Thursday, August 30, 2018

तैमूर का भारत पर आक्रमण Timur invaded India In Hindi

तैमूर का भारत पर आक्रमण Timur invaded India तैमूर मंगोल नेता चंगेज खाँ का वंशज था. वह अत्यधिक महत्वाकांक्षी था तथा शीघ्र ही उसने सीरिया से ट्रांस-ऑक्सियाना तथा दक्षिणी रूस से सिन्ध तक के सारे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया.

 

तैमूर का भारत पर आक्रमण Timur invaded India

 

1397 ई. में उसने अपने पौत्र पीर मुहम्मद को भारत पर आक्रमण हेतु भेजा. पीर मुहम्मद ने मुल्तान के सारंग खाँ को पराजित करके दीपालपुर और पाकपटन के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया.

फिर वह सतलुज के तट पर डेरा डाल कर तैमूर के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा.

अप्रैल, 1398 ई. में तैमूर समरकन्द से रवाना हुआ और अक्टूबर, 1398 ई. को उसने मुल्तान से 75 मील दूर उत्तर-पूर्व में ‘तालम्बा’ में लूटमार की.

तदुपरान्त वह पाकपटन, दीपालपुर, भटनेर, सिरसा और कैथल आदि में मार-काट व विनाश करता हुआ 7 दिसम्बर, 1398 ई. को दिल्ली से 6 मील की दूरी पर जहाननुमा नामक स्थान पर पहुंचा और उसने तदुपरान्त यहाँ कत्लेआम मचा दिया.

1399 ई. में वह भारत की अपार धन सम्पत्ति और अनेक कुशल कारीगर लेकर फिरोजाबाद, मेरठ, हरिद्वार, कांगड़ा और जम्मू को लूटता हुआ समरकन्द पहुंचा.

लौटते समय उसने खोखरों की शक्ति को भी नष्ट किया. उसने पंजाब के शासक खिज्र खाँ सैयद को मुल्तान, लाहौर और दीपालपुर के प्रदेशों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया.

इससे पूर्व किसी भी विजेता ने अपने एक आक्रमण में भारत-वर्ष को इतनी हानि नहीं पहुंचाई थी, जितनी कि तैमूर के आक्रमण से हुई.

 

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Thursday, August 23, 2018

फिरोज शाह तुगलक के उत्तराधिकारी Firoz Shah Tughlaq’s successor

फिरोज शाह तुगलक के उत्तराधिकारी Firoz Shah Tughlaq’s successorफिरोजशाह तुगलक के सभी उत्तराधिकारी नाममात्र के ही शासक रहे. उसके तत्कालीन उत्तराधिकारी (उसका पौत्र) गयासुद्दीन तुगलकशाह के प्रशासन में विशेष रुचि न ली.

 

फिरोज शाह तुगलक के उत्तराधिकारी Firoz Shah Tughlaq's successor

 

अतः अमीरों ने जफर खाँ के पुत्र अबुबक्र को 1389 ई. में सुल्तान बनाया. उसी के काल में शाहजादा मुहम्मद ने अमीरों की सहायता से 24 अप्रैल, 1989 ई. के समान में अपने आप को सुल्तान घोषित कर दिया और अबुबकर को 1390 ई. में सुल्तान का पद त्यागना पड़ा.

मुहम्मद अत्यधिक मदिरापान और विलासिता के कारण 1394 ई. में ही चल वसा और उसके पुत्र हुमायूं ने अलाउद्दीन सिकन्दर शाह की उपाधि धारण करके सुल्तान का पद सम्भाला.

उसके पश्चात् अमीरों के दो विरोधी गुटों ने नासिरुद्दीन तथा नुसरतशाह के सुल्तान बनाया. दोनों में संघर्ष हुआ. किन्तु 1398 ई. में तैमूर के आक्रमण के समय गद्दी के दोनों दावेदार दिल्ली से भाग खड़े हुए. फलत: सुल्तान का पद तीन महीने तक रिक्त रहा.

कुछ इतिहासकारों का मत है कि दिल्ली के वास्तविक सुल्तान महमूद हैं. प्रधानमन्त्री मल्लू इकबाल बन गया था. मार्च, 1399 ई. में नुसरत शाह ने जब दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयत्न किया तो मन इकबाद में उसे मार भगाया.

मल्लू इकबाल ने 1401 ई. में महमूद को दिल्ली दुता कर सुल्तान बनाया. किन्तु वास्तविक सत्ता अपने हाथों में रखी. 1405 ई. में मन्नू इकबाल मुल्तान के हाकिम खिज्र खाँ के विरुद्ध संघर्ष करता हुआ मारा गया और कुछ समय के लिए वास्तविक सत्ता महमूद के हाथों में आ गई.

1412 ई. में नासिरुद्दीन महमूदशाह की मृत्यु हो गई सुल्तान की गद्दी पर दौलत खाँ का अधीकार हो गया. 1413.ई. में दौलत खाँ और तैमूर के उत्तराधिकारी खिज्र खां के बीच सुल्तान पद के लिए संघर्ष हुआ. दौलत खाँ पराजित हुआ और तुगलक वंश के बाद खिज्र खाँ ने 1414 ई. में सुल्तान बन कर एक नए राज व सैयद वंश की स्थापना की.

 

फिरोज शाह तुगलक के उत्तराधिकारी Firoz Shah Tughlaq’s successor

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फिरोज शाह तुगलक की गृह-नीति Firuz Shah Tughlaq’s Domestic policy

फिरोज शाह तुगलक की गृह-नीति Firuz Shah Tughlaq‘s Domestic policyफिरोजशाह तुगलक की गृह-नीति न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में फिरोजशाह तुगलक ने अंग-भंग आदि कठोर व अमानवीय दण्डों को समाप्त कर दिया तथा राज्य के सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर अदालतें स्थापित करने हेतु काजी तथा मुफ्ती नियुक्त किए.


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फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) Firuz Shah Tughlaq in Hindi

फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) Firuz Shah Tughlaq in Hindi-फिरोज तुगलक मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था. उसका जन्म 1309 ई. में हुआ था. उसका पिता ‘रजब’ मुहम्मद तुगलक का सिपहसालार था तथा माता बीबी जैला अबूहर के राजपूत सरदार रणमल की पुत्री थी.

फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) Firuz Shah Tughlaq in Hindi

 

मुहम्मद तुगलक की मृत्यु पर थट्टा के स्थान पर ही फिरोज शाह तुगलक (Firuz Shah Tughlaq) का राज्याभिषेक हुआ क्योंकि मुहम्मद तुगलक की अपनी कोई सन्तान नहीं थी.

मुहम्मद तुगलक की विपरीत नीतियों के कारण उलेमा और अमीर वर्गों में असन्तोष था. अतः फिरोज तुगलक ने अपनी प्रशासनिक लड़ाई आंतरिक सुरक्षा और रणक्षेत्र से सम्बन्धित क्षेत्रों में शुरू की.

फिरोज शाह तुगलक (Firuz Shah Tughlaq) ने 1353 ई. में प्रथम अभियान बंगाल के शम्सुद्दीन इलियास के विरुद्ध छेड़ा क्योंकि उसने मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् फैली अशांति का लाभ उठा कर स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था.

फिरोज तुगलक के आगमन की खबर पाकर उसने ‘इकदला‘ के दुर्ग में शरण ली तथा सुल्तान की सेनाओं ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया. मगर कई दिनों के घेरे . के बाद इलियास के साथ सन्धि करके सुल्तान दिल्ली लौट गया.

इस प्रकार प्रथम अभियान से फिरोजशाह तुगलक को पूर्ण राजनीतिक लाभ प्राप्त नहीं हो. सके और इलियास द्वारा औपचारिक रूप से अधीनता स्वीकार करने पर ही वह सन्तुष्ट हो गया.

1357 ई. में शम्सुद्दीन इलियास की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र व . उत्तराधिकारी सिकन्दर बड़ा अत्याचारी व अन्यायी शासक सिद्ध हुआ. 1359 ई. में सुल्तान ने फिर बंगाल के विरुद्ध कूच किया. सिकन्दर ने भी इकदला के दुर्ग में शरण ली. इस बार भी सुल्तान को असफल होकर लौटना पड़ा.

इस बार सीधा दिल्ली आने की अपेक्षा सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण करके जगन्नाथ मन्दिर को ध्वस्त किया तथा कुछ अन्य आसपास के हिन्दू राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया.

1361 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने नगरकोट (काँगड़ा) पर आक्रमण करके ज्वालामुखी मन्दिर को ध्वस्त किया और मन्दिर की मुख्य मूर्ति को विजय-चिन्ह के रूप में मदीना भेज दिया.

1362 ई. में सुल्तान ने थट्टा (सिन्ध) के अमीरा के विरुद्ध अभियान छेड़ा. मगर मार्ग में उसकी सेना रास्ते से भटक कर रन के मरुस्थल में पहुँच गई. एक अन्य सेना ने थट्टा पर अधिकार कर लिया.

डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार,

“सिंध का अभियान फिरोज तुगलक के शासन-काल की अति मनोरंजक घटना है. यह सुल्तान की मूर्खता एवं कूटनीतिक अनभिज्ञता का अपूर्व उदाहरण है.”

1380 ई. में सुल्तान ने कटेहर के राजा खरकू के विरुद्ध सफलता प्राप्त की. संक्षेप में फिरोजशाह तुगलक की विदेशी नीति बंगाल को छोड़कर अन्य उत्तरी क्षेत्रों में सफल रही परन्तु उसने दक्षिण में स्वतन्त्र हुए राज्य-विजयनगर, बहमनी एवं मदुरा आदि को पुनः जीतने का प्रयत्न नहीं किया.

सिंध का अभियान बहुत लम्बा और सैनिक दृष्टि से हानिकारक रहा. अतः स्पष्ट होता है कि सुल्तान फिरोज शाह तुगलक (Firuz Shah Tughlaq) ने कोई भी सैनिक अभियान साम्राज्य विस्तार की दृष्टि से नहीं किया अपितु साम्राज्य सुरक्षा के लिए कुछ अभियान किए. सितम्बर, 1388 ई. में उसकी मृत्यु हो गई.

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मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluq

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluqमुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad bin Tughluq) दिल्ली सल्तनत के सभी सुल्तानों से सर्वाधिक सुशिक्षित, योग्य व तीव्र बुद्धि वाला अनुभवी निपुण सेनापति तथा महान विजेता था.

 

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluq

 

किन्तु इतने अधिक गुण होते हुए भी वह इतिहास में सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्ति रहा है. उसे विवादास्पद बनाने वाली उसकी वे विचित्र योजनाएं है जो उसने अपनी विद्वता से प्रेरित होकर शुरू कीं. ये योजनाएं थीं-

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluq

  1. दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
  2. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.),
  3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) तथा
  4. खुरासान एवं कराचिल का अभियान .

प्रथम योजना के अन्तर्गत सुल्तान ने दोआब क्षेत्र में लगभग 50% तक कर में वृद्धि की. दुर्भाग्यवश उसी वर्ष भयानक अकाल पड़ा किन्तु तुगलक के अधिकारियों ने जबरन कर वसूल किया.

फलस्वरूप विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई और तुगलक की यह योजना असफल रही.

मुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad bin Tughluq)की दूसरी योजना दिल्ली से राजधानी देवगिरी (वर्तमान में दौलताबाद, औरंगाबाद, महाराष्ट्र ) को स्थानान्तरित करने की थी. इसके विभिन्न कारण-‘देवगिरी’ उसके साम्राज्य के मध्य में स्थित होना, दक्षिण भारत पर नियन्त्रण बनाए रखना, मंगोलों के आक्रमणों से सुरक्षित रहना आदि माने जाते हैं.

सुल्तान ने देवगीरि का नाम दौलताबाद रखा. मगर उसकी यह योजना भी पूर्णतः असफल रही तथा 1335 ई. में उसने लोगों को दिल्ली वापस जाने की अनुमति दे दी. उसकी इस योजना के कारण जन-धन की बहुत हानि हुई.

अपनी तीसरी योजना के दौरान उसने फरिश्ता के अनुसार ‘पीतल’ तथा बरनी के अनुसार ‘तांबा’ धातुओं की सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन किया, जिनका मूल्य चांदी के टंके के बराबर रखा गया .

मगर इस योजना में भी सुल्तान को असफलता मिली व राज्य की अत्यधिक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा.

अपनी चौथी योजना के दौरान सुल्तान ने खुरासान व कराचल पर अभियान भेजा. खुरासान विजय करने हेतु उसने लगभग 3,70,000 सैनिकों को वर्ष भर का अग्रिम वेतन दे दिया.

लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण, दोनों देशों के बीच संधि हो गई तथा सुल्तान को आर्थिक रूप से अत्यधिक क्षति हुई. कराचिल अभियान के दौरान एक विशाल सेना दुर्गम जंगली व पहाड़ी रास्तों में भटक गई व स्थानीय लोगों ने पत्थरों से ही सेना को खदेड़ दिया.

इब्नबतूता के अनुसार इतनी विशाल सेना में से लगभग 3 सैनिक ही बच कर दिल्ली आ पाए थे. इस प्रकार सुल्तान की यह योजना भी असफल रही.

फरिश्ता के अनुसार जब 1327 ई. में मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन खाँ ने भारत पर आक्रमण करके लाभधान व मुल्तान आदि में लूट-पाट की तो .

“सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसको बहुत अधिक रुपया देकर लौटा दिया, इस तरह उसने अपने आप को अपमानित किया.”

मगर डा. मेहदी हुसैन के मतानुसार, 

“तरमाशरीन खाँ भारत में शरणार्थी के रूप में आया क्योंकि 1326 ई. में उसकी गजनी के समीप अमीर चौबान के हाथों पराजय हो गई थी. वह अपनी सेना सहित दिल्ली भाग आया जहाँ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसकी सहायता के लिए 5000 दीनार दिए और वह वापस चला गया.’

मुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad bin Tughluq) के व्यक्तित्व के अध्ययन से निष्कर्ष के रूप में कहा जा . सकता है कि उसका चरित्र व व्यक्तित्व गुण और दोर्षों का मिश्रण था.

जियाउद्दीन बरनी ने उसे विपरीत तत्वों का मिश्रण बताया है. स्मिथ, सेवेल, लेनपूल और वुल्जले हेग भी उसे गुण और अवगुणों का मिश्रण मानते हैं.

डा. मेहदी हुसैन के विचारानुसार मुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad bin Tughluq) के विरोधी गुण उसके जीवन के विभिन्न अवसरों पर प्रकट हुए और उनके लिए स्पष्ट कारण थे. अतः उसे विरोधी तत्वों का मिश्रण स्वीकार नहीं किया जा सकता.

आधुनिक शोधों से स्पष्ट हो गया है कि मुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad bin Tughluq) एक असाधारण प्रतिभा का शासक था.

 

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluq

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मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51 ई.) Muhammad bin Tughluq In Hindi

मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51 ई.) Muhammad bin Tughluq In Hindi-पिता गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के तीन दिन पश्चात् जीना खाँ ने मुहम्मद बिन तुगलक की उपाधि धारण करके स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित किया.

 

मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51 ई.) Muhammad bin Tughluq In Hindi

 

पिता की मृत्यु पर उसने चालीस दिन के शोक के पश्चात् अपना राज्याभिषेषक कराया और सरदारों और अमीरों को विभन्न उपाधियाँ और पद प्रदान किए.

सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में वह सर्वाधिक शिक्षित, विद्धान और योग्य व्यक्ति था. उसके काल का आरम्भ और अन्त अनेकानेक उथल-पुथल एवं विद्रोहों से हुआ.

1326-27 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक(Muhammad bin Tughluq) ने मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन खाँ को पराजित किया तथा कलानौर एवं पेशावर को जीता. 1326-27 ई. में ही गुजरात के ख्वाजा जहाँ के नेतृत्व में शाही सेनाओं ने सुल्तान के चचेरे भाई और सागर के हाकिम बहाउद्दीन गुरशस्प के विद्रोह को दबाया व गुरशस्प को पकड़ कर उसकी खाल खिंचवा दी गई.

1328 ई. में मुल्तान के हाकिम किशलू खाँ के विद्रोह को दबा कर उसे मौत के घाट उतार दिया गया. 1330 ई. में पूर्व बंगाल (सोनार गाँव) के शासक गयासुद्दीन बहादुर को सुल्तान के भाई बहराम शाह ने पराजित किया क्योंकि उसने सुल्तान की आज्ञा का पालन नहीं किया था. उसकी खाल खिंचवा कर उसके शव में भूसा भरवा कर राज्य में घुमाया गया.

1328 ई. में सिंध में काजी और खतीव के षड्यन्त्रों के कारण विद्रोह हुआ. उन्हें भी पकड़कर उनकी खाल खिंचवाई गई. 1333 ई. में सेहवां में रतन के विद्रोह को इमादुलमुल्क ने दबाया व उसका भी पूर्व के अन्य विद्रोहियों जैसा हाल हुआ.

1335 ई. में माबर के हाकिम सैयद अहसान शाह ने विद्रोह करके स्वतन्त्र मदुरा साम्राज्य की नींव रखी. दिल्ली व मालवा में अकाल, वारंगल में हैजा व लाहौर में विद्रोह के कारण सुल्तान अहसानशाह के विद्रोह को नहीं दबा सका.

दौलताबाद के हाकिम हुशंग ने भी विद्रोह किया, किन्तु उसे बिना किस कठिनाई के दबा दिया गया.

लाहौर के हुलांजू मंगोल और गुलचन्द्र के विद्रोह को सिन्ध के हाकिम ख्वाजा जहाँ ने दवाया व उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया. दक्षिण में दो हिन्दू भाइयों-हरिहर तथा बुक्का ने स्वतन्त्र विजयनगर राज्य तथा कन्हैया नामक व्यक्ति ने वारंगल में स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया.

1337 ई. में सोनार गाँव (बंगाल) में गयासुद्दीन बहादुर के पश्चात् नियुक्त किए गये हाकिम फखरुद्दीन मुबारक शाह ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया. 1340 ई. में अवध में ऐनुलमुल्क के विद्रोह को दबाया गया.

3 अगस्त, 1342 ई. को देवगिरी के विदेशी मूल के मुस्लिम शासक हसन गंगू ने अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि धारण करके स्वतन्त्र बहमनी राज्य की स्थापना की.

गुजरात में तगी नामक व्यक्ति के विद्रोह को दबाने के लिए सुल्तान स्वयं गया. तगी परास्त होकर सिंध की ओर भागा तथा सुल्तान उसका पीछा करते हुए थट्टा (सिंध) तक पहुंचा.

वहीं उसे ज्चर हो गया तथा 20 मार्च, 1351 ई. को उसकी मृत्यु हो गई. बदायूँनी लिखता है-

“और इस तरह राजा अपनी प्रजा से मुक्त हुआ और प्रजा अपने राजा से मुक्त हुई.”

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गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक (1320-25 ई.) Ghiyasuddin Tughlaq or Ghazi Malik

गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक (1320-25 ई.) Ghiyath al-Din, Ghiyasuddin Tughlaq or Ghazi Malik-गाजी मलिक या गयासुद्दीन तुगलक-‘तुगलक वंश‘ का संस्थापक था.

 

गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक (1320-25 ई.) Ghiyath al-Din, Ghiyasuddin Tughlaq or Ghazi Malik

 

उसका पिता एक करौना तुर्क था तथा माता पंजाब के जाट की पुत्री थी. उसका पिता बलबन का तुर्की दास था. अतः उसमें “हिन्दुओं की विनम्रता और कोमलता तथा तुर्को का पुरुषार्थ व उत्साह का मिश्रण था.”

गाजी मलिक (Ghazi Malik) (गयासुद्दीन तुगलक) ने एक साधारण सैनिक से अपना जीवन आरम्भ किया था और अन्त में वह दिल्ली का सुल्तान बना. उसने अपने समय में लगभग 29 बार मंगोलों के आक्रमणों को विफल किया.

दिल्ली का व्रह प्रथम सुल्तान था जिसे राज-घराने से सम्बन्धित न होने पर भी अमीरों व सरदारों ने आग्रह पूर्वक सुल्तान बनाया था तथा जिसने ‘गाजी’ या ‘काफिरों का घातक’ की उपाधि धारण की थी.

उसने कुलीन जनों व अधिकारियों का विश्वास प्राप्त करके साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया. परन्तु शेख निजामुद्दीन औलिया से उसके सम्बन्ध तनावपूर्ण रहे.

भ्रष्टाचार व गबन को रोकने के लिए गाजी मलिक (गयासुद्दीन तुगलक) ने अपने अधिकारियों को अच्छा वेतन दिया. उसने अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम (रस्म-ए-मियान) को बनाया तथा लगान के रूप में 1/10 या 1/12 भाग वसूल करने के आदेश जारी किए.

सिंचाई के लिए कुओं व नहरों का निर्माण करवाया. सम्भवतः नहरों का निर्माण करवाने वाला यह पहला सुल्तान था. हिन्दुओं के प्रति उसने कठोर नीति अपनाई. वह दानी स्वभाव का था तथा प्रजाहितकारी कार्यों में रुचि रखता था.

गाजी मलिक (गयासुद्दीन तुगलक Ghiyasuddin Tughlaq) ने सैनिक विजयें भी प्राप्त की. उसकी सेनाओं ने-

  • तेलंगाना (1321-23 ई.),
  • उड़ीसा (1324 ई.),
  • बंगाल (1324 ई.),
  • तिरहुत तथा मंगोलों पर (1324 ई.) भी विजय प्राप्त की.
  • उसके पुत्र जौना खाँ ने अनेक सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया.

जब गयासुद्दीन तुगलक(Ghiyasuddin Tughlaq) बंगाल से लौट रहा था तो उसके पुत्र जौना खाँ ने उसके स्वागत के लिए दिल्ली (तुगलकाबाद-गयासुद्दीन तुगलक द्वारा निर्मित शहर) से 6 मील की दूरी पर स्थित अफगान पुर में एक लकड़ी का भवन बनवाया.

यह विचार किया जाता है कि जूना खाँ ने इस भवन को इस ढंग से बनवाया था कि एक विशेष स्थान पर हाथियों के स्पर्श से यह गिर पड़े. ऐसा उसने अपने पिता को खत्म करने व स्वयं सुल्तान बनने के उद्देश्य से किया था.

इस दुर्घटना में गयासुद्दीन अपने पुत्र राजकुमार महमूद खाँ के साथ कुचला गया. इस प्रकार मार्च, 1325 ई. को गयासुद्दीन की मृत्यु हुई व जौना खाँ सुल्तान बना.

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तुगलक वंश का पूरा इतिहास (1320-1414 ई.) Tughlaq Dynasty in HIndi

तुगलक वंश का पूरा इतिहास (1320-1414 ई.) Tughlaq Dynasty in HIndi-तुगलक वंश के विषय में जानकारी देने वाले प्रमुख फारसी ग्रन्थ हैं-

 

तुगलक वंश का पूरा इतिहास (1320-1414 ई.) Tughlaq Dynasty in HIndi

 

 

  1. बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’,
  2. शम्स सिराज अफीक की ‘तारीखे-फिरोजशाही’
  3. यहया बिन अहमद बिन अब्दुला सरहिन्दी की ‘तारीखे-मुबारकशाही’
  4. मुहम्मद बिहामद खानी की ‘तारीखे मुहम्मदी’,
  5. शरफद्दीन अली यजदी का ‘जफरनामा’,
  6. बरनी की ‘फतावा-ए-जहांदारी’,
  7. सुल्तान फिरोजशाह की ‘फतूहाते फिरोजशाही’,
  8. ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद की ‘तबकाते अकबरी’,
  9. मीर मुहम्मद मासूम की तारीखे सिंध’,
  10. हमीद द्वारा संकलित शेख नसीरुद्दीन महमूद चिरागे देहलवी की गोष्ठियाँ,
  11. ऐनल मुल्क ऐनुद्दीन अब्दुल्लाह इब्न माहरू के पत्र,
  12. सुल्तान फिरोजशाह के समकालीन कवि मुतहर कड़ा की कविताएं आदि.

गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक (1320-25 ई.) Ghiyath al-Din, Ghiyasuddin Tughlaq or Ghazi Malik

मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51 ई.) Muhammad bin Tughluq In Hindi

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं Schemes of Muhammad bin Tughluq

फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) Firuz Shah Tughlaq

फिरोजशाह तुगलक की गृह-नीति

फिरोज शाह तुगलक के उत्तराधिकारी Firoz Shah Tughlaq’s successor

तैमूर का भारत पर आक्रमण Timur invaded India

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Wednesday, August 22, 2018

भारत पर मंगोल आक्रमण | सल्तनत काल | Mongol Invasion of India on Sultanate Era

नासिरुद्दीन खुसरो शाह | खिलजी वंश का पतन Nasiruddin Khusro Shah

नासिरुद्दीन खुसरो शाह  खिलजी वंश का पतन Nasiruddin Khusro Shah -यह हिन्दू धर्म से परिवर्तित मुसलमान था तथा उसने हिन्दू प्रभुत्व की स्थापना करनी चाही. उसने ‘पैगम्बर से सेनापति’ की उपाधि धारण की.

 

नासिरुद्दीन खुसरो शाह खिलजी वंश का पतन Nasiruddin Khusro Shah

 

हिन्दू धर्म को महत्व देने के कारण यह मुसलमानों में अप्रिय हो गया तथा उसके विरोधियों की संख्या बढ़ने लगी. गाजी मलिक तुगलक ने जो दीपालपुर का सूबेदार था, अनेक अमीरों को साथ लेकर खुसरो शाह के विरुद्ध कूच किया.

5 सितम्बर, 1320 ई. को गाजी मलिक तुगलक तथा खुसरो शाह के मध्य युद्ध हुआ . खुसरो शाह पराजित हुआ व 8 सितम्बर, 1320 ई. को अमीरों और सरदारों की सहमति से गाजी मलिक ‘गयासुद्दीन तुगलक शाह‘ के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा. इस प्रकार महान् खिलजी वंश का पतन और तुगलक वंश का उदय हुआ.

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कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी (1316-20 ई.) Qutb Ud Din Mubarak Shah Khilji

कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी (1316-20 ई.) Qutb Ud Din Mubarak Shah Khilji -मुबारक खाँ सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का पुत्र था. काफूर ने नौकरों को बन्दीगृह में उसकी आँखे निकालने हेतु भेजा था. मगर वह चालाकी से बच गया तथा उसी ने काफूर की हत्या करवा दी.

 

कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी (1316-20 ई.) Qutb Ud Din Mubarak Shah Khilji

 

14 अप्रैल, 1316 ई. (20 मुहर्रम 716 हिजरी) को 17 या 18 वर्ष की आयु में वह कुतुबुद्दीन मुबारक शाह के नाम से गद्दी पर बैठा. उसने कठोर अलाई नियमों को हटा कर या शिथिल करके अमीरों को अपने पक्ष में कर लिया.

उसने बाजार नियन्त्रण सम्बन्धी कठोर दण्डों को भी हटा दिया. 1316 ई. में उसने गाजी तुगलक और एनुल्मुल्क मुल्तानी के अधीन सेना भेजकर गुजरात के विद्रोह को दबाया. 1818 ई. में देवगिरी पर विजय प्राप्त करके यहाँ के शासक हरपाल देव की हत्या कर दी गई.

कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी (Qutb Ud Din Mubarak Shah Khalji) के शासन काल में सबसे अधिक उन्नति गुजरात के सामान्य दास हसन की हुई जिसे सुल्तान ने ‘खुसरो खाँ’ की उपाधि दी व कालान्तर में अपना वजीर बनाया.

सुल्तान बनने के बाद मुबारक शाह ने दो वर्ष तक बड़ी लगन से कार्य किया; तत्पश्चात् वह आलस्य, विलासिता, इन्द्रिय-लोलुपता, व्यभिचार आदि दुर्गुणों का शिकार हो गया. उसे नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत पसंद थी. कभी-कभी राज-दरबार में स्त्रियों के वस्त्र पहन कर आ जाता था.

बरनी के अनुसार वह कभी-कभी नग्न होकर दरबारियों के बीच दौड़ा करता था. उसने ‘अल-इमाम’, ‘उल-इमाम’ और ‘खलाफत-उल-लह’ की उपाधि धारण की.

खुसरो खाँ ने सुल्तान बनने के लालच में उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा और ‘तारीख-ए-मुबारक शाही’ के लेखक के अनुसार सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह का खुसरो खाँ ने 26 अप्रैल, 1320 ई. की रात्रि को वध कर दिया. उसने रात्रि को ही दरबार लगाया और अमीरों और सरदारों से बलात् स्वीकृति लेकर स्वयं सुल्तान बना.

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शहाबुद्दीन उमर खिलजी तथा मलिक काफूर | Shahabuddin Umar Khilji and malik kafur

शहाबुद्दीन उमर खिलजी तथा मलिक काफूर Shahabuddin Umar and malik kafur-सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) की मृत्यु के पश्चात् मलिक काफूर (Malik kafur)ने राज्य के अमीरों और अधिकारियों को ‘एक जाली उत्तराधिकार पत्र’ दिखा कर पाँच या छहः वर्ष के नाबालिग उमर खाँ को शहाबुद्दीन उमर खिलजी के नाम से सुल्तान बनवा कर स्वयं उसका संरक्षक बन गया .

 

शहाबुद्दीन उमर खिलजी तथा मलिक काफूर Shahabuddin Umar Khilji and malik kafur

 

हिजड़ा (तृतीयपंथी ) होने के बावजूद भी मलिक काफूर (Malik kafur)ने शिशु सुल्तान की माँ (देवगिरी के शासक रामचन्द्र देव की पुत्री) से विवाह कर लिया.

उसके मृत सुल्तान के पुत्रों खिज्र खाँ, शादी खाँ, फरीद खाँ, मुहम्मद खाँ, अबूबक खाँ आदि को बन्दी बना कर अन्धा करवा दिया. मलिका-ए-जहाँ भी कैद थी.

अतः मलिक काफूर स्वयं को पूर्णतः सुरक्षित समझ कर शासन करने लगा. लेकिन लगभग 35 दिन के सत्ता उपभोग के बाद अलाउद्दीन खिलजी के तीसरे पुत्र मुबारक खिलजी (Mubarak Khilji) ने मलिक काफूर की 11 फरवरी, 1316 ई. को हत्या करवा दी तथा स्वयं सुल्तान का संरक्षक बन गया और कालान्तर में मलिक काफूरने शहाबुद्दीन उमर खिलजी (सुल्तान) को अन्धा करवा कर कैद कर लिया.

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Monday, August 20, 2018

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु(6 जनवरी, 1316 ई.) Alauddin Khilji’s Death

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु  Alauddin Khilji’s death-निरंकुश शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) के अन्तिम दिन भयावह दुःख, क्लेश और बेबसी में बीते.

 

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु Alauddin Khilji death

 

 

यौवन काल और प्रौढ़ावस्था में इन्द्रिय सुखों के अपरिमित आनन्द, निरन्तर कठोर परिश्रम और मानसिक तनावों ने उसे समय से पूर्व ही वृद्धावस्था की ओर धकेल दिया और वह अधिकाधिक चिड़चिड़ा, झक्की और शक्की बनता गया.

सुल्तान की शक्तिहीनता का लाभ उठा कर मलिक काफूर ने सत्ता को हथियाने के लिए सुल्तान को विश्वास में लेकर खिज्र खाँ (सुल्तान का बेटा), मलिका-ए-हजान (सुल्तान की पत्नी) व उसके भाई अल्प खाँ को अपने रास्ते से हटा दिया.

6 जनवरी, 1316 ई. ( शव्वल 715 हिजरी) को सुल्तान की मृत्यु हुई. ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार सुल्तान की मृत्यु का तत्कालीन कारण सम्भवतः मलिक काफूर द्वारा दिए गए विष का घातक प्रभाव था.

 

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अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार | Alauddin khilji’s administrative reform

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform-कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin khilji) प्रशासनिक क्षेत्र में महान् सेनानी था. राज्य के विषयों का प्रबन्ध करने में कोई भी मुसलमान शासक मुगलों से पूर्व ऐसा उदाहरण स्थापित न कर सका.

 

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji's administrative reform death

 

शासन प्रबन्ध के विभिन्न क्षेत्रों में उसने बहुत से सुधार किए जिसमें से कुछ वस्तुतः मौलिक होने के अधिकारी हैं. वह प्रशासन के केन्द्रीकरण में पूर्ण विश्वास रखता था तथा उसने प्रान्तों के सूबेदारों और अन्य अधिकारियों को अपने पूर्ण नियंत्रण में रखा.

 

सुल्तान

सुल्तान में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका की . सर्वोच्च शक्तियाँ विद्यमान थीं. वह स्वयं को अमीरुल मौमिनीन या सहधर्मियों का नेता मानता था. वह भी राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था. उनके अधिकार असीमित थे तथा उस पर किसी का नियन्त्रण नहीं था.

 

मन्त्रीगण

राज्य में चार महत्वपूर्ण मन्त्री थे जो राज्य के चार स्तम्भ माने जाते थे.

(1) दीवान-ए-वजारत

यह मुख्य मन्त्री होता था. इसे वजीर भी कहा जाता था. अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सिंहासनारोहण के समय ख्वाजा खातिर . को वजीर बनाया तथा 1997 ई. में उसके स्थान पर नुसरत खाँ वजीर बना. ताजुद्दीन काफूर भी उसका वजीर रहा. वजीर को वित्त के अतिरिक्त सैन्य अभियानों का भी नेतृत्व करना पड़ता था. उसके अधीन सहायता हेतु मुशरिफ (महालेखा पाल), मुस्तौफी (महालेख-निरीक्षक), वक्रूफ आदि कर्मचारी होते थे.

(2) दीवान-ए-अर्ज (युद्ध मन्त्री)

यह दूसरा महत्वपूर्ण पद था. इसके मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती करना, उनके प्रशिक्षण व वेतन की व्यवस्था करना, युद्ध में साथ जाना व लूट का माल सम्भालना आदि थे. उसके अधीन नायब-आरिज-ए-मुमालिक (उपाधिकारी) होता था. अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में मलिक नासिरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन ‘आरिज-ए-मुमालिक’ था और उसका उपाधिकारी ख्वाजा हाजी नायब आरिज’ था.

(3) दीवान-ए-इंशा

यह तीसरा मुख्य पद था. इसके प्रमुख कार्य शाही उद्घोषणाओं और प्रपत्रों का प्ररूप बनाना, सरकारी कार्यों का लेखा-जोखा रखना प्रान्तपतियों व स्थानीय अधिकारियों से पत्र-व्यवहार करना आदि थे. इसके अधीन दबीर या सचिव होते थे. मुख्य दबीर आमतौर पर -दबीर-ए-खास’ सुल्तान का निजी सचिव) होता था जो जो पत्र-व्यवहार का कार्य व ‘फतहनामा’ (विजयों का लेखा-जोखा) तैयार करता था.

(4) दीवान-ए-रसालत

यह विदेशी विभाग तथा कूटनीतिक पत्र-व्यवहार से सम्बन्ध रखता था. इस विभाग को सुल्तान स्वयं देखता था और उसने किसी भी अमीर को यह विभाग नहीं सौंपा.

दीवान-ए-रियासत

अलाउद्दीन खिलजी ने यह एक नया मन्त्रालय खोला जिसके अधीन राजधानी के आर्थिक मामले थे. वह बाजार की सम्पूर्ण व्यवस्था का संघीय मंत्री या अधिकारी होता था. ‘याकूब’ को इस पद पर नियुक्त किया गया था.

राजमहल के कार्यों की देख-रेख ‘वकील-ए-दर’ करता था. ‘वकील-ए-दर’ के बाद ‘अमीर-ए-दाजिब’ (उत्सव अधिकारी) का पद आता था. कुछ अन्य अधिकारी भी थे जैसे-सरजांदार (सुल्तान के अंग रक्षकों का नायक), ‘अमीर-ए-आखूर’ (अश्वाधिपति), ‘शहना-ए-पील’ (गजाध्यक्ष), ‘अमीर-ए-शिकार (शाही आखेट का अधीक्षक), ‘शराबदार’ (सुल्तान के पेयों का प्रभारी), ‘मुहरदार’ (शाही मुद्रा-रक्षक) आदि.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

न्याय प्रशासन(Justice administration)

सुल्तान अपील की मुख्य अदालत था. उसका फैसला अन्तिम होता था. उसके बाद ‘सद्र-ए-जहाँ काजी उल कुजात’ मुख्य न्यायाधिकारी होता था. उसके अधीन नायब काजी या अल कार्य करते थे और उनकी सहायता के लिए मुफ्ती’ होते थे. गाँवों में मुखिया और पंचायतें झगड़ों का निपटारा करती थीं. ‘अमीर-ए-दाद’ नामक अधिकारी दरबार में ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को प्रस्तुत करता था जिन पर काजियों का नियंत्रण नहीं होता था.

अलाउद्दीन खिलजी के काल में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा दी गई. फैसले शीघ्र व निष्पक्ष किए जाते थे. आलाउद्दीन ने धर्म की अवहेना न करते हुए भी यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि परिस्थिति एवं लोक-हित की दृष्टि से जो नियम उपयुक्त हों वे ही राजनियम होने चाहिए.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

पुलिस एवं गुप्तचर व्यवस्था(Police and intelligence)

अलाउद्दीन खिलजी ने पुलिस व गुप्तचर विभाग को कुशल व प्रभावशाली बनाया. गर्वनर, मुस्लिम सरदार, बड़े-बड़े अधिकारियों और साधारण जनता के कार्यों और षड़यन्त्रों आदि की पूर्ण जानकारी रखने हेतु गुप्तचर व्यवस्था को बहुत महत्व दिया. कोतवाल शांति व कानून का रक्षक था तथा वह ही मुख्य पुलिस अधिकारी था. पुलिस व्यवस्था को सुधारने के लिए कई पदों का सृजन किया गया और उन पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की गई. गुप्तचर विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘बरीद-ए-मुमालिक’ होता था. उसके नियन्त्रण में अनेक बरीद (संदेश वाहक) कार्य करते थे. बरीद के अतिरिक्त अन्य सूचना दाता को ‘मुनहियन’ तथा ‘मुन्ही’ कहा जाता था.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

डाक-व्यवस्था (Postal system)

अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य के विभिन्न भागों से सम्पर्क बनाए रखने के लिए उचित डाक-व्यवस्था का प्रबन्ध किया. उसने अनेक घुड़सवारों और क्लर्को को डाक चौकियों में नियुक्त किया. कुशल डाक-व्यवस्था के कारण ही सुल्तान को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में हुए विद्रोहों की सूचना तुरन्त मिल जाती थी और सुल्तान तुरन्त आवश्यक कार्यवाही करता था. इस प्रकार कुशल डाक-व्यवस्था उसके साम्राज्य की एकता हेतु सहायक सिद्ध हुई.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

सैनिक प्रबन्ध(Military management)

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य विस्तार, आन्तरिक विद्रोहों को कुचलने तथा बाह्य आक्रमणों का सामना करने हेतु व एक विशाल, सुदृढ़ तथा स्थाई साम्राज्य स्थापित करने के लिए सैनिक व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया. उसने बलबन की तरह प्राचीन किलों की मरम्मत करवाई और कई नए दुर्ग बनवाए.

घोड़ों को दागने तथा सैनिकों का हुलिया दर्ज करवाने के नियम बनाए. वह पहला सुल्तान था जिसने एक विशाल स्थाई सेना रखी. फरिश्ता के अनुसार “उसकी सेना में 4,75,000 सुसज्जित व वर्दीधारी घुड़सवार थे.” उसने सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा चलाई तथा वृद्ध सैनिकों को सेवा-निवृत करके उन्हें पेंशन दी.

‘दीवान-ए-आरिज’ प्रत्येक सैनिक का हुलिया रखता था. अमीर खुसरो के अनुसार ‘दस हजार सैनिकों की टुकड़ी को ‘तुमन’ कहा जाता था. भलीभांति जाँच-परख कर भर्ती किए गए सैनिक को ‘मुरत्तब’ कहा जाता था. एक साधारण अश्वारोही मुरत्त को 234 टंके प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता था. सवार का वेतन 156 टंके था. सेना की प्रत्येक इकाई में जासूस रहते थे जो सैनिक अधिकारियों के व्यवहार के विषय में सुल्तान को बराबर सूचित करते रहते थे.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

वित्तीय और राजस्व व्यवस्था(Financial and revenue system)

अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था जिसने वित्तीय और राजस्व व्यवस्था को सुधारने में गहरी रुचि ली. भूमिकर के सम्बन्ध में ‘मुस्तखराज’ नामक एक नए अधिकारी की नियुक्ति की गई. उसका कार्य किसानों से न दिए गए करों को वसूल करना था.

सुल्तान ने भूमिकर की दर 25% तथा 30% से बढ़ा कर 50% कर दी. यह वृद्धि सम्भवतः उसने अपनी विशाल सेना का खर्च चलाने के लिए की थी. लेकिन जहाँ उसने कर की दर में वृद्धि की वहीं किसानों को भूमिकर अधिकारियों के भ्रष्टाचार से बचाने के उपाय भी किए.

उसने दोषी पाए गए अधिकारियों व कर्मचारियों हेतु कठोर दण्ड की व्यवस्था की. ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार ‘बिस्वा’ के आधार पर राजस्व एकत्र किया जाता था.

जजिया‘ भी लिया जाता था. सम्भवतः ब्राह्मणों, स्त्रियों, बच्चों, पागलों और निर्बलों से जजिया नहीं लिया जाता था. मुसलमानों से ‘जकात’ (धार्मिक कर) के रूप में सम्पत्ति का 1/40वां भाग लिया जाता था.

खम्स (युद्ध कमें लूट के माल का भाग) राज्य की आय का महत्वपूर्ण साधन बन गया था क्योंकि इसमें राज्य का भाग 1/5 से बढ़ा कर 4/5 कर दिया गया था. आवास तथा चराई कर भी लिए जाते थे.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

आर्थिक सुधार(Economic recovery)

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को आर्थिक क्षेत्र में सुधार हेतु ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी थी कि वह अपने विशाल साम्राज्य पर नियन्त्रण रखने व इसकी रक्षा हेतु एक विशाल सेना का खर्च चलाना चाहता था. उसके आर्थिक सुधारों के सम्बन्ध में हमें तत्कालीन जानकारी जियाउद्दीन बरनी के पुस्तक ‘तारीखे-फिरोजशाही‘, अमीर खुसरो की पुस्तक ‘खजाइनुल-फूतूह‘, इब्नबतूता की पुस्तक ‘रेहला‘ तथा इसामी की पुस्तक ‘फतूहस्सलातीन‘ से प्राप्त होती है.

डा. के.एच. लाल, मोरलैण्ड तथा डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव आदि विद्वानों के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी के मूल्य नियन्त्रण के नियम केवल दिल्ली में ही लागू किए गए थे. प्रो. बनारसी दास सक्सेना ने इस मत का खण्डन किया है. 

अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों में मूल्य अथवा बाजार-नियन्त्रण के नियम प्रमुख हैं. जियाउद्दीन बरनी ने खाद्यान्नों को सस्ता करने के निम्नलिखित सात नियमों का उल्लेख किया है-

(1) खाद्यानों की दरें अत्यन्त कम करके इस प्रकार निश्चित की गई-

गेहूं प्रति मन 7 .5 जीतल
जौ प्रति मन 4 जीतल
धान प्रति मन 5  जीतल
उड़द प्रति मन 5 जीतल
चना प्रति मन 5 जीतल
मोठ प्रति मन 5 जीतल
शक्कर प्रति सेर 7.5 जीतल
गुड़ प्रति सेर 1.5 जीतल
मक्खन प्रति तीन सेर 1 जीतल
सरसों का तेल प्रति ढाई सेर 1 जीतल
नमक प्रति ढाई सेर 5 जीतल

 

उल्लेखनीय है कि आजकल के हिसाब से एक मन 12 सेर और 14 सेर के बीच होता था तथा चाँदी का एक ‘टंका’ 46 से 48 जीतल के बराबर होता था.

(2) अनाज को स्थाई रूप से सस्ता रखने के लिए उलूग खाँ के विश्वसनीय सेवक मलिक कुबूल को मण्डी का शहना (अध्यक्ष) नियुक्त किया गया. मण्डी में प्रतिष्ठित राज्यभक्त बरीद (गुप्तचर) नियुक्त किए गए.

(3) दोआब तथा अन्य क्षेत्रों से भूमिकर अनाज के रूप में एकत्रित किया गया. इस व्यवस्था से दिल्ली में इतना अनाज पहुंच गया कि अकाल और सूखा पड़ने आदि की अवस्था का दिल्ली के निवासियों को पता भी नहीं चलता था.

(4) व्यापारियों को ‘मण्डी-ए-शहना’ मलिक कुबूल के सुपुर्द कर दिया गया. सुल्तान ने आदेश दिया कि राज्य के समस्त प्रदेशों के व्यापारी शहना की प्रजा समझे जाएंगे.

(5) एहतिकार (चोर-बाजारी) का सख्ती से निषेध कर दिया गया.

(6) मुतसरिफों तथा शहनों को सख्त आदेश थे कि प्रजा से इस कठोरता से खराज वसूल करें कि वह अनाज खलिहान से अपने घरों में लाकर एहतिकार न कर सकें.

(7) मण्डी के समाचार सुल्तान को हला-ए-मण्डी, बरीद तथा मुनहियान (गुप्तचर) द्वारा समय-समय पर प्राप्त होते रहते थे. अतः मण्डी के कर्मचारी तथा अधिकारी मण्डी के नियमों का जरा भी उल्लंघन नहीं कर सकते थे.

अकाल आदि का सामना करने के लिए राजकीय अन्नागार (State food) स्थापित किए गए. राशनिंग की व्यवस्था (Rationing system) अलाउद्दीन खिलजी की नई सोच थी.

अकाल के समय प्रत्येक परिवार को आधा मन अनाज प्रतिदिन दिया जाता था. राशन-कार्ड व्यवस्था लागू नहीं थी. सम्भवतः राशन वितरण के समय परिवार को कुल सदस्य संख्या पर ध्यान नहीं दिया जाता था.

अनाज के अतिरिक्त अन्य सामग्री अर्थात् कपड़ा, शक्कर, मिश्री, मेवा, |घी, चौपाए जानवरों, जलाए जाने वाले तेल तथा अन्य निर्मित वस्तुओं को स्थाई रूप से सस्ता रखने के लिए पाँच नियम बनाए गये. ये नियम थे-

  • ‘सराए-अदल’ (बदायूँ-द्वार के समीप एक बड़े मैदान में निर्मित बाजार) का निर्माण,
  • राज्य के प्रदेशों के व्यापारियों का रजिस्टर रखना,
  • खजाने से प्रतिष्ठित और मालदार मुल्तानियों को माल दिया जाना और सराए-अदल का उनके सुपुर्द होना,
  • प्रतिष्ठित और बड़े-बड़े आदमियों के काम में आने वाली बहुमूल्य वस्तुओं के लिए रईस (हाकिम) के परवान (परमिट) की आवश्यकता आदि.

घोड़ों, दासों, एवं मवेशियों के भावों को सस्ता करने हेतु निम्न चार नियम बनाए गए-

  1. उनका वर्गीकरण तथा मूल्य निश्चित होना,
  2. कीसादार (धनी) तथा व्यापारियों पर उन्हें खरीदने हेतु प्रतिबन्ध,
  3. दलालों पर अंकुश तथा
  4. प्रत्येक बाजारी क्रय-विक्रय के बारे में पूछताछ.

अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियन्त्रण की पूरी व्यवस्था का संचालन ‘दीवान-ए-रियासत’ नामक अधिकारी करता था. ‘मुहतसिब’ (सेंसर) तथा ‘नाजिर’ (नाप-तौल अधिकारी) की भी मूल्य नियन्त्रण को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी.

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार Alauddin khilji’s administrative reform

 

अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास (1296-1316 ई.) Alauddin Khilji in Hindi

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Sunday, August 19, 2018

अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास (1296-1316 ई.) Alauddin Khilji in Hindi

अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास (1296-1316 ई.) Alauddin Khilji in Hindi-अलाउद्दीन जिसे अली या गुरशस्प भी कहा जाता था, जलालुद्दीन खिलजी के भाई शहाबुद्दीन मसऊद खिलजी का पुत्र था. वह एक महत्वाकांक्षी पुरुष था तथा जलालुद्दीन खिलजी के समय उसने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए.

 

अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास (1296-1316 ई.) Alauddin Khilji in Hindi

 

अपने चाचा की हत्या करवा कर वह सुल्तान बना. उसका राज्यारोहण दिल्ली में स्थित बलबन के ‘लाल महल’ में हुआ. उसने सिकन्दर द्वितीय (सानी) की उपाधि धारण की तथा खलीफा की सत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए ‘यास्मिन-उल-खिलाफत-नासिरी-अमीर-उल-मिमुनिन’ की उपाधि ग्रहण की.

उसके शासन के आरम्भिक वर्षों में ही अनेक विद्रोह खड़े हुए जिन्हें कुशलता पूर्वक दबा लिया गया. अपने विरोधियों को समाप्त करने के लिए अलाउद्दीन ने अत्यन्त कड़ाई व निष्ठुरता से काम लिया. उसने मलिका जहाँ को कारावास में डाल दिया व उसके दो पुत्रों को अन्धा करवा दिया.

उसने लगभग 2000 मंगोलों (जो इस्लाम ग्रहण करके दिल्ली के आसपास बस गए थे तथा गुजरात की लूट का बड़ा हिस्सा मांग रहे थे और विद्रोह पर उतारू हो गए थे) को मौत के घाट उतार दिया. उनका दमन नुसरत खाँ ने किया.

सुल्तान ने अपने विद्रोही भतीजे अकत खाँ का भी वध करवा दिया. सुल्तान के भांजे मलिक उमर व गंगू खाँ ने भी विद्रोह कर दिया, जिन्हें मौत की घाट उतारा गया. दिल्ली के हाजी मौला का विद्रोह सरदार हमीदुद्दीन ने दबाया.

 

अलाउद्दीन खिलजी(Alauddin Khilji) का साम्राज्य विस्तार

 

(1) मुल्तान विजय

दिल्ली में पूर्ण रूप से जम जाने के बाद अलाउद्दीन खिलजी(Alauddin Khilji) ने अपने दो योग्य सेनापतियों-उलुग खाँ तथा जफर खाँ को मुल्तान विजय के लिए भेजा. जलालुद्दीन खिलजी के दो पुत्रों अरकली और रुक्नुद्दीन को बन्दी बना कर अन्धा करवा दिया गया व मलिका जहाँ को भी बन्दी बना लिया गया. तत्पश्चात् उसने जलालुद्दीन खिलजी के समर्थक सरदारों को कड़ा दण्ड दिया तथा उनकी जागीरें छीन ली. अरकली खाँ, रुक्नुद्दीन, इब्राहिम, उलुग खाँ तथा अहमद चाप तथा उनके परिवारों को कठोर दण्ड दिए गए. अरकली खाँ के पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया गया.

(2) गुजरात विजय

24 फरवरी, 1299 ई. को शाही सेनाओं ने नुसरत खाँ व उलुग खाँ के नेतृत्व में गुजरात की ओर प्रस्थान किया. वहाँ का शासक कर्ण बघेला शीघ्र ही पराजित हुआ और पर्याप्त लूटपाट के पश्चात् इस राज्य को सल्तनत में मिला लिया गया. सोमनाथ के मन्दिर को भी नष्ट-भ्रष्ट किया गया तथा खिलजी सेना ने कैम्बे (खम्भात) नामक समृद्ध बन्दरगाह को भी लूटा.

(3) रणथम्भौर

सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी रणथम्भौर को जीतने में असफल रहा था. अतः यहाँ के राजपूत शासक राणा हम्मीर देव ने अपनी शक्ति का संचय कर लिया. 1299 ई. में उलुग खाँ व नुसरत खाँ को हम्मीर देव के विरुद्ध भेजा गया. प्रथम चरण में शाही सेना पराजित हुई तथा नुसरत खाँ मारा गया. सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) ने स्वयं रणथम्भौर की ओर प्रस्थान किया तथा दुर्ग को घेर लिया. राजपूत बड़ी वीरता से लड़े तथा अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए व राजपूत नारियों ने जौहर का मार्ग अपनाया. रणथम्भौर की विजय से सुल्तान को आगे की विजयों के लिए प्रोत्साहन मिला.

(4) मेवाड़

मेवाड़ राजपूतों का दूसरा शक्तिशाली राज्य था तथा चित्तौड़ का दुर्ग सामरिक दृष्टिकोण से बहुत ही सुरक्षित स्थान पर था. 28 जनवरी, 1303 ई. को सुल्तान ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया. 7 महीने के कठिन संघर्ष के पश्चात् 26 अगस्त, 1303 ई. को इस किले पर अधिकार कर लिया गया. राणा रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हुआ व रानी पद्मिनी या पद्मावती ने अनेक राजपूत नारियों के साथ जौहर की प्रथा का पालन किया. चितौड़ का नाम खिज्राबाद रखा गया तथा 7 या 9 वर्षीय युवराज खिज्रखाँ को वहाँ का प्रमुख नियुक्त किया गया, जिसका संरक्षक मलिक शाहीन ‘नायब बारबक’ (सुल्तान का एक दास) को बनाया गया. अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) को मंगोलों से निपटने हेतु दिल्ली वापस आना पड़ा. खिज्र खाँ राजपूतों के कड़े विरोध के कारण चित्तौड़ पर ज्यादा देर तक नियन्त्रण नहीं रख सका. सुल्तान ने खिज्र खाँ को चित्तौड़ खाली करने का आदेश दे दिया तथा वहाँ की जिम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी. हम्मीर देव (गुहिलोत राजवंश का) ने 1321 ई. में मालदेव को पराजित करके मेवाड़ को आजाद करवा दिया.

(v) मालवा

1305 ई. में सुल्तान ने एन-उल-मुल्क के नेतृत्व में मालवा के विरुद्ध एक सेना भेजी. मालवा के राय महलक देव तथा उसके प्रधानमन्त्री कोका प्रधान ने शाही सेना का विरोध किया, किन्तु नवम्बर-दिसम्बर, 1305 ई. में उनको पराजित करके उनका वध कर दिया गया. इस विजय ने मुसलमानों को उज्जैन, मांडू, धार व चन्देरी पर अधिकार करने योग्य बना दिया. एन-उन-मुल्क को मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया गया.

(vi) सेवाना

3 जुलाई, 1308 ई. को शाही सेनाओं ने सेवाना के परमार शासक शीतलदेव के विरुद्ध कूच किया. 10 नवम्बर, 1308 ई. को शीतलदेव मारा गया तथा सेवाना का प्रशासन कमालुद्दीन गुर्ग को सौंप दिया गया.

(7 ) जालौर

जालौर के शासक कन्हार देव ने 1304 ई. में सुल्तान की अधीनता स्वीकार की थी. मगर धीरे-धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया. 1305 ई. में कमालुद्दीन गर्ग ने उसे पराजित करके उसकी हत्या कर दी तथा जालौर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया. जालौर के समर्पण के साथ ही राजपूताना की सारी प्रमुख रियासतें एक के बाद एक अधिकार में ले ली गई. जैसलमेर, रणथम्भौर, चित्तौड़, सेवाना तथा जालौर और उनके साथ लगी. रियासतें-बेंदी, मण्डोर तथा टोंक सब आक्रांत की जा चुकी थीं.

1311 ई. तक उत्तर भारत में केवल नेपाल, कश्मीर व असम ही ऐसे भाग शेष बचे थे जिन पर अलाउद्दीन अधिकार न कर सका था. उत्तर भारत को विजय करके सुल्तान ने दक्षिण भारत की ओर अपना ध्यान दिया.

 

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण विजय | मलिक काफूर

 

अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) के दक्षिण के अभियानों के पीछे सम्भवतः राजनीतिक और आर्थिक दानों ही कारण थे. एक उत्साही विजेता के लिए दक्षिण का धन बहुत बड़ा आकर्षण था. उस समय दक्षिण में चार मुख्य राज्य थे-

  1. रामचन्द्र देव के अधीन देवगिरी का यादव राज्य,
  2. काकतीय वंश के प्रताप रुद्रदेव प्रथम के अधीन तेलंगाना का राज्य (राजधानी-वारंगल),
  3. वीर वल्लाल तृतीय (1292-1349 ई.) के अधीन द्वारसमुद्र का होयसाल राज्य तथा
  4. भारवर्मन कुलशेखर (1268-1311 ई.) के अधीन मदुरा का पांड्य राज्य .

इनके अतिरिक्त कुछ छोटे-छोटे शासक भी थे जैसे नीलोर जिले का शासक मणमा सिद्ध, उड़ीसा का शासक भानुदेव, कोलूम का शासक रवि वर्मन और मंगलौर का शासक बंकीदेव अलुपेन्द्र आदि . दक्षिण को जीतने के पीछे सुल्तान की धन की चाह और विजय की लालसा थी. वह इन राज्यों को अपने अधीन करके वार्षिक कर वसूल करना चाहता था. दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफूर‘ को जाता है. मलिक काफूर गुजरात का हिन्दू जाति का एक तृतीयपंथी था जिसे 1000 दीनार में खरीदा गया था. अतः उसे ‘एक हजार दीनारी‘ भी कहा जाता है.

(i) देवगिरी की विजय (1307-08 ई.)

1307 ई. में मलिक काफूर के अधीन देवगिरी के विरुद्ध दूसरा अभियान भेजा गया. इसके दो कारण थे-प्रथम कि तीन वर्ष से देवगीरि के शासक ने नियमित कर शाही कोश में जमा नहीं करवाया था तथा द्वितीय कि देवगीरि के शासक रामचन्द्र ने गुजरात के शासक कर्ण बघेला व उसकी पुत्री देवल देवी को शरण दी थी. कर्ण को पराजित करके देवल देवी को पकड़ कर दिल्ली भेजा गया तथा राजकुमार खिज्र खाँ से उसका विवाह कर दिया गया. रामचन्द्र भी शीघ्र ही पराजित हुआ. सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) ने उसके साथ उदारतापूर्ण व्यवहार किया तथा उसे ‘राय रायन’ की उपाधि प्रदान करके उसे देवगीरि का गर्वनर नियुक्त कर दिया. वास्तव में सुल्तान रामचन्द्र की सहायता से दक्षिण पर अपना अधिकार बनाए रखना चाहता था.

(ii) वारंगल की विजय (1309-10 ई.)

1309 ई. में मलिक काफूर के अधीन एक सेना तेलंगाना पर विजय प्राप्त करने हेतु भेजी गई. सम्भवतः सुल्तान का उद्देश्य यहाँ से धन प्राप्त करना ही था. यहाँ के शासक प्रताप रुद्रदेव ने हार के बाद सन्धि करके अपार धन काफूर को दिया. उसने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर इसके गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफूर के पास भेजी, साथ ही 100 हाथी, 7,000 घोड़े व बड़ी संख्या में रत्न, सिक्के व धन दिया. सम्भवतः इसी समय संसार का प्रसिद्ध ‘कोहिनूर हीरा‘ प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफूर को दिया. मलिक काफूर ने इसे सुल्तान अलाउद्दीन को सौंप दिया. प्रताप रुद्रदेव ने वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया. कहा जाता है कि काफूर लगभग 1000 ऊँटों पर सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात आदि दिल्ली लाया.

(iii) द्वारसमुद्र (1310-11 ई.)

1310 ई. में मलिक काफूर ने होयसल राज्य के विरुद्ध चढ़ाई की. देवगीरि के रामचन्द्र ने शाही सेना की पूर्ण मदद की. होयसल राजा वीर बल्लाल की 1311 ई. में पराजय हुई तथ काफूर ने यहाँ के नगरों व मन्दिरों को खूब लूटा. वीर बल्लाल ने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली. सुल्तान अलाउद्दीन ने वीर बल्लाल देव को ‘खिलअत’, एक ‘मुकुट’, ‘छत्र’ एवं 10 लाख टंके की थैली भेंट की.

(iv) पाण्ड्य राज्य

पाण्ड्य राज्य में दो भाईयों सुन्दर पाण्ड्य तथा वीर पाण्ड्य के बीच उत्तराधिकार हेतु संघर्ष चल रहा था. वीर पण्ड्य सफल हुआ. सुन्दर पण्ड्य ने मुसलमानों की सहायता प्राप्त कर ली. वीर पाण्ड्य के विरुद्ध काफूर सेना सहित मदुरा की ओर बढ़ा मगर वीर पाण्ड्य पहले ही मदुरा छोड़ चुका था. काफूर ने मदुरा को खूब लूटा तथा यहाँ के मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया. काफूर का आक्रमण एक दृष्टि से सफल नहीं हुआ क्योंकि वह वीर पाण्ड्य को पराजित नहीं कर सका था और न ही उसके ऊपर कोई शर्त लाद सका था. परन्तु धन प्राप्ति की दृष्टि से यह आक्रमण अत्यधिक सफल रहा. अमीर खुसरो के अनुसार काफूर ने यहाँ से 50 मन रत्न, 7000 घोड़े व 512 हाथी प्राप्त किए.

(v) देवगिरी (1313 )

देवगिरी के शासक रामचन्द्र की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शंकर देव ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया तथा सुल्तान को वार्षिक कर देने से इन्कार कर दिया. मलिक काफूर ने उसके विरुद्ध 1313 ई. में कूच किया. शंकरदेव माया गया तथा देवगिरो का अधिकांश भाग सल्तनत में मिला लिया गया. 1315 ई. में काफूर को दिल्ली बुला लिया गया. इस प्रकार सम्पूर्ण दो भारत को अलाउद्दीन ने अपने अधीन रखा. इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) का सामान्य पश्चिमोत्तर भाग में सिन्धु नदो से दक्षिण में मदुरा तक और पूर्व में वाराणसी एवं अवध से लेकर पश्चिम में गुजरात तक विस्तृत हो गया.

 

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जलालुद्दीन फिरोज खिलजी | खिलजी वंश | Jalaluddin firuz Khilji in hindi

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (1290-96 ई.) खिलजी वंश Jalaluddin firuz Khilji in hindi -इस विषय में पर्याप्त विवाद है कि खिलजी कौन थे? फखरुद्दीन ने उन्हें तुर्क की 64 जातियों में से एक बताया है. विश्वास किया जाता है कि भारत में आने से पूर्व यह जाति अफगानिस्तान में हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी जिसे खिलजी के नाम से जाना जाता था.

 

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (1290-96 ई.) खिलजी वंश Jalaluddin firuz Khilji in hindi

 

सम्भवतः इसीलिए इस जाति का नाम खिलजी पड़ा. मामलूक वंश के अन्तिम शासक शम्सुद्दीन की हत्या करके जलालुद्दीन फिरोज खिलजी दिल्ली का सुल्तना बना. डा. आर. पी. त्रिपाठी ने इस घटना को ‘खिलजी क्रान्ति’ बताया है. इस वंश के काल में महत्वपूर्ण घटना सल्तनत का दक्षिण में विस्तार तथा तुर्की अमीरों के प्रभाव में कमी है.

 

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (1290-96 ई.)खिलजी वंश

जलालुद्दीन(Jalaluddin firuz Khilji) 70 वर्ष की आयु में 13 जून, 1290 ई. को सुल्तान बना. महान् तुर्की-अमीर खिलजियों से घृणा करते थे तथा उसे अपदस्थ करना चाहते थे. अतः सिंहासनारोहण के पश्चात् एक वर्ष तक ‘जलालुद्दीन फिरोज खिलजी’ भूतपूर्व सुल्तना कैकुबाद द्वारा दिल्ली के समीप बसाए गए एक नए नगर ‘किलखोरी’ में रहा.

उसने दिल्ली में तभी प्रवेश किया जब उसे आभास हो गया कि अपने उदारतापूर्ण कार्यों से उसने जनता को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है. उसके दयालु स्वभाव तथा सहृदयता को उसकी कमजोरी समझ कर जगह-जगह विद्रोह के झण्डे बुलंद हो गए.

कड़ा के सूबेदार छज्जू ने ‘सुल्तान मुगीसुद्दीन’ की उपाधि धारण करके अपने नाम के सिक्के चलवाए व खुतबा पढ़वाए. अगस्त, 1290 ई. में सुल्तान के पुत्र अरकली खाँ ने उज्जू को पराजित किया. सुल्तान ने उसके साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करके उसे मुल्तान भेज दिया.

कड़ा का प्रबन्ध सुल्तान ने अपने दामाद अलाउद्दीन को सौंप दिया. 1292 ई. में मंगोल नेता हलाकू खाँ के पौत्र अब्दुल्ला ने पंजाब पर आक्रमण किया. अलाउद्दीन खिलजी ने उसे पराजित किया तथा बाद में उससे सन्धि कर ली. मंगोल वापस लौटने को तैयार हुए. परन्तु चंगेज खाँ के पौत्र उलगू ने लगभग 4000 मंगोलों के साथ इस्लाम ग्रहण करके भारत में रहने का निर्णय लिया.

जलालुद्दीन खिलजी (Jalaluddin firuz Khilji) के शासन काल (खिलजी वंश) की सबसे बड़ी उपलब्धि देवगीरि की विजय थी. इसका श्रेय सुल्तान के दामाद अलाउद्दीन खिलजी को जाता है. उसी के नेतृत्व में तुकों का प्रथम अभियान दक्षिण भारत की ओर गया. तुर्को ने देवगीरि के यादव राजा रामचन्द्र और उसके बेटे शंकरदेव को हराकर उन्हें दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार करवा ली.

देवगीरि की लूट से अपार सम्पत्ति मिली जिसमें 50 मन सोना, 7 मन हीरे-मोती और अन्य लूट का माल कई हजार घोड़ों और 40 हाथियों पर लाद कर लाया गया. भतीजे की सफलता से प्रसन्न होकर सुल्तान उसे बधाई देने स्वयं कड़ा की ओर चल पड़ा.

रास्ते में गंगा नदी के तट पर जब वह अलाउद्दीन खिलजी के गले मिल रहा था तो उस समय पूर्व योजना के आधार पर मुहम्मद सलीम ने उसकी हत्या कर दी. इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी 22 अक्टूबर, 1996 ई. को अपने चाचा की हत्या करवा कर सुल्तान बना.

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Tuesday, August 14, 2018

कैकुबाद व शम्सुद्दीन (1287-90 ई.) Kaikubad and Shamsuddin in Hindi

कैकुबाद व शम्सुद्दीन (1287-90 ई.)kaikubad and shamsuddin in Hindiबलबन ने अपने पौत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, किन्तु दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन ने कूटनीति से खुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर बुगरा खाँ के 17 वर्षीय पुत्र केकुबाद (kaikubad) को सुल्तान बनाया. 

 

कैकुबाद व शम्सुद्दीन (1287-90 ई.)kaikubad and shamsuddin in Hindi

 

उसने मुइजुद्दीन कैकुबाद की उपाधि धारण की. वह विलासी शासक सिद्ध हुआ और शासन प्रबन्ध की ओर वह पूर्णतया उदासीन हो गया. फखरुद्दीन के दामाद निजामुद्दीन ने अवसर का लाभ उठा कर सारी शक्ति अपने हाथों में समेट ली.

कैकुबाद ने उससे छुटकारा पाने के लिए उसे जहर देकर मरवा दिया. सुल्तान ने तुर्क सरदार जलालुद्दीन फिरोज खिलजी को अपना सेनापति बनाया जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा.

तुर्क सरदार विद्रोह की सोच ही रहे थे कि सुल्तान को लकवा मार गया व सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन को सुल्तान घोषित कर दिया.

कालान्तर में जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने उचित अवसर पाकर शम्सुद्दीन (shamsuddin ) का वध कर दिया तथा दिल्ली के तख्त पर स्वयं अधिकार करके ‘खिलजी वंश‘ की स्थापना की.

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