Wednesday, July 18, 2018

1857 के विद्रोह का स्वरूप Nature of the revolt of 1857

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-1857 के विद्रोह का स्वरूप Nature of the revolt of 1857

 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन1857 के विद्रोह का स्वरूप (Nature of the revolt of 1857)इतिहासकारों ने 1857 के विद्रोह क्रांति के स्वरूप को अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया है. कुछ इतिहासकारों ने इसे एक केवल सैनिक विद्रोह बतलाया है.  जिसे जनसाधारण का समर्थन प्राप्त नहीं था. कुछ अन्य ने इसे ईसाइयों के विरुद्ध धार्मिक युद्ध बतलाया है. कुछ इतिहासकारों ने कहा कि यह काले तथा गोरे लोगों के बीच श्रेष्ठता के लिए संघर्ष था. साथ ही कुछ लोगों ने इसे पाश्चात्य तथा पूर्वी सभ्यता  तथा संस्कृति के बीच संघर्ष का नाम दिया. बहुत से लोगों ने इसे अंग्रेजी राज्य की भारत से समाप्ति के लिए हिंदू मुस्लिम षड्यंत्र का नाम देते हैं. अनेक राष्ट्रवादी भारतीय इसे सुनियोजित राष्ट्रीय आंदोलन और स्वतंत्रता के लिए पहला युद्ध बताते हैं.

 

आंदोलन के कारण ( causes of the revolt)

 

1857 में हुए आंदोलन के लिए ब्रिटिश साम्राज्य की गलत नीतियों के कारण उत्पन्न हुए सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक कारण जिम्मेदार थे. चर्बी वाले कारतूसों ने अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रवादी लोगों के दिलों में लगी हुई आग के लिए हवा का काम किया. वह स्वतंत्रता के लिए पहले स्वाधीनता संग्राम के रूप में सामने आया.

 

राजनीतिक कारण (Political causes)

 

डलहौजी के “ व्यपगत के सिद्धांत”( Doctrine of Lapse) के कारण इस समय आर्थिक और राजनीतिक आचार की सभी सीमाओं का अतिक्रमण हो रहा था तथा डलहौजी की विलय की नीति में सभी भारतीय राजाओं को चिंता में डाल दिया था. हिंदू राजाओं से पुत्र गोद लेने के अधिकार को छीन लिया गया था. किसी भी विवादास्पद मामले में ईस्ट इंडिया कंपनी आवश्यक रूप से हस्तक्षेप करती थी और उसका निर्णय मानना पड़ता था तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर का फैसला अंतिम था. साम्राज्यवादी नीति के तहत विभिन्न राज्यों का विलय कर लिया गया था. पंजाब और सिक्किम का विजय के आधार पर तथा अन्य का जैसे- सातारा,  जैतपुर, संभलपुर, बघाट, उदयपुर, झांसी, और नागपुर का व्यपगत सिद्धांत के अंतर्गत विलय किया गया था. अवध को शासन. का कारण बता कर विलय किया गया. अब सभी राजाओं को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ा कि उनका अस्तित्व खतरे में है. डलहौजी की नीतियों तथा अंग्रेजी प्रशासन के उच्च पदाधिकारियों के वक्तव्य से एक प्रकार का अविश्वास का वातावरण उत्पन्न हो गया. मुसलमानों की भावनाओं को भी अंग्रेजी नीति के कारण गहरी चोट पहुंची थी. डलहौजी ने यद्यपि शहजादा फखरुद्दीन के उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान कर दी थी. परंतु उस पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए गए. फखरुद्दीन की मृत्यु के पश्चात 1856 में लॉर्ड कैनिंग ने घोषणा की कि नवीन उत्तराधिकारी शहजादे को राजकीय उपाधि के साथ मुगल महल भी छोड़ना होगा. कैनिंग की इस घोषणा और अंग्रेजो की अन्य मुस्लिम विरोधी नीतियों के कारण मुसलमान चिंतित हो गए तथा अन्य भारतीय जातियों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. मुगल सम्राट बहादुरशाह के जीवनकाल में भी अंग्रेजों ने उसका पर्याप्त अपमान किया. मुगल सम्राट को अंग्रेज अफसरों द्वारा दी जाने वाली भेंट बंद कर दी गई. अंतिम पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब की 80000 पाउंड की वार्षिक पेंशन भी समाप्त कर दी गई.

 

जब किसी देशी रियासत का विलय अंग्रेजी राज्य में किया जाता था तो रियासत के राजा की पदच्युति के साथ-साथ जनता को  प्राप्त होने वाले उच्च प्रशासनिक पद भी उन्हें मिलते थे. इस कारण समाज के उच्च वर्गों में कटुता की भावनाएं उत्पन्न होने लगी. अंग्रेजों द्वारा लागू नई न्याय प्रणाली के कारण भी लोगों में तीखी प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई. क्योंकि भारत में जाति प्रथा पूर्व से ही बलवती थी और नई न्याय व्यवस्था में सबको समान समझा जाता था तथा यह एक लंबी प्रक्रिया थी. भारतीयों को उनकी योग्यताओं के अनुसार पद नहीं मिलता था तथा पूरी योग्यताओं के बावजूद उन्हें निम्न पदों पर नियुक्त किया जाता था. इस प्रकार विभिन्न राजनीतिक कारणों से भारतीय जनमानस में असंतोष उत्पन्न हुआ.

 

प्रशासनिक और आर्थिक कारण (Administrative and economic causes)

 

भारतीय रियासतों के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय के बाद भारतीय अभिजीत वर्ग अब पूर्व में प्राप्त पदों और शक्तियों से वंचित हो गया. क्योंकि ऊंचे पदों पर अब केवल अंग्रेज ही नियुक्त होते थे. भारतीयों के पास आवश्यक योग्यताओं के बावजूद उन्हें छोटे पदों पर ही नियुक्त किया जाता था. ईस्ट इंडिया कंपनी की  प्रशासकीय व्यवस्था बहुत निम्न स्तर की थी. कंपनी द्वारा लागू भूमि कर व्यवस्था बहुत अप्रिय थी. कृषकों द्वारा भूमि कर व्यवस्था के विरुद्ध जब कभी भी प्रतिक्रिया की जाती थी तो इसके लिए सेना का सहारा लिया जाता था. जैसे कि पानीपत जिले में पुलिस कार्य के लिए 22 घुड़सवारों के विपरीत भूमि कर के एकत्रण के लिए 136 व्यक्ति कार्यरत थे. बहुत से तालुकदार और वंशानुगत भूमि पतियों से उनके पद और अधिकार छीन लिए गए थे. बहुत सी भूमि जप्त कर उस की नीलामी कर दी गई. इसमें भूमि ऐसे सिद्धांत हीन साहूकारों व जमींदारों के पास चली गई जो प्रायः लोगों का शोषण करते थे. इस प्रकार बहुत से भूमि पति निर्धन बन गए.

अंग्रेज व्यापारिक लाभ के उद्देश्य भारत आए थे. भारत से कच्चे माल का निर्यात कर निर्मित माल भारत को आयात किया जाता था. इस प्रकार भारत को तैयार माल की मंडी बना दिया गया था. जिसका प्रमुख उद्देश्य प्राकृतिक साधनों का अधिकाधिक शोषण कर पूंजी एकत्र करना था. अंग्रेजों की इस नीति का भारतीय उद्योगों पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. पूर्व में भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया. औद्योगीकरण की प्रक्रिया विरुद्ध हो जाने के कारण लोग कृषि कार्य पर निर्भर रहने लगे. परंतु कृषि क्षेत्र  मैं सुविधाओं और नई तकनीकी के अभाव से कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता निरंतर कम होने लगी. फल स्वरुप अन्न धान्य की कमी और अकाल की स्थिति व्याप्त रहने लगी. ब्रिटिश सरकार की अत्यधिक लगान नीति के कारण उत्तरी भारत के अधिकतर क्षेत्रों के जमींदारों में आक्रोश व्याप्त था. क्योंकि लग्न की राशि बहुत ज्यादा थी. और उसमें उस समय वृद्धि की गई थी जबकि अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक विपदाएं व्याप्त थी. यह भी नियम बनाए गए थे कि भूमि कर का भुगतान न कर सकने वाले किसानों से भूमि जप्त कर ली जाएगी.

सामाजिक और धार्मिक कारण ( social and religious causes)

 

अंग्रेज जाति-भेद की भावना से पूरी तरह ओतप्रोत थे तथा भारतीयों को ही दृष्टि से देखते थे. अंग्रेज अधिकारियों द्वारा भारतीयों के प्रति कठोर नीति अपनाई जाती थी तथा अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव धीरे-धीरे भारतीय समाज पर आने लगा था. तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों और प्रथाओं को सुधारने हेतु यद्यपि अंग्रेजी सरकार ने प्रयास किए परंतु ब्रिटिश सरकार की अनेक अन्यायपूर्ण नीतियों के कारण भारतीय अपने सामाजिक जीवन में विदेशी जाति का हस्तक्षेप नहीं सह सके. और उनके मन में यह धारणा दर्द हो चुकी थी ,अंग्रेज सामाजिक हस्तक्षेप द्वारा भारतीय सभ्यता को नष्ट करना चाहते हैं. 1829  ईसवी में विलियम बैंटिंग द्वारा सती प्रथा के उन्मूलन हेतु पास किए गए कानून का बंगाल में व्यापक स्तर पर विरोध किया गया. डलहौजी द्वारा 1850 में यह नियम पास किया गया कि धर्म परिवर्तन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी पैतृक संपत्ति को प्राप्त करने का उतना ही अधिकारी होगा जिसका कि वह धर्म परिवर्तन करने से पूर्व था. 1857 में डलहौजी द्वारा विधवा विवाह के समर्थन में कानून बनाया गया. इस प्रकार सुधार की आड़ में अंग्रेजों ने ईसाई धर्म और संस्कृति का प्रचार किया. भारतीय जनता कभी भी किसी विदेशी जाति द्वारा धर्म पर किए गए प्रहार को नहीं सह पाई है. यही स्थिति ब्रिटिश शासनकाल में रही. अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों को ईसाई बनाना था. 1813 ईसवी में जब ब्रिटिश सरकार ने ईसाई पादरियों को धर्म प्रचार के लिए भारत आने की अनुमति दी थी तो भारतीय जनता की भावनाओं को कभी ठेस पहुंची. मैकाले द्वारा पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता के संबंध में दिए गए वक्तव्य तथा पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के समर्थन का भी भारतीयों पर प्रतिकूल असर पड़ा. ईसाई मिशनरियों द्वारा जगह-जगह सभाएं आयोजित की जाने लगी. 1850 में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा हिंदू रीति रिवाजों में परिवर्तन लाया गया. इसके अनुसार धार्मिक परिवर्तन के बाद भी पुत्र का पिता की संपत्ति पर अधिकार पूर्ववत बना रहेगा. भारतीय सैनिकों को भी इसाई बनाने की प्रेरणा दी  जाती थी. तथा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने वाले सैनिकों को पर्याप्त सुविधाएं दी जाती थी. हिंदू देवी देवताओं का अंग्रेजों द्वारा उपहास किया जाता था तथा मूर्ति पूजा को बुरा कहा जाता था. इस प्रकार द्वारा हिंदू धर्म पर किए गए प्रहारों से हिंदू जनता में भारी आक्रोश फैला. ऐसे वातावरण में यह विश्वास किया जाने लगा कि रेलवे और वाश्प्तोप (steamship) आदि भारतीय धर्म परिवर्तन का एक अप्रत्यक्ष साधन है. उस समय जनता में यह आम धारणा व्याप्त फीकी सरकार ने ही ईसाई पादरियों को नियुक्त किया है और सरकारी खर्चे पर ही यह लोग अपने कार्यक्रम प्रदर्शित करते हैं. लोगों में धार्मिक कारणों से भी राष्ट्रवाद की भावनाओं का पर्याप्त विकास हुआ तथा लोगों ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.

 

सैनिक कारण ( military causes)

 

1857 के विद्रोह का एक प्रमुख कारण सैनिक असंतोष भी था. भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार से सैनिकों की सेवा शर्तों पर प्रतिकूल प्रभाव हुआ. भारतीय सैनिकों का वेतन बहुत ही कम तथा उनकी पदोन्नति का मार्ग भी विरुद्ध था. जिस पथ पर भारतीय सैनिक भर्ती होता था उसी पद पर वह रिटायर भी होता था. तथा भारतीय सैनिकों की योग्यता पर भी सरकार का विश्वास नहीं था. 1856 में कैनिंग की सरकार ने अधिनियम पास किया जिससे सैनिकों में निराशा बड़ी. इस कानून के अंतर्गत सभी भावी सैनिकों को यह स्वीकार करना होता था कि जहां कहीं भी सरकार चाहेंगी उन्हें वहां कार्य करना होगा. भारतीय समाज में समुद्र पार जाना धर्म के विरुद्ध माना जाता था. 1856 में अवध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय करने के बाद अवध की रियासती से ना भंग कर दी गई, परिणाम स्वरुप 60000 सैनिक बेरोजगार हो गए. इस कारण भी सैनिकों में पर्याप्त आक्रोश व्याप्त था. 1854 में डाकघर अधिनियम पारित होने के बाद सैनिकों को प्राप्त निशुल्क डाक सेवा समाप्त कर दी गई.

उपयुक्त विभिन्न असंतोषजनक घटनाओं से संबंधित बारूद के ढेर में चिंगारी का काम कारतूसों की घटना ने किया. 1856 में ब्रिटिश सरकार ने नई और अपेक्षाकृत अच्छी एनफील्ड राइफल ( new Enfield rifle) के प्रयोग का निश्चय किया इस राइफल में  उपयोग में लाए जाने वाले कारतूसों को बनाने में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया था. तथा उनका ऊपरी हिस्सा प्रयोग से पहले मुंह से काटना होता था. जब सैनिकों को पता चला कि कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी धर्म भ्रष्ट करने की नीति के तहत प्रयुक्त की गई है तो उन्होंने इन के प्रयोग से इंकार कर दिया. जब उन्हें कारतूसों का प्रयोग करने के लिए विवश किया जाने लगा तो सर्वप्रथम कोलकाता के निकट बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया. जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया और 1857 के विद्रोह के रूप में सामने आया.

 

विद्रोह विप्लव और इसका विस्तार (The Revolt and its expansion)

 

सर्वप्रथम 29 मार्च 1857 का विद्रोह कब प्रारंभ कोलकाता के निकट बैरकपुर की छावनी से हुआ. भारतीय सैनिकों ने गाय और सूअर की चर्बी से तैयार एनफील्ड राइफल के लिए प्रयुक्त होने वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर दिया. परंतु जब सरकार ने इनके प्रयोग के लिए सैनिकों पर दबाव डाला तो सैनिक भड़क उठे. अंग्रेजी सरकार के इस दबाव को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने अपने धर्म पर प्रहार समझा. किसी घटना से प्रेरित होकर सैनिक मंगल पांडे ने अपने एजुटेंट (adjutant) पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी. 34 वी एन आई रेजिमेंट तोड़ दी गई और अंग्रेज अधिकारी की हत्या के सिलसिले में मंगल पांडे और ईश्वर पांडे को फांसी की सजा दे दी गई. इन दोनों सैनिकों की मौत की खबर ने आग में घी का काम किया और 10 मई 1857 ईस्वी को इस विद्रोह ने भयंकर रूप धारण कर लिया. विद्रोह के विकास की प्रक्रिया का विवरण इस प्रकार दिया जाता है-

 

9 मई 1857 को मेरठ में 85 सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग से इंकार कर दिया. इन सभी सैनिकों को सैनिक न्यायालय ने 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई. 10 मई को मेरठ में सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया. और अपने बंदी साथियों को मुक्त कराकर दिल्ली को रवाना हो गए. 12 मई को उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया. बहादुर शाह द्वितीय ने  विद्रोहियों का नेतृत्व किया तथा लाल किले पर अधिकार कर लिया. इन सफलताओं से भारतीय सैनिकों का उत्साह बढ़ा और विद्रोह की आग समस्त उत्तरी और मध्य भारत में फैल गई. इस स्थिति में अंग्रेजों के लिए दिल्ली पर पुनः अधिकार आवश्यक हो गया. पता अंग्रेजो और भारतीयों के बीच में भयंकर संघर्ष हुआ. 20 सितंबर को अंग्रेज दिल्ली पर पुनः अधिकार करने में सफल हो पाए.

 

उत्तर प्रदेश का कानपुर शहर 1857 ईस्वी के विद्रोह का मुख्य केंद्र रहा. यहां पर नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में, जिसमें अजीमुल्ला खान ने उनका पूरा सहयोग किया. 5 जून 1857 को अधिकार कर लिया. यहां पर विद्रोह में कानपुर की जनता के साथ जमींदारों व्यापारियों ने भी बढ़ चढ़कर भागीदारी की तथा नाना साहब पेशवा को तात्या टोपे की सहायता भी प्राप्त हो गई. परंतु सर के कैम्बल ने कानपुर पर 6 दिसंबर को पुनः अधिकार कर लिया. तात्या टोपे यहां से निकलकर झांसी की रानी से मिल गए. 30 मई 1857 के आसपास लखनऊ में विद्रोह भड़क उठा .जिसका मुख्य कारण यहां पर नवाब वाजिद अली शाह को पदमुक्त करने के कारण नागरिकों में पर्याप्त असंतोष का व्याप्त होना था. जल्दी ही लखनऊ के आसपास विद्रोह की आग फैल गई. नवंबर 1857 में अंग्रेजी मुख्य सेनापति कालीन कैम्बल ने गोरखा रेजिमेंट की सहायता से नगर में प्रवेश कर यूरोपियों की सहायता की और मार्च 1858 में नगर पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया.

 

4 जून 1857 झांसी में विद्रोह प्रारंभ हो गया. यहां पर विद्रोहियों का नेतृत्व महारानी लक्ष्मीबाई ने किया. 22 मार्च 1858  ईस्वी को ब्रिटिश सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में झांसी के किले को घेर लिया. 2 सप्ताह तक चले भयंकर संघर्ष के बाद अंग्रेजी सेना ने किले पर अधिकार कर लिया. परंतु किस तरह लक्ष्मीबाई वहां से भागने में सफल हो पाई. बाद में लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर में तात्या टोपे के साथ विद्रोहियों  को संगठित किया तथा ग्वालियर पर अधिकार कर लिया. इसी समय ग्वालियर के समय युद्ध में महारानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गई. परंतु तात्या टोपे फिर बच निकले. परंतु 1859 मैं उन्हें पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई. इलाहाबाद में आकस्मिक रुप से 6 जून 1857 का विद्रोह भड़क उठा. विद्रोही सैनिकों के साथ सभी ने विद्रोह में भरपूर सहयोग किया तथा सरकारी संपत्ति को तहस-नहस कर सरकारी खजाने लूट लिए गए. जून के अंतिम सप्ताह में विद्रोह का दमन कर 800 विद्रोहियों को फांसी पर लटका दिया गया. जिससे लोगों में आतंक फैल गया. इसके अतिरिक्त बरेली, बिहार के अनेक स्थानों, बनारस आदि पर भी विद्रोहियों ने विद्रोह कर दिया. जिसे अंग्रेजी सेना ने बाद में दृढ़ता से दबा दिया.

 

इस प्रकार 1857 के विद्रोह में समाज के प्रत्येक वर्ग की भागीदारी बढ़-चढ़कर रही तथा देश लंबे समय तक विद्रोहों से ग्रस्त रहा. जुलाई 1858 तक विद्रोह लगभग शांत हो गया था.

 

विद्रोह की असफलता के कारण (Causes of Failure of the Revolt)

 

1857 का विद्रोह यद्यपि देश के अधिकतर भागों में फैल चुका था परन्तु विभिन्न कारणों से यह असफल रहा. जिनमें सभी प्रकार के अग्रलिखित कारण सम्मिलित थे-

 

विद्रोह की असफलता का प्रमुख कारण यह था कि क्रान्तिकारियों द्वारा कि पूर्व निश्चित योजना के अधीन संगठित रूप में कदम नहीं उठाया गया. विद्रोह अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समयों में शुरू हुआ था, जिससे अंग्रेजों को विद्रोह के दमन में आसानी रही. विद्रोहों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्र थे- पश्चिमी बिहार, अवध, रुहेलखण्ड,दिल्ली, लखनऊ, नर्मदा तथा चम्बल के कुछ क्षेत्र. इनके अतिरिक्त बम्बई व मद्रास की सेनाएं तथा सिक्ख और गोरखों ने पूरी तरह अंग्रेजों का साथ दिया. सिंध और राजस्थान में शान्ति रही तथा नेपाल की सहायता महत्वपूर्ण थी.इससे अंग्रेजों को बहुत अधिक मदद मिली. अंग्रेजों के पास साधनों की उपलब्धता विद्रोहियों की अपेक्षा बहुत ज्यादा थी. अधिकतर विद्रोही परम्परागत हथियारों से लड़ रहे थे, जबकि अंग्रेजी सेना आधुनिक हथियारों से लैस थी. अंग्रेज को विद्युत तार व्यवस्था से अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई. विद्रोहियों में एकता तथा उचित नेतृत्व का अभाव था. अनुकूल परिस्थितियों, व्यापक सैनिक क्षमता योग्य और प्रभावशाली नेतृत्व आदि अनेक कारणों से अंग्रेजों ने क्रान्ति को विफल कर दिया.

 

1857 के विद्रोह में जहाँ नर्मदा और उत्तर भारत के लोगों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की वहीं दक्षिणी भारत में छिटपुट घटनाओं के सिवाय कुछ नहीं हुआ. इसी तरह अवध और रुहेलखण्ड तथा उत्तरी भारत के सामन्तवादी तत्वों ने विद्रोह का नेतृत्व किया और दूसरी ओर अन्य सामन्तवादी तत्वों, जैसे- पटियाला, जीन्द, ग्वालियर और हैदराबाद के राजाओं ने इस विद्रोह के दमन में सहायता की. विद्रोहियों के पास विदेशी-विरोध भावना के अतिरिक्त अन्य कोई समान उद्देश्य नहीं था. हिन्दू-मुस्लिम मतभेद यद्यपि शत्रु के सामने निष्क्रिय हो गए थे, परन्तु पूरी तरह समाप्त नहीं हुए थे. इसके अतिरिक्त किसानों और अन्य निम्न वर्गीय लोगों की विशेष भागीदारी नहीं रही. अर्थात् यह पूरी तरह जन सामान्य का आंदोलन नहीं बन सका.

 

विद्रोह के प्रभाव (Impact of the Revolt)

1857 का विद्रोह कुछ समय बाद पूर्ण रूप से दबा दिया गया था, परन्तु इस विद्रोह ने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी थी. यद्यपि भारत में नियंत्रण की विधियाँ (Techniques of Controlling) सुदृढ़ हो चुकी थी, परन्तु उन्हें पुन: समान रूप से प्रत्येक स्थान पर लगाया गया. प्रतिक्रियावादी और निहित स्वार्थों को अच्छे ढंग से सुरक्षित किया गया तथा उन्हें प्रोत्साहित किया गया. बाद में वे भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के स्तम्भ बन गये. अंग्रेजी नियंत्रण का मुख्य आश्रय ‘फूट डालो और राज्य करो’ (Divide and Rule) की नीति को बनाया गया तथा सैनिक व असैनिक प्रशासन के प्रमुख और उच्च पदों पर यूरोपियनों का नियंत्रण शक्तिशाली कर दिया गया. भारतीयों का असन्तोष भी इस राष्ट्रव्यापी विद्रोह के बाद समय-समय पर आवश्यकतानुसार संघर्ष के रूप में बदलता रहा और स्वतंत्रता का यह संघर्ष 1947 में देश को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होने तक लगातार चलता रहा.

 

 

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