मराठा शक्ति का अभ्युदय छत्रपति शिवाजी महाराजा (Rise of The Great Marathas)
मराठा शक्ति – छत्रपति शिवाजी
- 17वीं शताब्दी में मराठा शक्ति का उदय एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी.
- इस शक्ति ने दक्षिण में मुगल सम्राट औरंगजेब के प्रसार पर रोक लगाई.
- इस शक्ति में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद हिन्दू साम्राज्य की पुर्नस्थापना के प्रयत्न की अंतिम झलक भी दिखाई पड़ी.
- यद्यपि मराठा शक्ति के उदय और विकास का अधिकांश श्रेय छत्रपति शिवाजी महाराजा को दिया जाता है तथापि इस संबंध में अनेक भौगोलिक, धार्मिक एवं साहित्यिक कारकों का भी विशेष महत्व है.
संक्षेप में ये कारक निम्नलिखित
भौगोलिक कारक
- मराठा शक्ति के उदय के लिए महाराष्ट्र की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी थी.
- इस प्रदेश के उत्तर से दक्षिण तक सहयाद्रि पर्वतमालाएं और पूर्व से पश्चिम तक सतपुड़ा एवं विंध्य पर्वत श्रेणियां विस्तृत हैं.
- ये पर्वतमालाएं मराठों की बाह्य आक्रमणों से रक्षा करती थी.
- इस कारण मराठा लोग एक निर्भीक और साहसी सैनिक बन सके.
- महाराष्ट्र प्रदेश में वर्षा की कमी और जीवन यापन की कठिनाइयों ने मराठों को कठोर परिश्रमी और आत्मविश्वासी बना दिया.
- पर्वतीय प्रदेश के कारण ही मराठे छापामार युद्ध नीति सफलता से अपना सके.
- इसके अलावा बीच-बीच से टूटी हुई पर्वत श्रृंखलाएं उनके लिए सुगम प्राकृतिक दुर्गों का काम करती थी.
भक्ति आन्दोलन
- ज्ञानेश्वर हेमाद्रि और चक्रधर से लेकर एकनाथ, तुकाराम और रामदास तक, महाराष्ट्र के सभी संतों और दार्शनिकों ने इस बात पर बल दिया कि सभी मनुष्य परमपिता ईश्वर की संतान हैं और इस कारण समान हैं.
- इन संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया और समाज की एकता पर बल दिया.
- ये संत स्थानीय मराठी भाषा में ही उपदेश देते थे.
- इससे इस भाषा को अपेक्षित गौरव प्राप्त हुआ तथा इस भाषा के साहित्य को भी प्रोत्साहन मिला.
- अतएव भक्ति आन्दोलन से एक विशिष्ट मराठा पहचान उभर कर सामने आयी जिसने यहां के लोगों को एकता एवं लक्ष्य की भावना से प्रेरित किया.
साहित्य और भाषा
- मराठी साहित्य और भाषा ने भी मराठो के संगठन में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
- सन्त तुकाराम के पद बिना भेदभाव के सब श्रेणी के लोगों द्वारा गाए जाते थे.
- इस प्रकार धार्मिक साहित्य ने लोगों के मध्य परोक्ष रूप से एकता स्थापित की.
- सर यदुनाथ सरकार के मत में –
“छत्रपति शिवाजी द्वारा किए गए राजनीतिक संगठन से पूर्व ही महाराष्ट्र में एक भाषा, एक रीति-रिवाज और एक ही प्रकार के समाज का निर्माण हो चुका था. इसमें जो कमी रह गई थी वह शिवाजी और उनके पुत्रों के दिल्ली के आक्रमणकारियों से संघर्ष, पेशावाओं के अन्र्तगत मराठा साम्राज्य की उन्नति और एक राष्ट्रीय समाज की स्थापना ने पूरी कर दी.”
शासन एवं युद्ध कला का पूर्व अनुभव
- छत्रपति शिवाजी के प्रादुर्भाव से पहले ही मराठे शासन कला और युद्ध कला में शिक्षा पा चुके थे.
- यह महत्वपूर्ण शिक्षा मराठों को दक्षिण के मुस्लिम राज्यों से प्राप्त हुई.
- मराठे इन राज्यों के राजस्व विभाग में सेवारत थे.
- शाहजी भोसले, मुशर राव, मदन पंडित और “राज-राय'” परिवार के कितने ही सदस्यों ने इन मुस्लिम राज्यों में सूबेदार, मंत्री और शासन में जो शिक्षा मराठों ने प्राप्त की उसने मराठों को शिक्षित, धनवान और शक्तिशाली बनाया.
- यथार्थ में गोलकुण्डा, बीदर और बीजापुर के नाममात्र के मुसलमान शासक अपने सैनिक और असैनिक दोनों ही विभागों की कुशलता के लिए मराठा सरदारों पर निर्भर थे.
छत्रपति शिवाजी महाराजा
- मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी का जन्म सन् 1627 में हुआ.
- छत्रपति शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोसले तथा माता का नाम जीजाबाई था.
- शाहजी भोसले का अहमदनगर और बीजापुर से राजनीतिक संघर्ष में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान था.
- जीजाबाई देवगिरि के महान् जागीरदार यादवराव की पुत्री थी.
- स्वभाव से वे बड़ी ही धार्मिक थीं.
- अपने पुत्र शिवाजी के चरित्र निर्माण में उनका बड़ा ही महत्वपूर्ण हाथ था.
- जीजाबाई अपने पुत्र को बाल्यकाल से ही रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन काल के हिन्दू वीरों की कथा और कहानियाँ सुनाया करती थीं.
- माता जीजाबाई ने अपने जीवन और शिक्षा के द्वारा अपने पुत्र शिवाजी को हिन्दुओं की तीन परम पवित्र वस्तुओं यथा-ब्राह्मण, गाय और नारी जाति की रक्षा के लिए प्रेरित किया.
- माता जीजाबाई के अलावा दादोजी कोण्ड़देव का भी शिवाजी के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा.
- दादोजी कोण्डदेव शिवाजी के पिता शाहजी भोसले की पूना की जागीर के प्रशासक थे.
- उन्होंने शिवाजी को अपने पुत्र के समान स्नेह और शिक्षा दी.
- उन्होंने शिवाजी को घुड़सवारी और तलवार चलाना सिखाया.
- दादोजी कोण्डदेव ने ही शिवाजी को शासन-कला में भी निपुण किया.
- धार्मिक संत गुरु रामदास और संत तुकाराम का भी छत्रपति शिवाजी के जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ा.
- अतएव छत्रपति शिवाजी ने उच्च एवं विशिष्ट शिक्षा-दीक्षा के बाद अपने व्यवहारिक जीवन में पदार्पण किया.
छत्रपति शिवाजी की विजयें
- छत्रपति शिवाजी का विजय और प्रगति का जीवन 19 वर्ष की अल्पायु से ही आरंभ हो गया.
- 1646 में उन्होंने बीजापुर रियासत में फैली अव्यवस्था का लाभ उठाकर तोरण के किले पर अधिकार कर लिया.
- इसके बाद छत्रपति शिवाजी ने रायगढ़ के किले को जीतकर उसका जीर्णोद्धार किया.
- उन्होंने अपने चाचा सम्भाजी मोहते से सूपा का किला जीता.
- दादोजी कोण्ड़देव के देहान्त के बाद शिवाजी ने अपने पिता शाहजी भोसले की सारी जागीर पर अधिकार कर लिया.
- छत्रपति शिवाजी की निरन्तर बढ़ती शक्ति से शंकित होकर बीजापुर के नवाब ने शिवाजी का दमन करने की एक योजना तैयार की.
- इसी बीच छत्रपति शिवाजी ने कोंकण के मुख्य प्रदेश कल्याण पर अधिकार कर लिया.
- शिवाजी के इस कृत्य ने बीजापुर के नवाब को और अधिक रुष्ट कर दिया.
- नवाब ने शिवाजी की चुनौती का प्रत्युत्तर देते हुए उनके पिता शाहजी भोसले को बीजापुर दरबार से अपमानित कर पदच्युत कर दिया और उनकी जागीरें जब्त कर लीं .
- इस घटना के बाद शिवाजी के छापामार युद्ध कुछ समय तक बन्द रहे.
बीजापुर से संघर्ष, (1657-62 ई.)
- 1656 में बीजापुर के नवाब मोहम्मद आदिलशाह की मृत्यु के बाद उसका 18 वर्षीय पुत्र गद्दी पर बैठा.
- दक्षिणी के तत्कालीन राज्यपाल औरंगजेब ने इस अवसर का लाभ उठाकर 1657 में मीर जुमला की सहायता से बीदर, कल्याणी और पुरन्दर के किलों पर अधिकार कर लिया.
- किन्तु इसी समय शाहजहां की बीमारी की सूचना पाकर औरंगजेब तत्काल उत्तर की ओर रवाना हो गया.
- औरंगजेब के वापस चले जाने के कारण बीजापुर को मुगलों का भय नहीं रहा.
- अब उनका मुख्य शत्रु शिवाजी था.
- अतएव अफजलखाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना का संगठन किया गया.
- इस सेना को शिवाजी को जीवित या मृत पेश करने की आज्ञा दी गई.
- अफजलखाँ ने बहुत ही चालाकी से शिवाजी की हत्या की योजना बनाई किन्तु वह उसमें सफल न हो सका.
- छत्रपति शिवाजी ने बहुत चतुराई से अफजलखाँ की हत्या कर दी.
- अफजलखाँ की हत्या के तुरंत बाद पहले से ही तैयार खड़ी मराठा सेना मुसलमान सेना पर टूट पड़ी और बड़ी ही निर्दयता से उसका संहार कर दिया.
- अफजलखाँ की शक्ति को कुचल कर शिवाजी ने पन्हाला के दक्षिण के प्रदेश पर अधिकार कर लिया.
- इसके बाद बीजापुर के नवाब ने शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए अनेक बार सेना भेजी तथा अंतिम बार स्वयं सेना का नेतृत्व किया और एक अनिर्णायक युद्ध लड़ा.
छत्रपति शिवाजी और मुगल
- मुगल सम्राट औरंगजेब ने 1660 में शाइस्ताखाँ को दक्षिण का राज्यपाल नियुक्त किया.
- शाइस्ताखाँ ने छत्रपति शिवाजी का दमन करने के लिए अनेक असफल प्रयास किए और आखिर में तंग आकर विश्राम हेतु कुछ समय पूना में व्यतीत करने का फैसला किया.
- अप्रैल, 1663 में शिवाजी ने धोखे से पूना में शास्ताखाँ के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया.
- शाइस्ताखाँ को इस हमले का आभास न था.
- छत्रपति शिवाजी ने शाइस्ताखाँ पर वार किया जिससे उसका अंगूठा कट गया.
- शाइस्ताखाँ के पुत्र की हत्या कर दी गई.
- दिसम्बर, 1663 में शाइस्ताखाँ को दक्षिण से बंगाल में स्थानांतरित कर दिया गया.
सूरत पर आक्रमण (1664)
- 1664 में छत्रपति शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण किया और भयंकर लूट-पाट की.
- अंग्रेजी और डच कम्पनियां अपनी रक्षा करते हुए लूट से बच गए.
राजा जयसिंह और शिवाजी
- औरंगजेब ने मार्च, 1665 में राजा जयसिंह को दक्षिण की बागडोर सौंपी.
- राजा जयसिंह ने छत्रपति शिवाजी को चारों ओर से घेर लिया.
- छत्रपति शिवाजी को राजधानी रायगढ़ भी संकट में पड़ गई.
- अतएव शिवाजी ने राजा जयसिंह से संधि करने में अपनी भलाई सोची.
- इस प्रकार जून, 1665 में पुरन्दर की संधि अस्तित्व में आई.
- इस संधि के अनुसार शिवाजी ने 23 किले मुगलों को देकर मात्र 12 किले अपने अधिकार में रखे.
- शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को मुगल दरबार में “पांचहजारी मनसब” बनाकर एक जगीर दे दी गई.
- इसके अलावा शिवाजी ने यह भी स्वीकार किया कि दक्षिण के युद्धों में वे औरंगजेब का साथ देंगे, किन्तु शिवाजी किसी भी स्थिति में मुगल दरवार में हाजिर होने के लिए तैयार न थे.
- राजा जयसिंह ने बहुत चतुराई से शिवाजी को मुगल दरबार में हाजिर होने के लिए तैयार कर लिया.
छत्रपति शिवाजी की आगरा भेट
- छत्रपति शिवाजी और उनका पुत्र सम्भाजी मई, 1666 में आगरा पहुंचे.
- किन्तु मुगल सम्राट से जिस स्वागत की उन्हें आशा थी, वह उन्हें नहीं मिला.
- शिवाजी का स्वागत करने के बजाए उन्हें बंदी बना लिया गया.
- लेकिन शिवाजी ने धैर्य नहीं छोड़ा.
- वे आगरा से भाग निकलने का उपाय सोचने लगे.
- उन्होंने बीमारी का बहाना बनाया और गरीब लोगों में बांटने के लिए मिठाई और फलों के टोकरे भेजने शुरू कर दिए.
- एक दिन मौका देखकर वे इन टोकरों में स्वयं बैठकर आगरा से भाग गए और शीघ्र ही पुनः महाराष्ट्र पहुंच गए.
छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक
- मुगलों में अब इतनी शक्ति न रही कि वे छत्रपति शिवाजी का दमन कर सके.
- 1668 से 1669 तक का समय शिवाजी ने अपने आन्तरिक प्रशासन को सुगठित करने में व्यतीत किया.
- 1670 में शिवाजी ने दूसरी बार सूरत में भारी लूट-पाट की.
- 1672 में मराठों ने सूरत से चौथ वसूल की.
- 1674 तक मराठों ने दक्षिण में मुगलों की सत्ता को पूर्णतया समाप्त कर दिया.
- 1674 में शिवाजी ने रायगढ़ में वैदिक रीति के अनुसार अपना राज्याभिषेक करवाया.
- उन्हें सारे महाराष्ट्र का एकमात्र छात्राधिपति घोषित किया गया.
- इसी समय एक नया संवत् भी चलाया गया.
- 1680 तक शिवाजी ने जिंजी, वेलूर और अन्य महत्वपूर्ण किलों पर भी अधिकार कर लिया.
छत्रपति शिवाजी की मृत्यु
- 1680 में छत्रपति शिवाजी की मृत्यु हो गई.
- उनकी मृत्यु के समय मराठा साम्राज्य पश्चिमी घाट से लेकर कल्याण और गोआ के बीच के कोंकण प्रदेश और पर्वतीय प्रदेश के कुछ पूर्वी जिलों तक फैला हुआ था.
- दक्षिण में कर्नाटक के पश्चिम में बेलगाँव से तुंगभद्रा के तट तक मद्रास प्रेजीडेन्सी के विलारी जिले तक फैला हुआ था.
छत्रपति शिवाजी की शासन व्यवस्था
- शिवाजी भी अपने समकालीन शासकों की भांति एक स्वेच्छाचारी शासक थे.
- वे जो कहते थे कर सकते थे, परन्तु उन्हें सलाह देने के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद् थी.
- यह परिषद् “अष्टप्रधान” के नाम से प्रसिद्ध थी.
- इस परिषद् के आठ मंत्री निम्नलिखित थे–
अष्टप्रधान
(1) पेशवा अथवा प्रधानमंत्री
- इसका कार्य सारे राज्य की देखभाल और उन्नति का ध्यान रखना था.
(2) अमात्य अथवा वित्त मंत्री
- इसका कार्य सारे राज्य और मुख्य-मुख्य जिलों के हिसाब-किताब की पड़ताल करना और उसे सही करना था.
(3) मंत्री अथवा इतिहासकार
- इसका कार्य दरबार की ओर राज्य की दैनिक कार्यवाही को लिखना था.
- इसे “वाकयानवीस’ भी कहा जाता था.
(4) सामंत या दबीर
- इसे विदेशमंत्री भी कहा जाता था.
- इसका कार्य विदेशी राज्यों के विषय में तथा युद्ध और शांति के सब मामलों में राजा को सलाह देना था.
(5) सचिव अथवा शरु-नवीस
- इसे गृहमंत्री भी कहा जाता था.
- इसका कार्य राजा के पत्र-व्यवहार को संभालना था.
(6) पण्डित राव
- इसे दानाध्यक्ष, सदर मोहतासिब अथवा धर्माधिकारी के नाम से संबोधित किया जाता था.
- इसका कार्य धार्मिक संस्कारों की तिथि नियत करना, अफवाह फैलाने वाले को दण्ड देना और ब्राह्मणों में दान का वितरण करना था.
(7) न्यायाधीश
- इसका कार्य नागरिक और सैनिक मामलों के संबंध में न्याय करना था.
(8) सेनापति अथवा सरे-नौबत
- इसका काम सैनिकों की भर्ती, सेना का प्रबन्ध और अनुशासन बनाए रखना था.
इन आठों मंत्रियों के संबंध में यह उल्लेखनीय है कि न्यायाधीश और पंडित राव को छोड़कर सभी मंत्रियों को सैनिक कार्यों और आक्रमणों में भाग लेना होता था.
प्रान्तीय शासन
- शिवाजी ने अपने राज्य को सूबों में बांटा हुआ था.
- प्रत्येक सूबे के लिए अलग-अलग राज्यपाल नियुक्त किए गए थे.
- इन सूबों को अनेक जिलों में बांटा गया था.
- जागीर प्रदान करने की प्रथा समाप्त कर दी गई.
- पारितोषिक के रूप में नकद धन राशि दी जाने लगी.
- कोई भी पद वंशाधिकार की प्रथा के अनुसार स्थापित नहीं था.
सैनिक प्रशासन
- शिवाजी ने एक सुसंगठित और शक्तिशाली सेना तैयार की.
- मराठों में यह परम्परा थी कि वे वर्ष का आधा समय तो खेतीबाड़ी करने में लगाते और आधा समय युद्ध में.
- किन्तु शिवाजी ने इस प्रथा को समाप्त कर सदा तैयार रहने वाली सेना का संगठन किया.
- सैनिकों को पूरे वर्ष नकद वेतन दिया जाता था.
- शिवाजी का सैन्य संगठन इस प्रकार था घुड़सवार सेना में 25 हवलदारों का एक “घट’ होता था.
- 25 पैदल सैनिकों पर एक हवलदार होता था.
- पांच हवलदारों पर एक जुमलादार होता था.
- दस जुमलादारों पर एक हजारी होता था.
- अन्य उच्च पद पांच हजारी और घुड़सवार सेना का सरे-नौबत या सेनापति होता था.
- प्रत्येक 25 पैदल सैनिकों के लिए एक रसोईया और एक पनिहारा होता था.
- सवार सेना दो भागों में बंटी हुई थी-बरगीर और सिलेदार.
- हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही बिना भेदभाव के सेना में भर्ती किए जाते थे.
- सैन्य व्यवस्था में दुर्गों का महत्वपूर्ण स्थान था.
- प्रत्येक किले (दुर्ग) में एक ही स्तर के तीन अधिकारी रखे जाते थे.
- ये अधिकारी थे-हवलदार, सबनीस और सरे-नौबत.
- शिवाजी ने एक महत्वपूर्ण समुद्री बेड़े का निर्माण करवाया था जो कोलाबा में रहा करता था.
- स्त्रियों को सेना के साथ जाने की आज्ञा नहीं थी.
- शत्रुओं की स्त्रियों और बच्चों की रक्षा करने का आदेश दिया गया था.
राजस्व व्यवस्था
- शिवाजी ने गोंवों के हिसाब से कर लगाने की प्रथा को समाप्त कर दिया.
- राजस्व-वसूली के सन्दर्भ में सरकार और किसानों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध था.
- समस्त उपजाऊ भूमि की “काठी’ (मापने वाली लठ) से अच्छी तरह नाम-तौल करवाई जाती थी.
- पैदावार में राज्य को भाग 30 प्रतिशत था.
- अन्य करों को हटाए जाने के पश्चात् यह भाग 40 प्रतिशत कर दिया गया.
- किसान राजस्व को अपनी इच्छानुसार नकद अथवा अनाज के रूप में दे सकता था.
- राज्य की ओर से कृषि को प्रोत्साहन भी दिया जाता था.
- शिवाजी ने “चौथ’’ और ‘सरदेशमुखी‘ की प्रणाली भी लागू की.
- डा. सेन का मत है कि-
“चौथ वह धन था जिसे सेनापति सिंचित प्रदेशों से वसूल करते थे. तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार इस प्रकार की वसूली उपयुक्त भी थी.”
- सिद्धांत रूप से चौथ मराठों द्वारा जीते गए प्रदेश की कुल आय का चौथाई भाग था.
- सरदेशमुख बहुत से देखमुखों अथवा देसाइयों के ऊपर का अधिकारी होता था.
- उसको सेवा के रूप में दिया जाने वाला धन ‘सरदेशमुखी कहलाता था.
न्याय प्रशासन
- प्राचीन कालीन न्याय व्यवस्था प्रचलित थी.
- कोई सामान्य नियम अथवा न्यायालय नहीं थे.
- ग्रामों में पंचायतें ही झगड़ों का निपटारा करती थीं .
- फौजदारी के मुकदमें पटेल सुना करता था.
- फौजदारी और दीवानी दोनों प्रकार के मुकदमों में “स्मृतियों” (मनुस्मृति आदि) के आधार पर न्याय किया जाता था.
- हाजिरे मजलिस अपील का अंतिम न्यायालय था.
छत्रपति शिवाजी का मूल्यांकन
- छत्रपति शिवाजी एक महान् और कर्मठ व्यक्ति थे.
- वे एक मुसलमान राज्य के छोटे से जागीरदार के पुत्र के स्थान से छत्रपति के सिंहासन पर बैठे.
- उन्होंने घोर संकटों का सामना करते हुए मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित किया.
- वे राजनीति और शासन-विज्ञान में अनुपमेय थे.
- वे यद्यपि बड़े ही धार्मिक मनोवृत्ति के पुरुष थे, तथापि मतान्ध नहीं थे.
- उनका नागरिक और सामारिक शासन कुशलता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ था.
- शिवाजी न केवल मराठा जाति के निर्माणकर्ता थे, अपितु वे मध्यकालीन भारत के निर्माणकर्ता भी थे.
छत्रपति शिवाजी और हिन्दू साम्राज्य
- सरदेसाई का मत है कि छत्रपति शिवाजी का लक्ष्य केवल महाराष्ट्र के हिन्दुओं को ही स्वतंत्र करवाना नहीं था, अपितु सारे देश के विभिन्न कोनों में रहने वाले हिन्दुओं को मुक्त करवाना था.
- छत्रपति शिवाजी के देहान्त के बाद मराठों ने उनके आदर्शों और आकांक्षाओं का यही अर्थ लगाया.
- छत्रपति शिवाजी द्वारा चौथ और सरदेशमुखी लगाना भी इसी योजना का विस्तार मात्र समझा गया.
- किन्तु अन्य इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं.
- उनके मत में शिवाजी ने छत्रसाल बुन्देला की सहायता स्वीकार न करके यह सिद्ध किया कि वे सम्पूर्ण भारत में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना का प्रयास नहीं कर रहे थे.
छत्रपति शिवाजी के शासन प्रबन्ध की कमजोरी
- शिवाजी द्वारा भरसक प्रयत्न करने के बावजूद उनका साम्राज्य दीर्घजीवी नहीं हुआ.
- वास्तव में उनका साम्राज्य अलाउद्दीन खिलजी और रणजीत सिंह की भांति एक सैनिक संगठन था, जो उनकी मृत्यु के थोड़े समय बाद ही नष्ट हो गया.
- बाबर की भांति शिवाजी का राज्यकाल बहुत ही थोड़ा रहा और यह सारा समये युद्ध करते बीता.
- अतः वे अपनी शक्ति को संचित नहीं कर पाए.
- इसके अलावा महाराष्ट्र निवासियों को शिक्षित करने और उनका सैनिक उत्थान करने का कोई दूरदर्शितापूर्ण प्रयास नहीं किया गया.
- जनसाधारण का अज्ञान मराठा जाति की उन्नति में एक बड़ी भारी बाधा थी.
छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी
सम्भाजी (1680-89)
- शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् उनका ????? और ?????? पुत्र सम्भाजी सिंहसन पर बैठा.
- उसमें शासन करने की योग्यता का नितांत अभाव था. (SRweb इतिहासकारों के इन कथनो का खंडन करता है और निवेदन करता है की इन तथ्यो पर पुनर्विचार करे )
- औरंगजेब ने उसकी इस स्थिति का लाभ उठाकर बीजापुर और गोलकुण्डा को जीत मराठों का दमन करने का निश्चय किया.
- मुगल सेनापति मुकर्रब खाँ ने संगमेश्वर से सम्भाजी व उनके सम्बन्धियों को बंदी बना लिया.
- मार्च, 1689 में उनकी हत्या कर दी गई.
- किन्तु उनकी गिरफ्तारी और हत्या का मराठों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा.
- वे मुगालों के विरुद्ध पुनः संगठित हो गए.
राजाराम (1689-1700)
- राजाराम में भी अपने पिता शिवाजी के जैसी नेतृत्व शक्ति और साहस का नितांत अभाव था.
- किन्तु सौभाग्यवश रामचंद्र पंत और प्रह्लाद मीरा जी जैसे असाधारण योग्य पुरुष उसके सलाहकार थे.
- राजाराम को अफीम खाने की लत थी और वह निराशावादी भी था, किन्तु उसमें योग्य मंत्री चुनने की प्रतिभा थी और वह उन पर विश्वास भी करता था.
- यही उसकी सफलता का मूलमंत्र था.
- 1698 में मराठों ने जिंजी के महत्वपूर्ण किले पर अधिकार कर लिया.
ताराबाई (1700-1707)
- राजाराम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कर्ण सिंहासन पर बैठा, किन्तु उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई.
- राजाराम की पत्नी ताराबाई अपने दूसरे पुत्र शिवाजी द्वितीय की गद्दी पर बैठाकर स्वयं उसकी संरक्षक बन गई.
- ताराबाई की राजकाज में बड़ी रुचि थी और सैन्य संगठन के विषय में भी उसे पर्याप्त ज्ञान था.
- उसके शासनकाल में मराठों की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गई.
- ताराबाई को राजकार्य में परशुराम त्रम्बल, धनजी यादव और शंकरजी नारयण सहायता करते थे.
- मराठों ने दक्षिण के छह सूबों को आपस में बांट लिया और उनमें मुगल प्रणाली के अनुसार राज्यपाल (सूबेदार), कमाईशदार (राजस्व एकत्र करने वाला) और राहदार (चुंगी लेने वाला) इत्यादि नियुक्त किए.
- औरंगजेब अपने सम्पूर्ण प्रयत्नों के बावजूद मराठों के अदम्य उत्साह और भावनाओं को नष्ट नहीं कर पाया.
साहू (1707-1749)
- औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों ने मराठों में फूट डालने का प्रयत्न किया.
- 1707 में साहू को मुगल कैद से मुक्त कर दिया गया.
- साहू ने मुक्त होकर ताराबाई से मराठा राज्य की मांग की, किन्तु ताराबाई ने यह घोषणा की कि राज्य उसके पति राजाराम ने स्थापित किया था.
- अतः शिवाजी द्वितीय ही उसका असली उत्तराधिकारी है.
- ताराबाई की इस घोषणा से मराठों के दो दल हो गए और उनमें संघर्ष आरंभ हो गया.
- ताराबाई ने धन्नाजी के सेनापतित्व में साहू की शक्ति को कुचलने के लिए एक सेना भेजी.
- इस सेना और साहू के मध्य 1709 में खेड़ का युद्ध हुआ.
- इस युद्ध में ताराबाई पराजित होकर कोल्हापुर चली गई.
- 1712 में शिवाजी द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका सौतेला भाई सम्भाजी कोल्हापुर की गद्दी पर बैठा.
- उधर साहू ने सतारा की गद्दी सम्भाली.
1731 में बरणा में साहू और सम्भाजी की संधि हुई.
- इस संधि के अनुसार दोनों ने आपस में कुछ प्रदेशों का बंटवारा किया तथा यह तय किया कि वे एक दूसरे के शत्रु को समाप्त करके समूचे मराठा राज्य की उन्नति के लिए कार्य करेंगे.
- 1749 में साहू की मृत्यु हो गई.
रामराजा (1749-1777)
- साहू का उत्तराधिकारी रामराजा बना.
- शीघ्र ही ताराबाई और पेशवा बालाजी बाजीराव के मध्य सत्ता हथियाने के लिए होड़ प्रारंभ हो गई.
- 24 नवम्बर, 1750 को ताराबाई ने रामराजा को कैद कर लिया.
- 1763 में ताराबाई की मृत्यु के बाद ही रामराजा मुक्त हो सका.
साहू द्वितीय (1777-1808)
- रामराजा की मृत्यु के बाद उसका दत्तक पुत्र साहू द्वितीय गद्दी पर बैठा.
- नाना फड़नवीस ने उसको दिया जाने वाला भत्ता कम कर दिया तथा उसपर और उसके सम्बन्धियों पर बहुत से प्रतिबन्ध लगा दिए.
- साहू द्वितीय नाममात्र का छत्रपति था.
- उसका कार्य केवल यह रह गया था कि जब कोई नया पेशवा नियुक्त हो वह उसे शाही पोशाक बख्शे.
प्रतापसिंह (1808-1839)
- 1808 में साहू द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र प्रतापसिंह गद्दी पर बैठा.
- छत्रपति और पेशवा के संबंध इस समय तक इतने बिगड़ गए कि अनेक वार छत्रपति प्रतापसिंह को पेशवा के विरुद्ध अंग्रेजी सहायता प्राप्त करनी पड़ी.
- 1818 में पेशवा के पतन के बाद अंग्रेजों ने प्रतापसिंह को पदासीन किया.
- 25 सितम्बर, 1819 की संधि के बाद छत्रपति ने अपने राज्य की सम्प्रभुता अंग्रेजों के पास गिरवी रख दी.
- कालान्तर में संबंध बिगड़ जाने के कारण 4 सितम्बर, 1839 को प्रतापसिंह को गद्दी से उतार दिया गया.
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