खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)-1919 के वर्ष में भारत को ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक असंतोषजनक कष्ट दिए गए. रौलेट एक्ट जलियावाला बाग हत्याकाण्ड तथा पंजाब में झूठा फौजी शासन इस वर्ष के मुख्य असंतोषजनक कार्य थे.
युद्ध के समय के भी उदारवादी वादे ब्रिटिश सरकार भूल चुकी थी. 1919 के अन्त में माटेग्यू-चैम्स फोर्ड सुधारों ने जहां थोड़ा बहुत संतुष्ट करने की कोशिश की वहीं खिलाफत आंदोलन ने भारतीय राजनीति को नया मोड़ प्रदान किया. हंटर कमेटी की रिपोर्ट से भारतीयों को बहुत बड़ा धक्का लगा, जबकि लार्ड सभा ने जनरल डायर को सही ठहराते हुए उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का शेर’ बतलाया.
खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों ने तुर्की की उस्मानिया सल्तनत के साथ जो व्यवहार किया था और जिस तरह उसके टुकड़े करके श्रेस को हथिया लिया था, राजनीतिक चेतना प्राप्त मुसलमान उसके आलोचक थे.
संसार भर के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा (धर्मगुरू) मानते थे. प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खिलाफ अंग्रेजों की इस शर्त पर सहायता की थी कि वे (अंग्रेज) भारतीय मुसलमानों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करें और साथ ही उनके धर्म स्थलों की रक्षा करें.
परन्तु युद्ध में इंग्लेण्ड की विजय के बाद सरकार अपने वायदे से मुकर गयी. ऐसी स्थिति को हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए उपयुक्त समझा गया. गांधीजी ने मुस्लिमों के साथ पूरी सहानुभूति व्यक्त की.
शीघ्र ही अली भाइयों- मुहम्मद अली और शौकत अली, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खान तथा हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत आंदोलन कमेटी का गठन हुआ और जल्दी ही देशव्यापी आंदोलन (खिलाफत आंदोलन) शुरू कर दिया गया. महात्मा गांधीजी के सुझाव पर एक शिष्ट मंडल जिसके नेता डा. अंसारी थे, वायसराय से मिलने इंग्लैण्ड गया.
मार्च, 1920 में मौलाना शौकत अली एवं मुहम्मद अली के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैण्ड गया. परन्तु ये दोनों दल अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहे. 20 जून, 1920 को इलाहाबाद में हुई हिन्दू-मुस्लिमों की संयुक्त बैठक में ‘असहयोग आंदोलन‘ के अस्त्र का अपनाये जाने का निर्णय किया गया. 31 अगस्त, 1920 का दिन खिलाफत दिवस के रूप में मनाया गया. इसी बीच सितम्बर, 1920 में कांग्रेस सहित सभी दलों ने असहयोग आंदोलन का अनुमोदन कर दिया.
असहयोग आंदोलन, 1920-22 (Non-Cooperation Movement)
असहयोग आंदोलन औपचारिक रूप से 1 अगस्त, 1920 को शुरू हुआ था. इसी दिन अर्थात् 1 अगस्त, 1920 को बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया. परन्तु महात्मा गांधीजी, मोतीलाल नेहरू और चितरंजनदास ने जल्दी ही इस कमी को पूरा कर लिया.
कांग्रेस ने महात्मा गांधीजी की इस योजना को स्वीकार कर लिया कि जब तक जाब तथा खिलाफत संबंधी अत्याचारों की भरपाई नहीं होती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता, सरकार से असहयोग किया जाएगा. लोगों से आग्रह किया गया कि वे सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधान मंडलों का बहिष्कार करें.
विदेशी वस्त्रों का त्याग करें, सरकार से प्राप्त उपाधियों और सम्मान वापस करें तथा हाथ से सूत कातकर और बुनकर खादी का इस्तेमाल करें. बाद में सरकारी नौकरी से इस्तीफा तथा कर चुकाने से इन्कार करने को भी इस कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया. शीघ्र ही कांग्रेस ने चुनावों का बहिष्कार कर दिया. इसमें अधिकांश रूप से जनता का सहयोग प्राप्त था.
दिसम्बर, 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सरकार तथा उसके कानूनों के अत्यंत शांतिपूर्ण उल्लंघन के निर्णय को अनुमोदित भी कर दिया गया. महात्मा गांधी जी ने नागपुर अधिवेशन में घोषणा की कि ‘ब्रिटिश सरकार यह बात समझ ले कि अगर वह न्याय नहीं करना चाहती तो साम्राज्य को नष्ट करना प्रत्येक भारतीय का परम् कर्तव्य होगा’.
नागपुर अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित विरोध लाला लाजपत राय एवं चितरंजनदास ने वापस ले लिया. इसी समय कांग्रेस कमेटियों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया. कांग्रेस अब विदेशी शासन से मुक्ति के राष्ट्रीय संघर्ष में जनता की संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता बन गई. हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे थे. साथ ही कुछ पुराने नेताओं ने अब कांग्रेस छोड़ भी दी थी. इनमें प्रमुख थे- मुहम्मद अली जिन्ना, जी. एस खापर्डे, विपिनचन्द्र पाल और श्रीमति एनी बेसेंट.
1921-22 में भारतीय जनता में उत्तेजना का नया वातावरण देखा गया. हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल कालेज छोड़ कर राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजों में प्रवेश ले लिया. सैकड़ों वकीलों ने अपनी मोटी कमाई वाली वकालतें छोड़ दी.
असहयोग आंदोलन चलाने के लिए तिलक स्वराज्यकोष स्थापित किया गया. छः माह के अन्दर इसमें एक करोड़ रुपया जमा हो गया. स्त्रियों ने भी बहुत उत्साह दिखाया और अपने गहनों, जेवरों का खुलकर दान किया. विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार एक जन आंदोलन बन गया और पूरे देश में जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई. खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई.
जुलाई, 1921 में एक प्रस्ताव पारित करके खिलाफत आंदोलन ने घोषणा की कि कोई भी मुसलमान ब्रिटिश भारत की सेना में भरती नहीं होगा. कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी एक इसी तरह का प्रस्ताव पारित कर कहा कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत का उत्पीड़न कर रही ब्रिटिश सरकार की सेवा कोई भारतीय न करे.
असहयोग आंदोलन शुरू करने से पूर्व गांधीजी ने अपनी ‘केसर-ए-हिन्द‘ की उपाधि जो कि उन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सरकार को सहयोग के बदले प्राप्त हुई थी, वापस कर दी. इसका अनुसरण सैकड़ों अन्य लोगों ने भी किया. जमनालाल बजाज ने अपनी ‘राय बहादुर‘ की उपाधि वापस कर दी.
विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए अनेक राष्ट्रीय शिक्षण संस्थायें जैसे- काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजराज विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामियां एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि स्थापित की गई.
वकालत का बहिष्कार करने वाले प्रमुख वकील थे- देश बंधु चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, विठ्ठल भाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी एवं दिल्ली के आसफ अली आदि.
असहयोग आंदोलन में सहयोग करने वाले प्रमुख मुस्लिम नेता थे – मुहम्मद अली, शौकत अली, डा. अन्सारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि.
1919 के सुधार अधिनियमों के उद्घाटन के लिए ‘ड्यूक ऑफ कामंस ‘ के भारत आने पर विरोध और बहिष्कार किया गया. सरकार ने असहयोग आंदोलन को कुचलने का हर सम्भव प्रयत्न किया.
4 मार्च, 1921 में ननकाना के एक गुरुद्वारे में, जहां पर शान्तिपूर्ण ढंग से सभा का संचालन किया जा रहा था, पर सैनिकों द्वारा गोली चलाने के कारण करीब 70 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा.
1921 में लार्ड रीडिंग को भारत का वायसराय बनाया गया. इस समय से दमन चक्र और कड़ाई के साथ चलाया गया तथा प्रमुख नेता मुहम्मद अली, मोतीलाल नेहरु चित्तरंजन दास, लाला लाजपत राय, मौलाना आजाद, राज गोपाला चारी, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल जैसे अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गये.
17 अप्रैल, 1921 को ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स‘ के भारत आगमन पर उनका स्वागत काले झंडे दिखा कर किया गया. इससे क्रुद्ध होकर सरकार ने कठोर दमन की नीति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप स्थान-स्थान पर लाठी चार्ज, मारपीट, गोलीकांड सामान्य बात हो गई और करीब 60,000 लोगों को इस अवधि में बन्दी बनाया गया.
आंदोलन भी अब जनता में गहरी जड़े जमा चुका था. संयुक्त प्रांत तथा बंगाल के हजारों किसानों ने असहयोग के आह्वान का पालन किया. पंजाब के गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का कब्जा खत्म करने के लिए सिख ‘अकाली आंदोलन’ नामक एक अहिंसक आंदोलन चला रहे थे.
असम के चाय बागानों के मजदूरों ने हड़ताल की. मिदनापुर के किसानों ने यूनियन बोर्ड को कर देने से इन्कार कर दिया. उत्तरी केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला कहे जाने वाले मुस्लिम किसानों ने एक शक्तिशाली जमींदार-विरोधी आंदोलन शुरू कर रखा था.
1 फरवरी, 1922 को महात्मा गांधीजी ने घोषणा की कि अगर सात दिनों के अन्दर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं किए जाते और प्रेस पर सरकार का नियंत्रण समाप्त नहीं होता तो वे करों की अदायगी समेत एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड़ेगे. परन्तु इसी समय संयुक्त चौरी-चौरा घटना घटित हो गई, जिस कारण असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया.
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