आंग्ल-अफगान संबंध (ANGLO-AFGHAN RELATIONS) आधुनिक भारत (MODERN INDIA)
आंग्ल-अफगान संबंध (ANGLO-AFGHAN RELATIONS)
- ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा पश्चिमोत्तर की ओर एक वैज्ञानिक सीमा की समस्या ने अंग्रेजों को अफगानों से सम्बन्ध स्थापित करने या युद्ध करने पर बाध्य किया .
आंग्ल-अफगान संबंधों का पहला दौर
- 1836 में ऑकलैण्ड को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया.
- सितम्बर, 1837 में ऑकलैण्ड ने कैप्टिन एलेक्जैण्डर बर्न्स को काबुल की व्यापारिक यात्रा पर भेजा.
- वास्तव में एलेक्जैण्डर बर्न्स को काबुल की राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करने के लिए काबुल भेजा गया था.
- काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद ने अंग्रेजों से प्रार्थना की कि वे उसे महाराजा रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलवा दें.
- ऑकलैण्ड ने दोस्त मुहम्मद की इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया.
- दोस्त मुहम्मद ने निराश होकर रूस से सहायता प्राप्त की.
- इस प्रकार एलेक्जैण्डर बर्न्स अपनी योजनाओं में असफल होकर 26 अप्रैल, 1838 को भारत वापस आ गया.
- बर्न्स की असफलता के बाद ऑकलैण्ड ने रणजीत सिंह और शाहशुजा के साथ मिलकर जून, 1838 में एक त्रिदलीय संधि पर हस्ताक्षर किए.
- इस संधि के अनुसार शाहशुजा को ऑकलैण्ड ने अपनी सैनिक सहायता से 1840 में काबुल की गद्दी पर बैठा दिया.
- इसके बदले शाहशुजा ने यह वचन दिया कि वह अपने विदेश संबंध सिख और अंग्रेजों की सलाह से संचालित करेगा.
- किन्तु स्थानीय जनता ने शाहशुजा को स्वीकार नहीं किया.
- शीघ्र की अफगानों ने विद्रोह कर दिया और शाहशुजा की सत्ता को समाप्त कर दिया.
- फरवरी, 1842 तक समस्त अंग्रेजी सेना अफगानिस्तान से वापस आ गई.
आंग्ल-अफगान संबंधों का दूसरा दौर
- आंग्ल-अफगान संबंधों का दूसरा दौर लॉर्ड एलनबरो से लेकर लॉर्ड नार्थब्रुक के शासन काल तक चलता रहा.
- आंग्ल-अफगान संबंधों का यह दूसरा दौर जॉन लॉरेन्स की कुशल अकर्मण्यता (Mastery Inativity) की नीति के लिए प्रसिद्ध है.
- जॉन लारेन्स अफगान मामलों के प्रति उदासीन और रूस की मध्य एशियाई आकांक्षाओं से भली-भांति परिचित था किन्तु वह अफगानिस्तान के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था.
- उसका यह विश्वास था कि अफगानिस्तान पर पहला आक्रमणकारी चाहे वह अंग्रेज हो या रूसी शत्रु समझा जाएगा तथा दूसरा मित्र.
- अतः उसने यह नीति निर्धारित की कि सीमाओं पर सेना तैयार रखे ताकि किसी भी परिस्थिति से निबटा जा सके.
- 1863 में अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के बाद वहां सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया.
- सितम्बर, 1868 तक दोस्त मुहम्मद का पुत्र शेर अली पूर्णरूप से सत्ता प्राप्त करने में सफल हो गया.
- उत्तराधिकार के इस संघर्ष में गवर्नर जनरल जॉन लोरेन्स ने न तो किसी का पक्ष लिया और न ही किसी की सहायता की.
- जब 1868 में शेर अली अमीर बनने में सफल हो गया तो लारेन्स ने उसे प्रचुर आर्थिक और सैनिक सहायता देने का प्रस्ताव किया.
- लार्ड मेयो और नार्थब्रुक ने लौरेन्स की नीति में कोई खास परिवर्तन नहीं किया.
आंग्ल-अफगान संबंधों का तीसरा दौर
- आंग्ल-अफगान संबंधों का तीसरा दौर लार्ड लिटन के शासन-काल से प्रारंभ होता है.
- लार्ड लिटन 1876 में भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया.
- उसने अफगानिस्तान के अमीर शेर अली को निम्नलिखित संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया.
- अमीर अंग्रेजों के साथ एक स्थायी संधि पर हस्ताक्षर करे,
- अमीर एक नियमित सहायता राशि अंग्रेजों को प्रदान करे,
- अमौर रूस के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करे
- शेर अली के छोटे पुत्र अब्दुल्लाजा को शेर अली का उत्तराधिकारी स्वीकार किया जाए
- काबुल में एक ब्रिटिश रेजिडेन्ट रखना स्वीकार किया जाए.
- शेर अली ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया.
- लार्ड लिटन ने इसे अपनी अपमानजनक उपेक्षा माना और अफगानिस्तान के विरुद्ध धमकाने की नीति का अनुसरण प्रारंभ कर दिया.
- कुछ ही समय बाद उसने अफगानिस्तान के विरुद्ध आक्रमण की तैयारी भी शुरू कर दी.
- नवम्बर, 1878 में आंग्ल-अफगान युद्ध आरंभ हो गया.
- शीघ्र ही अंग्रेजी सेना ने अफ़गान प्रतिरोध को समाप्त कर दिया.
- शेर अली भाग कर रूसी तुर्किस्तान पहुंच गया.
- 21 फरवरी, 1879 को उसकी मृत्यु हो गई.
- शेर अली के बाद उसके पुत्र याकूब खां को एक अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया.
- इस संधि के अनुसार याकूब खां को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार किया गया.
- अमीर ने छह लाख रुपया वार्षिक कम्पनी को देना स्वीकार किया और अपने विदेशी संबंधों में भारत सरकार की मध्यस्थता स्वीकार की.
- अंग्रेजों की यह विजय स्थायी न रह सकी और 3 सितम्बर, 1879 को काबुल में ब्रिटिश रेजिडेन्ट मेजर केवेगनरी की हत्या कर दी गई.
- किन्तु अंग्रेजी सेना ने पुनः अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया तथा काबुल, कंधार पर अधिकार कर लिया.
- अप्रैल, 1880 में ग्लैडस्टन ने ब्रिटेन में उदारवादी दल की सरकार बनाई.
- लार्ड लिटन ने त्यागपत्र दे दिया और लार्ड रिपन भारत का गवर्नर जनरल बना.
- इसी बीच शेर अली का भतीजा अब्दुर्रहमान काबुल पहुंच गया.
- लार्ड रिपन ने उसे काबुल का अमीर स्वीकार कर लिया.
- अफगानिस्तान को खण्डित करने की लार्ड लिटन की योजनाओं को तिलांजलि दे दी गई.
आंग्ल-अफगान संबंधों का चौथा दौर
- रूस द्वारा साम्राज्य विस्तार की भावना द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध के बाद भी चलती रही.
- 1889 में रूस ने पर्व (अफगानिस्तान) पर अधिकार कर लिया.
- मार्च, 1885 में रूस ने एक अन्य अफगान प्रदेश पंजदेह पर अधिकार कर लिया.
- रूस की इन विस्तारवादी योजनाओं को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने रूस के विरुद्ध युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी.
- किन्तु रूस ने शीघ्र ही ब्रिटिश सेनाओं के भय से विजित प्रदेश पुनः अफगानिस्तान को लौटा दिए और इस प्रकार संकट टल गया.
- किन्तु रूस ने दक्षिण और पूर्व की ओर अपना प्रसार जारी रखा और 1895 में पामीर पर अधिकार कर लिया.
- किंतु ब्रिटिश भय के कारण 1895 के अंत में उसने ऑक्सस नदी को अपनी दक्षिणी सीमा स्वीकार कर लिया.
- 1907 में आंग्ल-रूस समझौता हुआ.
- इससे यह निश्चित हुआ की अफगानिस्तान रूस के प्रभाव क्षेत्र से बाहर है.
- रूस ने यह वचन दीया की वह काबुल में अपने ऐजेन्ट नहीं भेजेगा.
- काबुल के साथ अपने संबंधों में इंग्लैण्ड की मध्यस्थता स्वीकार करेगा.
- दूसरी तरफ इलैंड ने बी अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति में कोई परिवर्तन न करने व अपने प्रभाव का रूस के विरुद्ध प्रयोग न करने का वचन दिया.
- किन्तु अफगानिस्तान का अमीर हबीबुल्लाह इस समझौते से सहमत न था.
- अतः आंग्ल-अफगान संबंध पुनः टुटने की स्थिति में पहुंच गए.
- प्रथम महायुद्ध में जर्मनी की घेरा से अमीर ने भारत पर आक्रमण कर दिया.
- किन्तु वह शीघ्र ही परास्त कर दिया गया.
- 1921 में एक शांति संधि पर हस्ताक्षर हुए.
- इस संधि के द्वारा अफगानिस्तान को विदेशी संबंधों के क्षेत्र में पुनः स्वाधीनता प्रदान की गई.
- 1922 में काबुल और इंग्लैण्ड के मध्य राजनयिक संबंध स्थापित हुए.
The post आंग्ल-अफगान संबंध (ANGLO-AFGHAN RELATIONS) आधुनिक भारत appeared first on SRweb.
from SRweb http://bit.ly/2H4priS
via IFTTT
No comments:
Post a Comment