राट् के पश्चात् शासन पर उसका सबसे अधिक प्रभाव था.
- उसके दो सहायक ‘दीवाने आम’ अर्थात वेतन का हिसाब रखने वाला तथा ‘दीवाने खास’ अर्थात् की निजी भूमि का दीवान होते थे.
मीर बख्शी
- यह सैन्य विभाग का मुखिया था तथा सेना सम्बन्धी सभी कार्यों यथा अनुशासन, प्रशिक्षण वेतन आदि के प्रति उत्तरदायी था.
- वह सैनिकों का हुलिया आदि रखता था तथा घोड़ों पर दाग लगवाता था. उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मचारी होते थे.
खान-ए-सामान
- वह शाही भण्डारी था तथा सम्राट् के उद्योग, भण्डार, सेना और शाही परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबन्ध करता था.
- वह सम्राट् के व्यक्तिगत सेवकों का अधिकारी था.
- यह पद महत्वपूर्ण होने के कारण किसी विश्वासपात्र तथा प्रभावशाली व्यक्ति को ही सौंपा जाता था.
सद्स सदर
- यह सम्राट् को धार्मिक विषयों में परामर्श देता था.
- उसे ‘सदरे कुल’ या सदरे जहान’ भी कहा जाता था.
- वह प्रजा और सम्राट का सम्पर्क बनाए रखने वाली कड़ी थी.
- वह इस्लामी कानून का संरक्षण और उलेमा का प्रतिनिधि होता था.
- प्रत्येक सूबे में एक ‘सदर नियुक्त होता था.
- प्रत्येक ‘सदर’ ‘सदरे दूर’ की आज्ञा का पालन करता था.
मोहतसिब
- इनका कार्य पैगम्बर की आज्ञाओं को लागू करना और उन सब विधि-विधानों का दमन करना था जो इस्लाम के अनुकूल नहीं थे.
- औरंगजेब के शासन काल में इनको नए मन्दिरों को तुड़वाने की आज्ञा दी गई.
- कभी-कभी इन्हें वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने और सही वजन और माप इत्यादि रखने का काम भी दिया जाता था.
- इनका काम सिपाहियों के साथ नगर का दौरा करके शराब, जुए आदि के अड्डों को समाप्त करना भी था.
काजी-उल-कजात या मुख्य काजी
- सम्राट् के पश्चात् न्यायिक मामलों का यह सर्वोच्च अधिकारी था.
- निर्णय इस्लामिक नियमों के आधार पर लिए जाते थे.
- मुख्य काजी नगरों, जिलों और सूबों के काजियों की नियुक्ति भी करता था.
- काजियों की सहायता हेतु मुफ्ती होते थे.
- अधिकतर काजी भ्रष्ट होते थे.
बुयुतात
- यह उपाधि उस मनुष्य को दी जाती थी, जिसका कार्य मृत पुरुर्षों के धन और सम्पत्ति को रखना, राज्य का हिस्सा काट कर उस सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारी को सौंपना, वस्तुओं के दाम निर्धारित करना, शाही कारखानों के लिए माल लाना तथा इनके द्वारा निर्मित वस्तुओं और खर्चे का हिसाब रखना था.
तोपखाने का दरोगा
- यह मीर बख्शी के अधिकार में कार्य करता था.
- मीर आतिश भी तोपखाने का अधिकारी था.
- यह सम्राट् के व्यक्तिगत सम्पर्क में आने के कारण अत्यन्त प्रभावशाली माना जाता था.
दरोगा-ए-डाक चौकी
- यह गुप्तचर और डाक विभाग का अधिकारी था.
- इसके दूत सारे देश में होते थे और प्रत्येक देश में हरकारों (सूचना देने वाले’ या सन्देश वाहक) के लिए घोड़े होते थे.
- यह साप्ताहिक सूचना-पत्र राजधानी में सम्राटू के सूचनार्थ भेजना होता था.
अन्य पदाधिकारी
मीर बाहरी | जल सेना का प्रधान |
मीर बर्र | वन सचिव |
कुर बेगी | ध्वजारोही |
अख्त बेगी | शाही अस्तबल का दरोगा |
मुशरिफ | राजस्व सचिव |
नाजिरे बुयुतात | शाही कारखानों का प्रबन्धक |
मुस्तैफी | मुख्य आय-व्यय निरीक्षक |
अवरजाह नवीस | दरवार के दैनिक खर्च का लेखा रखने वाला |
खवां सालार | शाही बावर्चीखाने का दरोगा |
मीर अर्ज | सम्राट के सम्मुख प्रार्थना-पत्र रखने वाला |
प्रान्तीय शासन
- शासन की सुविधा हेतु साम्राज्य को अनेक प्रान्तों अथवा सूबों में विभक्त किया गया था.
- मुगल साम्राज्य में प्रान्तों की संख्या
- केन्द्र के समान प्रान्तों में व्यवस्था हेतु अनेक अधिकारियों की नियुक्ति की गई थी.
- प्रमुख अधिकारी इस प्रकार थे.
सूबेदार
- यह सूबे का सर्वोच्च अधिकारी था.
- उसकी सहायता के लिए दीवान, बख्शी, फौजदार, कोतवाल, काजी, सदर, आमिल, बितिकची, पोतदार या खिजानदार, वाकया नवीस, कानूनगो और पटवारी आदि होते थे.
- सूबेदार का प्रति दो-तीन वर्ष में स्थानान्तरण कर दिया जाता था, क्योंकि एक ही स्थान पर अधिक समय तक रहने से यह अपनी शक्ति तथा अधिकारों का दुरुपयोग कर सकते थे.
- फिर भी सूबेदार या राज्यपाल अत्याचारी और दुश्चरित्र होते थे.
- केन्द्रीय राजधानी के सूबों की भौगोलिक दूरी तथा मध्यकालीन यातायात के साधनों के कारण राज्यपाल अपने प्रान्त में मनमानी करते थे.
दीवान
- प्रान्त में यह द्वितीय प्रमुख अधिकारी तथा सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी होता था.
- शाही दीवान से सम्पर्क बनाए रखना तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करना इसका कर्तव्य था.
- प्रान्तीय वित्त विभाग इसी के अधीन होता था.
- सूबेदार तथा दीवान परस्पर एक दूसरे की अनाधिकार चेष्टा पर रोक का काम करते थे.
फौजदार
- यह सूबेदार द्वारा नियुक्त किया जाता था तथा प्रान्तीय सेना का सेनानायक होता था.
- ये आमिल के लगान वसूली के कार्य में भी सहायता करते थे.
- श्री सरकार के अनुसार, फौजदार का कार्य छोटे-छोटे विद्रोहों का दमन करना, डाकुओं के दलों को भगा देना या बन्दी बना लेना और
- राजस्व अधिकारियों अथवा फौजदारी अधिकारियों या मोहतसिब के विरोध का शक्ति प्रदर्शन द्वारा आतंक जमा कर दमन करना था.
सदर
- इसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती थी.
- इसका मुख्य कार्य सयरहालों अर्थात् धार्मिक तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए लगान से छूटी हुई धरती का प्रबन्ध करना था.
- इसका अपना एक अलग कार्यालय होता था तथा यह दीवान से कहीं अधिक स्वतन्त्र था.
- काजी और मीर अदल इसके अधीन कार्य करते थे.
आमिल
- आमिल मुख्यतः लगान वसूल करने वाला हेता था और इसे बहुत से कार्य करने पड़ते थे.
- इसे भूमि की नपाई या ‘पैमाइश’, लगान वसूली, कारकुनों, मुकद्दमों और पटवारियों के खाते निरीक्षण आदि कार्य करने पड़ते थे.
बख्शी
- यह प्रान्तीय सेना का वेतन अधिकारी होता था और मीर बख्शी के अधीन कार्य करता था.
बितकची
- यह आमिल की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाता था.
- राजस्व तथा कानूनगो के कार्यों की देखभाल करता था.
- उसके लिए अच्छा लेखक और मुन्शी होना तथा अपने जिले के रीति-रिवाजों की जानकारी होना आवश्यक था.
कोतवाल
- यह रक्षा विभाग का अधिकारी था किन्तु उसे न्यायाधीश की शक्ति भी दी गई थी.
- उसका उत्तरदायित्व नगर से शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना था.
- वह विभिन्न वर्गों के आय-व्यय का ब्यौरा भी रखता था.
वाकया नवीस
- यह प्रान्त में घटित घटनाओं का ब्यौरा रखता था.
- वह छोटी-बड़ी प्रान्तीय घटनाओं की सूचना बराबर केन्द्र सरकार तक पहुंचाता रहता था.
- यह अपने कार्य बहुत सावधानी से करता था, क्योंकि कोई गलत सूचना दिए जाने पर सम्राट् उसे कठोर दण्ड देता था.
सरकार या जिले
- प्रत्येक सूबा या प्रान्त आगे कई जिलों या सरकारों में विभक्त था.
- यह क्षेत्र फौजदार के अधिकार में था.
- उसे राज्यपाल के आदेशों का पालन करना तथा उससे सतत् सम्पर्क बनाए रखना पड़ता था.
परगना या महल
- सरकार आगे परगनों या महलों में विभक्त होते थे.
- प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक आमिल, एक पोतदार तथा थोड़े, से बितिकची होते थे.
शासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम’ या ‘गाँव’ थी.
- केन्द्र अथवा प्रान्तीय सरकारें गाँव के लोगों के जीवन व मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती थीं.
- प्रत्येक ग्राम स्वायत्त शासन गण-संघ माना जाता था.
सैनिक व्यवस्था
- मुगल सेना के पाँच अंग थे यथा-
- पैदल,
- घुड़सवार,
- हाथी,
- तोपखाना तथा
- जल सेना.
- मुगल सेना का वास्तविक संगठनकर्ता अकबर था.
- उसने मनसबदारी प्रथा के आधार पर लगभग 4 लाख की विशाल सेना का गठन किया जिसमें लगभग 25,000 स्थायी सेना थी.
- पैदल सेना में बन्दूकची, दरबान, पहलवान, कहार, खिदमतिया, मेवरा, चेला आदि प्रमुख थे.
- इनके कार्य मुख्यतः महलों की रक्षा करना, जासूसी करना आदि थे.
- पैदल सेना से बन्दूकची सबसे महत्वपूर्ण थे.
- उन्हें 15 रु. प्रतिमाह वेतन दिया जाता था.
- साधारण सैनिक को 8 रु. प्रति माह वेतन मिलता था.
- घुड़सवार सेना मुगल सेना का प्रमुख अंग थी.
- यह प्रमुख विभागों में विभाजित थी यथा-मनसबदारों द्वारा प्रदत्त घुड़सवार सेना, अहदी तथा दाखिली .
- मनसबदारों की सेना रखने हेतु जागीर के रूप में वेतन दिया जाता था.
- घोड़ों को दागने और घुड़सवारों का हुलिया दर्ज करने का कार्य भी इन्हीं का था.
- अहदी घुड़सवारों की भर्ती सीधे केन्द्र द्वारा की जाती थी.
- इनके लिए अलग दीवान तथा बख्शी नियुक्त होता था. उनका वेतन 50 रु. से भी अधिक था.
- दाखिली सैनिक अर्द्ध अश्वारोही तथा अर्द्ध सैनिक की श्रेणी में आते थे.
- दाखिली सेना में एक-चौथाई बन्दूकची तथा बाकी तीरदाज होते थे.
- हस्ति सेना हेतु पीलखाना नामक अलग विभाग गठित किया गया था.
- अकबर के काल में हाथियों की संख्या 6751 थी तथा जहाँगीर के काल में यह 1400 रह गई.
- हाथियों को भी दागा जाता था.
- कुछ मनसबदारों को भी हाथी रखने पड़ते थे.
- कई बार सेनापति हाथी सवार होकर सेना का संचालन करते थे.
- कई बार हाथी युद्ध में अपनी ही सेना के लिए हानिकारक साबित होते थे.
- बाबर के काल में दो सौ तोपें मुगल सेना का महत्वपूर्ण अंग थीं.
- अकबर ने तोपखाने में अनेक सुधार किए.
- अकबर के काल में गजनाल और नरनाल (क्रमशः हाथी और आदमी द्वारा ले जायी जाती थीं, शुतरनाल (ऊँट पर ले जायी जाने वाली), जंबूर (मधुमक्खी जैसी आवाज वाली) तथा धमाका नाम तोपें थीं.
- मुगलों ने कालान्तर में फ्रांसीसी और पुर्तगालियों को भी तोपखाने में नियुक्त किया.
- 1573 ई. में अकबर ने जल सेना का गठन किया था.
- इसका प्रमख अधिकारी ‘मीर-ए-बहर‘ कहलाता था.
- अकबर के बाद सेना के इस अंग को दर करने की और औरंगजेब ने ध्यान दिया.
- वास्तव में मुगल सम्राट नौसेना की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे सके तथा कालान्तर में यूरोपीय जातियों से पराजित हुए.
मनसबदारी व्यवस्था
- अकबर द्वारा आरंभ की गई मनसबदारी प्रथा साम्राज्य (मुगल) की प्रशासनिक व्यवस्था की अनोखी विशेषता थी.
- अरबी भाषा के ‘मनसव’ का शब्दार्थ होता है-पद.
- मनसब शब्द इसके धारक (मनसबदार) की प्रतिष्ठा का सूचक था.
- मध्य एशिया में उद्भव हुए मनसबदारी प्रथा के अन्तर्गत सैनिक ओहदेदारों, नौकरशाही वर्ग तथा अमीर वर्ग को मनसब प्राप्त होते थे.
- अकबर की मनसबदारी व्यवस्था मंगोल नेता चंगेज खाँ की ‘दशमलव प्रणाली‘ पर आधारित थी.
- मनसब शब्द का प्रथम उल्लेख अकबर के शासन के 11वें वर्ष में मिलता है, किन्तु 1577 ई. में मनसब जारी किया गया.
- मनसब में सवार शब्द 1594-95 ई. से जुड़ने लगा.
- इस प्रकार मनसब का अकबर के शासनकाल में क्रमिक विकास होता गया तथा यह व्यवस्था विकसित होकर अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई.
- अकबर के शासनकाल में काजी तथा सद्र को छोड़ सभी पदाधिकारियों को जरूरत पड़ने पर सैन्य संचालन करना होता था.
- अतः सभी को मनसब दिया जाता था.
- लेकिन, गैर सैनिक अधिकारियों को मनसबदार की जगह ‘रोजिनदार’ कहा जाता था.
- मुगल साम्राज्य के मनसबदार अपना वेतन या तो नकद या जागीर के रूप में प्राप्त करते थे.
- इससे वे भू-राजस्व तथा सम्राट द्वारा नियत अन्य कर वसूल करते थे.
- इस प्रकार मनसबदारी प्रथा कृषि तथा जागीरदारी प्रथा का भी एक अभिन्न अंग थी.
मनसबदारी प्रथा की विशेषताएँ
- मुगल मनसब का स्वरूप दोहरा होता था तथा यह दो स्थितियों का परिचायक था-जात, जो कि व्यक्तिगत पद का सूचक था तथा सवार, जोकि सैनिक संख्या द्योतक अथवा अश्वारोही पद था.
- जात मुख्यतः शासकीय पदानुक्रम में मनसबदार की स्थिति को रेखांकित करता था.
- अकबर के शासनकाल में सबसे कम मनसब 10 से लेकर 10,000 तक होता था, किन्तु कलान्तर में यह अधिकतम 12,000 तक हो गया.
- मनसब प्राप्त करने वाले तीन तरह के थे-10 से 500 तक मनसब प्राप्त करने वाले ‘मनसबदार’ कहे जाते थे, 500 से 2500 तक मनसब प्राप्त करने वाले ‘अमीर’ तथा 2500 से ऊपर मनसब प्राप्त करने वाले ‘अमीर-ए-उम्दा’ या ‘अमीर-ए-आजम’ या ‘उमरा’ कहे जाते थे.
- जात के साथ सवार को 1595 ई. में जोड़ देने से जात-व-सवार पद तीन श्रेणियों में बंट गया.
- प्रथम श्रेणी के मनसबदार को अपने जात के बराबर सवार की संख्या रखनी पड़ती थी .
- अर्थात् घुड़सवारों की संख्या जात के बराबर होती थी, जैसे 5000/5000 जात/सवार .
- द्वितीय श्रेणी के अंतर्गत मनसबदार को अपने जात पद से थोड़ा कम या आधे घुड़सवार सैनिकों को रखना होता था, जैसे-3000/2000 जात/सवार.
- तृतीय श्रेणी के अंतर्गत वे मनसबदार आते थे, जो अपने जात पद के आधे से भी कम सवार (घुड़सवार सैनिक) रखते थे. जैसे-5000/2000 जात/सवार.
- मनसबदार सैनिक तथा नागरिक दोनों ही विभागों से सम्बद्ध होते थे.
- उन्हें सैनिक विभाग से नागरिक तथा नागरिक विभाग से सैनिक विभाग में स्थानान्तरित किया जाता था.
- ‘जब्ती’ मनसबदारी प्रथा की एक प्रमुख विशेषता थी.
- इसके अनुसार जब किसी मनसबदार की मृत्यु हो जाती थी, तो उसकी सारी सम्पत्ति सम्राट द्वारा जब्त कर ली जाती थी .
- ऐसा इसलिए किया जाता था कि मनसबदार जनता का मनमाने ढंग से शोषण न करे.
- आइने अकबरी में 66 मनसबों का उल्लेख है, किन्तु व्यवहार में केवल 33 मनसब ही प्रदान किए जाते थे.
- 1595 ई. या इसके आस-पास मनसबदारों की कुल संख्या 1803 थी, किन्तु औरंगजेब के शासन के अन्त में यह संख्या बढ़कर 14,449 हो गई.
- जहाँगीर के शासनकाल में इस प्रथा में कुछ परिवतर्नन करते हुए दो अस्पा तथा सिह-अस्पा को मनसब से जोड़ा जाने लगा.
- इस व्यवस्था में किसी मनसबदार को दो-अस्पाट पद प्राप्त होने पर निर्धारित संख्या के अतिरिक्त उतनी ही संख्या में और घोड़े रखने पड़ते थे तथा सिह-अस्पा पद प्राप्त मनसबदार को निर्धारित संख्या के अतिरिक्त दुगने घोड़े रखने पड़ते थे.
- शाहजहाँ ने मनसबदारी प्रथा में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक नियम बनाया जिसके अनुसार पद की तुलना में घुड़सवारों की संख्या कम कर दी गई.
- अब अपने पद हेतु निर्धारित संख्या की कम-से-कम एक चौथाई फौजी टुकड़ी रखनी पड़ती थी.
- भारत के बाहर यह संख्या 1/5 होती थी.
- अकबर के समय से ही यह शिकायत मिलती आ रही थी कि जागीरों की अनुमानित आय (जमा) तथा वास्तविक आय (हासिल) में अंतर होता था.
- अर्थात्, हासिल, जमा से कम होती थी.
- शाहजहाँ ने इस समस्या का हल निकाला; जिसके अनुसार, वास्तविक वसूली के आधार पर महीना जागीरों-शिशमाहा, सीमाहा आदि व्यवस्था शुरू की.
- यदि किसी जागीर से राजस्व की वसूली 50 प्रतिशत (जमा की तुलना में) होती थी तो उसे शिशमाहा जागीर माना जाता था तथा वसूली एक चौथाई होती थी तो उसे सीमाहा जागीर माना जाता था.
- इस तरह की प्राप्त जागीरों के अनुपात में ही मनसबदारों के दायित्वों में भी कटौती कर दी जाती थी.
- औरंगजेब के समय में एक और व्यवस्था ‘मशरूत‘ के तहत् सक्षम मनसबदारों के किसी महत्वपूर्ण पद जैसे फौजदार या किलेदार अथवा किसी महत्वपूर्ण अभियान पर जाते समय उसके सवार पद में अतिरिक्त वृद्धि कर दी जाती थी.
- औरंगजेब के शासनकाल में खासकर उच्च श्रेणी के मनसबदारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होने के कारण ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई कि उन्हें प्रदान करने के लिए जागीर ही नहीं रह गई.
- फलस्वरूप जागीर के अभाव में जागीरदारी तथा कृषिजन्य संकट पैदा हो गए तथा अंततः औरंगजेब के बाद के शासकों के काल में मनसबदारी प्रथा का ही पतन हो गया.
वित्त प्रशासन
- मुगल काल में वित्त प्रशासन विस्तृत तथा व्यवस्थित था.
- राज्य की आय तथा व्यय की अनेक मदें थीं.
- आय के प्रमुख साधन निम्नलिखित थे
खराज या भू-राजस्व
- राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमि कर था.
- अकबर ने 1560 ई. में भू-राजस्व की ओर विशेष ध्यान दिया और कई कर निर्धारण प्रणालियों को अपनाया जैसे टोडरमल की जाब्ता प्रणाली, करोड़ी व्यवस्था, दहसाला प्रणाली, बटाई तथा नसल अथवा कानकुत पद्धति .
- भू-राजस्व अनाज अथवा नकदी के रूप में लिया जाता था तथा इसकी दर सामान्यतः उपज का 1/2 भाग या 1/3 भाग थी.
जकात
- मुस्लिम जनता से उनकी दृष्टिगत सम्पत्ति का 2.5 प्रतिशत भाग जकात के रूप में लिया जाता था.
- हुमायूँ ने इसे लेना बन्द कर दिया, किन्तु औरंगजेब के काल में यह कर फिर से लिया जाने लगा.
खम्स
- खम्स युद्ध में लूट के माल में सरकार का भाग था जो इस्लामी नियमों के अनुसार 20 प्रतिशत भाग था, किन्तु मुगलकाल में सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था.
- अतः सारा लूट का माल राजकोष में जमा करवाया जाता था.
जजिया
- यह गैर-मुस्लिमों से लिया जाने वाला धर्मनिरपेक्ष कर था.
- अकबर ने 1564 ई. में इसे समाप्त कर दिया,
- किन्तु औरंगजेब ने 1697 ई. में इसे पुनः लागू कर दिया.
- सम्भवः यह व्यक्ति की आय का 2.5 प्रतिशत होता था.
- 1720 ई. में इसे जब मुहम्मदशाह ने समाप्त किया, उस समय इससे राज्य की 4 करोड़ रु. वार्षिक आय होती थी.
पेशकश अथवा नजर
- बड़े-बड़े पदाधिकारी, मनसबदार आदि सम्राट् को मिलने के अवसर पर बहुमूल्य भेटें देते थे.
- जमींदार, बड़े-बड़े जागीरदार तथा रजवाड़े सम्राट् को वार्षिक पेशकश देते थे.
जब्त की गई सम्पत्ति
- जिस सम्पत्ति का कोई वारिस नहीं होता था उसे मुगल सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता था.
टकसाल
- टकसाल से राज्य को बट्टा तथा पुराने घिसे हुए सिक्कों को बदलने पर अतिरिक्त कीमत ली जाती थी.
- इनके अतिरिक्त कारखानों तथा खानों से आय, नमक कर, जुर्मान, शुल्क या फीस, गड़ा हुआ धन, चुंगी तथा व्यापार कर आदि से राज्य की आय होती थी.
- इस जमा धन राशि को प्रशासनिक अधिकारियों के वेतन, शाही दरबार के खर्च, सैनिक व्यय, सार्वजनिक निर्माण कार्यों, साहित्य-कला के सरंक्षक और प्रोत्साहन आदि पर व्यय किया जाता था.
भू-राजस्व
- बाबर ने लोदी काल से चली आ रही भूमिकर प्रणाली को ही अपनाए रखा.
- हुमायूं ने भू-राजस्व व्यवस्था में कुछ साधारण सुधार किए.
- मुगल कालीन भू-राजस्व व्यवस्था को संगठित करने का श्रेय अकबर को जाता है.
- उसने शेरशाह सूरी की भूमि-व्यवस्था को जारी रखा तथा वार्षिक अनुमान पद्धति को पुनः चालू किया.
- 1562 ई. में अकबर ने आसफ खाँ के स्थान पर मलिक फूल को एतीमाद खाँ की उपाधि देकर खालसा भूमि का दीवान नियुक्त किया.
- उसने ‘करोड़ी पद्धति’ को आरम्भ किया.
- इस व्यवस्था के अन्तर्गत सारी खालसा भूमि को ऐसे बराबर भागों में विभाजित किया, जिससे हर भाग की मालगुजारी एक करोड़ दाम (2,50,000 रु.) एकत्र होती थी.
- इस भू-भाग का आमिल नामक अधिकारी सर्वसाधारण में करोड़ी नाम से विख्यात हुआ.
- उसकी मदद के लिए एक बितिकची (मुन्शी) और एक खजांची नियुक्त किया गया.
- सन् 1567 ई. में अकबर ने एतिमाद खाँ के स्थान पर मुजफ्फर खाँ को दीवान बनाया.
- उसने उपज या अनाज के रूप में निश्चित भू-कर के स्थान पर नकद जमा की प्रथा शुरू की और हर परगने की फसलों के लिए अलग-अलग मालगुजारी की व्यवस्था की.
- 1573-74 तक अकवर प्रचलित मालगुजारी की किसी भी व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं था.
- अतः उसने भूमि सम्बन्धी कुछ सुधार किए, यथा खालसा भूमि का विस्तार भूमि की पैमाइश वर्गीकरण और वास्तविक उपज के आधार पर भू-राजस्व तय करना आदि .
- उत्पादकता के आधार पर भूमि को चार भागों में विभाजित किया गया था-
- पोलज भूमि-सबसे अधिक उपजाऊ व प्रतिवर्ष कृषि के काम आने वाली भूमि .
- पड़ौती भूमि-पोलज से कम उपजा तथा एक फसल के पश्चात् एक या डेढ़ वर्ष के लिए खाली छोड़ी जाने वाली भूमि .
- चाचर भूमि-एक फसल के बाद तीन-चार वर्षों तक खाली छोड़ी जाने वाली भूमि .
- बन्जर भूमि-जो प्रायः खाली पड़ी रहती थी तथा कभी-कभी कृषि काम में ली जाती थी.
- 1580 ई. में अकबर ने वास्तविक उत्पादन, स्थानीय कीमतें, उत्पादकता आदि के आधार पर ‘दहसाला प्रणाली’ प्रचलित की.
- इसके अनुसार अलग-अलग फसलों के पिछले दस वर्षों के उत्पादन और इसी उवधि में उनकी कीमतों का औसत निकाला जाता था.
- इस औसत ऊपज का एक-तिहाई भाग राजस्व होता था.
- औसत ऊपज को नकदी में परिवर्तित करने के लिए पिछले दस वर्षों की कीमत के औसत के आधार पर उसे परिवर्तित कर दिया जाता था.
- वस्तुतः अकबर के काल में राजा टोडरमल और ख्वाजा शाह मंसूर ने इस प्रणाली को सफल बनाने में बहुत योगदान दिया.
- इन प्रणालियों के अतिरिक्त अकबर के काल में बटाई या गल्ला बख्शी तथा जब्ती प्रणालियां भी अपनाई गईं.
- जहाँगीर ने अकबर की प्रणाली को ही लागू रखा, किन्तु उसका शासन प्रबन्ध इतना कुशल नहीं था.
- उसने ‘जागीदारी प्रथा’ को भी प्रोत्साहन दिया तथा उसके काल में अलतमगा’ नामक एक नई जागीर प्रथा शुरू हुई.
- भू-राजस्व व्यवस्था में शाहजहाँ के काल में कुछ परिवर्तन हुए.
- इतिहासकार बेनी प्रसाद सक्सेना के अनुसार,
“उसके काल में जाब्ती प्रथा के स्थान पर जागीर प्रथा को इतनी प्राथमिकता दी गई कि लगभग 70 प्रतिशत खालसा भूमि जागीरों में परिवर्तित हो गई.”
- औरंगजेब ने शरा के अनुसार भू-राजस्व की दर बढ़ाकर 50 प्रतिशत तय की.
- उसके काल में ‘इजारेदारी‘ और ‘जागीरदारी‘ प्रथा चलती रही.
संक्षेप में, अकबर के काल के बाद धीरे-धीरे ‘जागीरदारी’ और ‘इजारेदारी‘ प्रथा को अधिक पसन्द किया गया. भू-राजस्व की दर बढ़ा कर 50 प्रतिशत तक कर दी गई.
मुगल शासन प्रणाली (Mughal governance system) मुगल कालीन भारत (India During the Mughals)
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