Monday, July 30, 2018

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)-1919 के वर्ष में भारत को ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक असंतोषजनक कष्ट दिए गए. रौलेट एक्ट जलियावाला बाग हत्याकाण्ड तथा पंजाब में झूठा फौजी शासन इस वर्ष के मुख्य असंतोषजनक कार्य थे.

युद्ध के समय के भी उदारवादी वादे ब्रिटिश सरकार भूल चुकी थी. 1919 के अन्त में माटेग्यू-चैम्स फोर्ड सुधारों ने जहां थोड़ा बहुत संतुष्ट करने की कोशिश की वहीं खिलाफत आंदोलन ने भारतीय राजनीति को नया मोड़ प्रदान किया. हंटर कमेटी की रिपोर्ट से भारतीयों को बहुत बड़ा धक्का लगा, जबकि लार्ड सभा ने जनरल डायर को सही ठहराते हुए उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का शेर’ बतलाया.

खिलाफत और असहयोग आंदोलन Khilafat and Non-Cooperation Movement

 

खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)

 

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों ने तुर्की की उस्मानिया सल्तनत के साथ जो व्यवहार किया था और जिस तरह उसके टुकड़े करके श्रेस को हथिया लिया था, राजनीतिक चेतना प्राप्त मुसलमान उसके आलोचक थे.

संसार भर के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा (धर्मगुरू) मानते थे. प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खिलाफ अंग्रेजों की इस शर्त पर सहायता की थी कि वे (अंग्रेज) भारतीय मुसलमानों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करें और साथ ही उनके धर्म स्थलों की रक्षा करें.

परन्तु युद्ध में इंग्लेण्ड की विजय के बाद सरकार अपने वायदे से मुकर गयी. ऐसी स्थिति को हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए उपयुक्त समझा गया. गांधीजी ने मुस्लिमों के साथ पूरी सहानुभूति व्यक्त की.

शीघ्र ही अली भाइयों- मुहम्मद अली और शौकत अली, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खान तथा हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत आंदोलन कमेटी का गठन हुआ और जल्दी ही देशव्यापी आंदोलन (खिलाफत आंदोलन) शुरू कर दिया गया. महात्मा गांधीजी के सुझाव पर एक शिष्ट मंडल जिसके नेता डा. अंसारी थे, वायसराय से मिलने इंग्लैण्ड गया.

मार्च, 1920 में मौलाना शौकत अली एवं मुहम्मद अली के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैण्ड गया. परन्तु ये दोनों दल अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहे. 20 जून, 1920 को इलाहाबाद में हुई हिन्दू-मुस्लिमों की संयुक्त बैठक में ‘असहयोग आंदोलन‘ के अस्त्र का अपनाये जाने का निर्णय किया गया. 31 अगस्त, 1920 का दिन खिलाफत दिवस के रूप में मनाया गया. इसी बीच सितम्बर, 1920 में कांग्रेस सहित सभी दलों ने असहयोग आंदोलन का अनुमोदन कर दिया.

 

असहयोग आंदोलन, 1920-22 (Non-Cooperation Movement)

 

असहयोग आंदोलन औपचारिक रूप से 1 अगस्त, 1920 को शुरू हुआ था. इसी दिन अर्थात् 1 अगस्त, 1920 को बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया. परन्तु महात्मा गांधीजी, मोतीलाल नेहरू और चितरंजनदास ने जल्दी ही इस कमी को पूरा कर लिया.

कांग्रेस ने महात्मा गांधीजी की इस योजना को स्वीकार कर लिया कि जब तक जाब तथा खिलाफत संबंधी अत्याचारों की भरपाई नहीं होती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता, सरकार से असहयोग किया जाएगा. लोगों से आग्रह किया गया कि वे सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधान मंडलों का बहिष्कार करें.

विदेशी वस्त्रों का त्याग करें, सरकार से प्राप्त उपाधियों और सम्मान वापस करें तथा हाथ से सूत कातकर और बुनकर खादी का इस्तेमाल करें. बाद में सरकारी नौकरी से इस्तीफा तथा कर चुकाने से इन्कार करने को भी इस कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया. शीघ्र ही कांग्रेस ने चुनावों का बहिष्कार कर दिया. इसमें अधिकांश रूप से जनता का सहयोग प्राप्त था.

दिसम्बर, 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सरकार तथा उसके कानूनों के अत्यंत शांतिपूर्ण उल्लंघन के निर्णय को अनुमोदित भी कर दिया गया. महात्मा गांधी जी ने नागपुर अधिवेशन में घोषणा की कि ‘ब्रिटिश सरकार यह बात समझ ले कि अगर वह न्याय नहीं करना चाहती तो साम्राज्य को नष्ट करना प्रत्येक भारतीय का परम् कर्तव्य होगा’.

नागपुर अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित विरोध लाला लाजपत राय एवं चितरंजनदास ने वापस ले लिया. इसी समय कांग्रेस कमेटियों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया. कांग्रेस अब विदेशी शासन से मुक्ति के राष्ट्रीय संघर्ष में जनता की संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता बन गई. हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे थे. साथ ही कुछ पुराने नेताओं ने अब कांग्रेस छोड़ भी दी थी. इनमें प्रमुख थे- मुहम्मद अली जिन्ना, जी. एस खापर्डे, विपिनचन्द्र पाल और श्रीमति एनी बेसेंट.

1921-22 में भारतीय जनता में उत्तेजना का नया वातावरण देखा गया. हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल कालेज छोड़ कर राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजों में प्रवेश ले लिया. सैकड़ों वकीलों ने अपनी मोटी कमाई वाली वकालतें छोड़ दी.

असहयोग आंदोलन चलाने के लिए तिलक स्वराज्यकोष स्थापित किया गया. छः माह के अन्दर इसमें एक करोड़ रुपया जमा हो गया. स्त्रियों ने भी बहुत उत्साह दिखाया और अपने गहनों, जेवरों का खुलकर दान किया. विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार एक जन आंदोलन बन गया और पूरे देश में जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई. खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई.

जुलाई, 1921 में एक प्रस्ताव पारित करके खिलाफत आंदोलन ने घोषणा की कि कोई भी मुसलमान ब्रिटिश भारत की सेना में भरती नहीं होगा. कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी एक इसी तरह का प्रस्ताव पारित कर कहा कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत का उत्पीड़न कर रही ब्रिटिश सरकार की सेवा कोई भारतीय न करे.

असहयोग आंदोलन शुरू करने से पूर्व गांधीजी ने अपनी ‘केसर-ए-हिन्द‘ की उपाधि जो कि उन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सरकार को सहयोग के बदले प्राप्त हुई थी, वापस कर दी. इसका अनुसरण सैकड़ों अन्य लोगों ने भी किया. जमनालाल बजाज ने अपनी ‘राय बहादुर‘ की उपाधि वापस कर दी.

विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए अनेक राष्ट्रीय शिक्षण संस्थायें जैसे- काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजराज विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामियां एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि स्थापित की गई.

वकालत का बहिष्कार करने वाले प्रमुख वकील थे- देश बंधु चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, विठ्ठल भाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी एवं दिल्ली के आसफ अली आदि.

असहयोग आंदोलन में सहयोग करने वाले प्रमुख मुस्लिम नेता थे – मुहम्मद अली, शौकत अली, डा. अन्सारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि.

1919 के सुधार अधिनियमों के उद्घाटन के लिए ‘ड्यूक ऑफ कामंस ‘ के भारत आने पर विरोध और बहिष्कार किया गया. सरकार ने असहयोग आंदोलन को कुचलने का हर सम्भव प्रयत्न किया.

4 मार्च, 1921 में ननकाना के एक गुरुद्वारे में, जहां पर शान्तिपूर्ण ढंग से सभा का संचालन किया जा रहा था, पर सैनिकों द्वारा गोली चलाने के कारण करीब 70 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा.

1921 में लार्ड रीडिंग को भारत का वायसराय बनाया गया. इस समय से दमन चक्र और कड़ाई के साथ चलाया गया तथा प्रमुख नेता मुहम्मद अली, मोतीलाल नेहरु चित्तरंजन दास, लाला लाजपत राय, मौलाना आजाद, राज गोपाला चारी, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल जैसे अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गये.

17 अप्रैल, 1921 को ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स‘ के भारत आगमन पर उनका स्वागत काले झंडे दिखा कर किया गया. इससे क्रुद्ध होकर सरकार ने कठोर दमन की नीति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप स्थान-स्थान पर लाठी चार्ज, मारपीट, गोलीकांड सामान्य बात हो गई और करीब 60,000 लोगों को इस अवधि में बन्दी बनाया गया.

आंदोलन भी अब जनता में गहरी जड़े जमा चुका था. संयुक्त प्रांत तथा बंगाल के हजारों किसानों ने असहयोग के आह्वान का पालन किया. पंजाब के गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का कब्जा खत्म करने के लिए सिख ‘अकाली आंदोलन’ नामक एक अहिंसक आंदोलन चला रहे थे.

असम के चाय बागानों के मजदूरों ने हड़ताल की. मिदनापुर के किसानों ने यूनियन बोर्ड को कर देने से इन्कार कर दिया. उत्तरी केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला कहे जाने वाले मुस्लिम किसानों ने एक शक्तिशाली जमींदार-विरोधी आंदोलन शुरू कर रखा था.

1 फरवरी, 1922 को महात्मा गांधीजी ने घोषणा की कि अगर सात दिनों के अन्दर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं किए जाते और प्रेस पर सरकार का नियंत्रण समाप्त नहीं होता तो वे करों की अदायगी समेत एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड़ेगे. परन्तु इसी समय संयुक्त चौरी-चौरा घटना घटित हो गई, जिस कारण असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया.

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हंटर कमेटी-जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच(Hunter Committee in Hindi)

हंटर कमेटी (Hunter Committee in Hindi)जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए सम्पूर्ण देश में चल रहे जबरदस्त विरोध को देखते हुए सरकार ने मजबूरन 1 अक्टूबर, 1919 को लार्ड हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना की.

इस आयोग में 5 अंग्रेज सदस्य लार्ड हंटर, मि. जस्टिन रैकिन, मि. राइस, मेजर जनरल सर जार्ज बैरो एवं सर टामस स्मिथ तथा तीन भारतीय सदस्य सर चिमन लाल सीतलवाड़, साहबजादा सुल्तान अहमद और जगत नारायण थे.

हंटर कमेटी Hunter Committee in Hindi

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस नृशंस घटना की जांच के लिए मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में एक आयोग नियुक्त किया जिसके अन्य सदस्य थे पंडित मोतीलाल नेहरू और महात्मा गांधीजी. हंटर कमेटी(Hunter Committee in Hindi) ने मार्च, 1920 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.

इसके पहले ही सरकार ने दोषी लोगों को बचाने के लिए ‘इण्डेम्निटी बिल’ पास कर लिया था. कमेटी ने सम्पूर्ण प्रकरण पर लीपापोती का प्रयास किया. समिति ने पंजाब के गवर्नर को निर्दोष घोषित करते हुए जनरल डायर के बारे में कहा कि डायर ने कर्तव्य को गलत समझते हुए जरूरत से अधिक बल प्रयोग किया, पर जो कुछ किया निष्ठा से किया.

डायर को उसके अपराध के लिए नौकरी से हटने का दण्ड दिया गया. ब्रिटिश अखबारों ने उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का रक्षक’ लार्ड सभा ने उसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य का शेर’ तथा सरकार ने उसकी सेवाओं के लिए उसे ‘मान की तलवार’ की उपाधि प्रदान की.

कांग्रेस द्वारा नियुक्त जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में अधिकारियों की कटु आलोचना की तथा मांग की कि दोषी लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही तथा मृतकों के आश्रितों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाए. परन्तु इस सम्बन्ध में सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी. अत: महात्मा गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के लिए आधार नीति बनाई.

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Sunday, July 29, 2018

जलियाँवाला बाग हत्याकांड 1919 (Jallianwala Bagh Tragedy 1919)

जलियाँवाला बाग हत्याकांड 1919 (Jallianwala Bagh Tragedy 1919)सत्याग्रह का सम्पूर्ण देश में जबरदस्त प्रभाव पड़ा. देश भर में जन आंदोलन चल रहा था. ब्रिटिश सरकार इस जन आंदोलन को कुचल देने पर आमादा थी.

बंबई, अहमदाबाद, कलकत्ता, दिल्ली और दूसरे नगरों में निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर बार-बार लाठियों और गोलियों का प्रहार हुआ तथा उन पर अनेकों जुल्म ढाये गये.

 

जलियाँवाला बाग हत्याकांड 1919 Jallianwala Bagh Tragedy 1919

इस समय महात्मा गांधीजी और कुछ अन्य नेताओं के पंजाब प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगे होने के कारण वहां की जनता में आक्रोश व्याप्त था. यह आक्रोश, उस समय अधिक बढ़ गया जब पंजाब के दो लोकप्रिय नेता डॉ. सतपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर ने बिना किसी कारण के गिरफ्तार कर लिया.

जनता ने एक शान्तिपूर्ण जुलूस निकाला. पुलिस ने जुलूस को आगे बढ़ने से रोका और रोकने में सफल न होने पाने पर आगे बढ़ रही भीड़ पर गोली चला दी. जिसके परिणाम स्वरूप दो लोग मारे गये. जुलूस ने उग्र रूप धारण कर लिया और कई इमारतों को जला दिया तथा साथ ही करीब 5 श्वेतों को जान से मार दिया.

अमृतसर की इस घटना से बौखला कर सरकार ने 10 अप्रैल, 1919 को शहर का प्रशासन सैन्य अधिकारी ब्रिगेडियर जनरल आर डायर को सौंप दिया. इसने 12 अप्रैल को कुछ गिरफ्तारियां करवाई. अगले दिन 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन शाम को करीब साढ़े 4 बजे अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें करीब 20,000 लोगों ने हिस्सेदारी की. उसी दिन साढ़े नौ बजे सभा को अवैधानिक घोषित कर दिया गया था.

सभा में महात्मा गांधीजी,डॉ. सैफुद्दीन किचलू एवं डॉ. सतपाल की रिहाई एवं रोलट एक्ट के विरोध में भाषणबाजी की जा रही थी. ऐसे में डायर ने फौज द्वारा बाग को घेर लिया और तीन मिनट के अन्दर भीड़ को हटने का आदेश देकर स्वयं एक सैनिक दस्ते के साथ बाग के निकास-द्वारा पर खड़ा हो गया. उसके बाद जल्दी उसने फौज को भीड़ पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया.

वे तब तक गोली बरसाते रहे जब तक कि गोलियां खत्म न हो गई. हजारों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा तथा अनेकों लोग घायल हो गये. जलियाँवाला बाग हत्याकांड(Jallianwala Bagh Tragedy) के बाद सम्पूर्ण पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया और लोगों पर तरह-तरह के जुल्म ढाये गए.

पंजाब की घटनाओं से सम्पूर्ण देश में भय का वातावरण उत्पन्न हो गया. विदेशी शासन का वास्तविक स्वरूप तथा उसकी नीयत लोगों के सामने उजागर हो गई. महान कवि और मानवतावादी रचनाकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस घटना (जलियाँवाला बाग हत्याकांड Jallianwala Bagh Tragedy) के विरोध में अपनी ‘नाइट‘ की उपाधि लौटा दी. उन्होनें घोषणा की कि-

“वह समय आ गया है जब सम्मान के प्रतीक अपमान अपने बेमेल सन्दर्भ में हमारी शर्म को उजागर करते हैं और जहां तक मेरा सवाल है, मैं सभी विशिष्ट उपाधियों से रहित होकर अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हैं जो अपनी तथाकथित क्षुद्रता के कारण मानव जीवन के अयोग्य अपमान को सहने के लिए बाध्य हो सकते हैं.”

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रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह (Satyagraha against Rowlatt Act)

रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह (Satyagraha against Rowlatt Act)-दूसरे राष्ट्रवादियों की तरह महात्मा गांधीजी को भी रौलेट एक्ट से गहरा धक्का लगा.

फरवरी, 1919 में उन्होंने एक सत्याग्रह सभा बनाई, जिसके सदस्यों ने इस कानून का पालन न करने तथा गिरफ्तारी और जेल जाने का सामना करने की शपथ ली.

रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह Satyagraha against Rowlatt Act

सत्याग्रह ने फौरन ही आंदोलन को एक नए और उच्चतर स्तर तक उठा दिया. अब मात्र अदोलन करने तथा अपने असंतोष और क्रोध को मौखिक रूप में अभिव्यक्त करने की जगह राष्ट्रवादी अब सक्रिय कार्य भी कर सकते थे.

सन् 1919 के मार्च-अप्रैल महीनों में भारत में अभूतपूर्व राजनीतिक जागरण आया और लगभग पूरा देश नई शक्ति से भर उठा.

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खेड़ा सत्याग्रह, सरदार वल्लभभाई पटेल (Kheda Satyagraha 1918)

खेड़ा सत्याग्रह, सरदार वल्लभभाई पटेल Kheda Satyagraha 1918

 

खेड़ा सत्याग्रह, सरदार वल्लभभाई पटेल (Kheda Satyagraha 1918)महात्मा गांधीजी ने 1918 में गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसल चौपट हो जाने के कारण सरकार द्वारा लगान में छूट न दिए जाने की वजह से सरकार के विरुद्ध किसानों का साथ दिया और उन्हें राय दी कि जब तक लगान में छूट नहीं मिलती वे लगान देना बन्द कर दें.

परिणामस्वरूप सरकार ने यह आदेश दिया कि लगान उन्हीं किसानों से वसूला जाए जो वास्तव में इसका भुगतान कर सकते हैं. अतः संघर्ष वापस ले लिया गया. इसी संघर्ष के दौरान सरदार वल्लभभाई पटेल उन सभी नौजवानों में से एक थे जो कि महात्मा गांधीजी के अनुयायी बने थे.

इन अनुभवों ने महात्मा गांधीजी को जनता के घनिष्ट संपर्क में ला दिया और वे जीवन भर उनके हितों की सक्रिय रूप में रक्षा करते रहे. वे वास्तव में भारत के पहले ऐसे राष्ट्रवादी नेता थे जिन्होंने अपने जीवन और जीवन-पद्धति को साधारण जनता के जीवन से एकाकार कर लिया था. जल्दी ही वे गरीब भारत, राष्ट्रवादी भारत और विद्रोही भारत के प्रतीक बन गए. गांधीजी के तीन दूसरे लक्ष्य भी थे, जो उन्हें जान से प्यारे थे. इनमें –

पहला था- हिन्दू-मुस्लिम एकता,

दूसरा था- छुआछूत विरोधी संघर्ष और

तीसरा था- देश की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारना .

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अहमदाबाद की मिल हड़ताल (Ahmedabad Mill Strike 1918)

अहमदाबाद की मिल हड़ताल Ahmedabad Mill Strike 1918

 

 

अहमदाबाद की मिल हड़ताल (Ahmedabad Mill Strike 1918)महात्मा गांधीजी का अगला प्रयोग 1918 में अहमदाबाद की एक कॉटन टैक्सटाइल मिल में मिल मालिक और मजदूरों के बीच मजदूरी बढ़ाने के सिलसिले में चल रहे विवाद में हस्तक्षेप करना रहा था.

महात्मा गांधीजी ने मजदूरों की मजदूरी में 35 प्रतिशत की वृद्धि का समर्थन कर उन्हें हड़ताल पर जाने का सुझाव दिया.

मजदूरों की हड़ताल जारी रखने के संकल्प को बल देने  के लिए उन्होंने आमरण अनशन किया.

21 दिन की हड़ताल के बाद आखिर में मिल मालिकों ने मजदूरी 35 प्रतिशत बढ़ानी स्वीकार कर ली.

इस संघर्ष में अम्बालाल सरभाई की बहिन अनसुया बेन महात्मा गांधीजी की मुख्य सहयोगी रही, जबकि इनका भाई जो कि गांधीजी का दोस्त भी था मुख्य विरोधी रहा था.

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Saturday, July 28, 2018

चम्पारण सत्याग्रह,1917 (Champaran Satyagraha by Mahatma Gandhiji)

चम्पारण सत्याग्रह,1917 Champaran Satyagraha in Hindi

चम्पारण सत्याग्रह,महात्मा गांधी-1917

(Champaran Satyagraha by Mahatma Gandhi in Hindi)

 

चम्पारण सत्याग्रह 1917 (Champaran Satyagraha by Mahatma Gandhi in Hindi)-1917 में महात्मा गांधी जी ने सत्याग्रह का पहला बड़ा प्रयोग बिहार के चम्पारण जिले में किया. चम्पारण की घटना उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शुरू हुई थी.

यहां नील के खेतों में काम करने वाले किसानों पर यूरोपीय मालिक बहुत अधिक अत्याचार करते थे. किसानों को अपनी जमीन के कम से कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा उन मालिकों द्वारा तय दामों पर उन्हें बेचना पड़ता था.

चम्पारण के अनेक किसानों ने महात्मा गांधी जी से मिलकर उन्हें अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों की कहानी सुनाई और सहायता की मांग की.

1917 में महात्मा गांधीजी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल-हक, जे. बी. कृपलानी और महादेव देसाई वहां पहुंचे और किसानों की हालत की विस्तृत जांच-पड़ताल करने लगे.

जिले के अधिकारियों ने उन्हें चंपारन छोड़ने का आदेश दिया परन्तु उन्होंने आदेश का उल्लंघन किया और जेल/मुकदमें के लिए तैयार रहे. मजबूरन सरकार ने पिछला आदेश रद्द कर दिया और एक जांच समिति बिठाई जिसके एक सदस्य स्वयं महात्मा गांधीजी थे.

अंततः किसान जिन समस्याओं से पीड़ित थे उनमें कमी हुई तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन की पहली लड़ाई महात्मा गांधी जी ने जीत ली. खेत मालिकों के साथ हुए समझौते के तहत अवैधानिक तरीकों से किसानों से लिए हुए धन का 25 प्रतिशत उन्हें वापस करने की बात तय हुई.

जब आलोचकों ने महात्मा गांधीजी(Mahatma Gandhiji) से पूछा कि उन्होंने पूरा धन वापस करने की बात क्यों नहीं की तो महात्मा गांधीजी का उत्तर था इस धन की वापसी खेत मालिकों की स्थिति व उनके सम्मान के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा.

 

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Thursday, July 26, 2018

महात्मा गांधीजी के क्रियाकलाप और उनके विचार (Mahatma Gandhi’s Activities)

महात्मा गांधीजी के प्रारम्भिक क्रियाकलाप और उनके विचार (Mahatma Gandhi's Early Activities and His Ideas)

 

महात्मा गांधीजी के प्रारम्भिक क्रियाकलाप और उनके विचार (Mahatma Gandhi’s Early Activities and His Ideas in Hindi)

महात्मा गांधीजी का प्रारम्भिक जीवन (Mahatma Gandhiji’s Early Life in Hindi)-

 

मोहन दास करम चन्द्र गांधी(महात्मा गांधीजी) का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबन्दर नामक स्थान पर एक सम्पन्न परिवार में हुआ था.

महात्मा गांधीजी(Mahatma Gandhi) 1888 में कानून की शिक्षा प्राप्ति के लिए इंग्लेण्ड चले गये थे और 1891 में एक बैरिस्टर के रूप में भारत वापस लौटे. उन्होंने राजकोट और बम्बई में अपनी प्रेक्टिस की लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल सकी.

1893 में वे वकालत के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गये. वहां पर भारतीयों के ऊपर हो रहे नस्लवादी अन्याय, भेदभाव और हीनता को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ. अतः न्याय की उच्च भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अन्याय के खिलाफ विरोध प्रारम्भ कर दिया.

भारत से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे मजदूरों और व्यापारियों को मत देने का अधिकार नहीं था तथा उन्हें पंजीकरण कराना होता था और चुनाव-कर (Election-Tax) देना पड़ता था.

उनको गंदी और भीड़ भरी उन्हीं बस्तियों में रहना होता था जो उनके लिए निर्धारित थी. कुछ दक्षिण अफ्रीकी उपनिवेशों में एशियाई और अफ्रीकी लोग रात के नौ बजे बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे और न ही सार्वजनिक फुटपाथों का प्रयोग कर सकते थे.

महात्मा गांधीजी (Mahatma Gandhi) इन स्थितियों के विरोध में चलने वाले संघर्ष के शीघ्र ही नेता बन गए और 1893-94 में वे दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी अधिकारियों के खिलाफ एक बहादुराना मगर असमान संघर्ष चला रहे थे.

इसी के दौरान महात्मा गांधीजी ने सत्य और अंहिसा पर आधारित सत्याग्रह नामक तकनीक का विकास किया.

महात्मा गांधीजी के अनुसार एक आदर्श सत्याग्रही, सत्यप्रेमी और शांति प्रेमी होता है, मगर वह जिस बात को गलत समझता है उसे दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देता है. वह गलत काम करने वालों के खिलाफ संघर्ष करते हुए हंसकर कष्ट सहन करता है.

एक सच्चे सत्याग्रहीं की प्रकृति में घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होता. महात्मा गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा कायरों और कमजोरों का अस्त्र नहीं है, केवल निडर और बहादुर लोग ही इसका उपयोग कर सकते हैं.

महात्मा गांधीजी के दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि वे विचार और कर्म में कोई अंतर नहीं रखते थे. उनका सत्य अहिंसा-दर्शन जोशीले भाषाणों और लेखों के लिए न होकर रोजमर्रा के जीवन के लिए था.

गांधीजी 1915 में 46 वर्ष की आयु में भारत लौटे. पूरे एक वर्ष तक उन्होंने देश का भ्रमण कर भारतीय जनता की वास्तविक दशा को समझा और फिर उन्होंने 1916 में अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम की स्थापना की. उन्होंने संघर्ष की अपनी नई विधि के साथ यहां प्रयोग भी करना आरंभ किया.

 

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रौलेट एक्ट 1919 (Rowlatt Act 1919 in Hindi) गांधीवादी युग

रौलेट एक्ट 1919 (Rowlatt Act)

 

रौलेट एक्ट 1919 (Rowlatt Act 1919 in Hindi)भारत सरकार भारतीयों को संतुष्ट करने के प्रयास करते समय भी दमन के लिए तैयार थी. युद्ध के पूरे काल में राष्ट्रवादियों का दमन, उन्हें जेलों में बन्द करना तथा फांसी पर लटकाना जारी रहा.

मार्च, 1919 में सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया, जिसका केन्द्रीय विधान परिषद् के प्रत्येक सदस्य ने विरोध किया.

रौलेट कानून के तहत सरकार को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में मुकदमा चलाए और दंड दिए बिना जेल में बन्द कर सकती है.

साथ ही कैदी को अदालत में प्रत्यक्ष उपस्थित करने के कानून के निलम्बन का अधिकार भी रौलेट एक्ट कानून के तहत सरकार ने प्राप्त कर लिया था.

इस काले कानून के तहत सरकार का प्रमुख उद्देश्य सरकारी सुधारों से संतुष्ट न होने वाले राष्ट्रवादियों को कुचलना था.

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मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार(Montague-Chelmsford Reforms in Hindi)

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार Montague-Chelmsford Reforms in Hindi

गांधीवादी युग का आरम्भ, 1919-47 (Beginning of the Gandhian Era)

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार(Montague-Chelmsford Reforms in Hindi)-1918 में ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री एडविन मांटेग्यू तथा वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने संविधान सुधारों की एक योजना का प्रस्ताव रखा, जिसके आधार पर 1919 को ‘भारतीय शासन अधिनियम’ बनाया गया.

इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रांतीय विधायी परिषदों का आकार बढ़ा दिया गया तथा यह निश्चित किया गया कि उनके अधिकांश सदस्य चुनाव जीतकर आएंगे. दोहरी शासन प्रणाली के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार दिए गए.

इस अधिनियम के तहत वित्त, कानून और व्यवस्था आदि कुछ विषय आरक्षित घोषित करके गवर्नर के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखे गए तथा शिक्षा, जन-स्वास्थ्य तथा स्थानीय स्वशासन जैसे कुछ विषयों को ‘हस्तांतरित‘ घोषित करके उन्हें विधायिकाओं के सामने उत्तरदायी मंत्रियों के नियंत्रण में दे दिया गया. केन्द्र में दो सदनों की व्यवस्था की गई.

निचले सदन अर्थात् लेजिस्लेटिव असेंबली में कुल 144 सदस्यों में से 41 सदस्य नामजद होते थे. ऊपरी सदन, अर्थात कौंसिल आफ स्टेट्स में 26 नामजद तथा 34 चुने हुए सदस्य होते थे.

गवर्नर-जनरल और उसकी एक्जीक्यूटिव कौंसिल पर विधानमंडल का कोई नियंत्रण न था. दूसरी ओर केन्द्र सरकार का प्रांतीय सरकारों पर अबाध नियंत्रण था तथा इनका वोट का अधिकार भी बहुत अधिक सीमित था.

अगस्त, 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्तावों पर विचार करने के लिए बंबई में एक विशेष सत्र बुलाया. इस सत्र ने इन प्रस्तावों को निराशाजनक और असंतोषजनक बतलाकर इनकी जगह प्रभावी स्वशासन की मांग रखी.

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार(Montague-Chelmsford Reforms in Hindi)

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गांधीवादी युग-युद्धोत्तर कालीन स्थिति (Post War Situation)

गांधीवादी युग-युद्धोत्तर कालीन स्थिति (Post War Situation)

गांधीवादी युग का आरम्भ 1919-47 (Beginning of the Gandhian Era)

गांधीवादी युग-युद्धोत्तर कालीन स्थिति (Post War Situation): प्रथम विश्व युद्ध (First world war) (1914-18) के दौरान एक नई स्थिति विकसित हो रही थी. देश में राष्ट्रवाद का तेजी के साथ विकास हो रहा था. राष्ट्रवादियों को युद्ध की समाप्ति के बाद बड़े-बड़े राजनीतिक लाभ मिलने की आशाएं थी.

महायुद्ध (First world war) के बाद के वर्षों में देश की आर्थिक स्थिति और खराब हो गई. पहले कीमतें बढ़ी और फिर आर्थिक गतिविधियां मंद होने लगी. युद्ध के दौरान विदेशी आयात रुक जाने के कारण भारतीय उद्योगों को विकसित होने का अच्छा अवसर मिला था. परन्तु अब ये उद्योग विभिन्न कारणों से घाटे में चलने लगे और धीरे-धीरे बन्द होने की नौबत आने लगी.

भारत में विदेशी पूंजी बड़ी मात्रा में लगाई जाने लगी. भारतीय उद्योगपति चाहते थे कि सरकार आयातों पर भारी कस्टम ड्यूटी लगाकर तथा अन्य प्रकार की सहायता प्रदान करके उनके उद्योगों को सहायता प्रदान करे. इन उद्योगपतियों को भी महसूस होने लगा कि केवल एक मजबूत राष्ट्रवादी आंदोलन तथा एक स्वाधीन भारतीय सरकार के द्वारा ही ये लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं.

बेरोजगारी, मंहगाई आदि विभिन्न कारणों से समाज के सभी वर्ग यहां तक कि मजदूर तथा दस्तकार भी राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हो उठे. प्रथम विश्व युद्ध (First world war) के दौरान देश से बाहर गए भारतीय सैनिकों के दृष्टिकोण में भी अब परिवर्तन आने लगा.

इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति भी राष्ट्रवाद के पुनरोदय के लिए अनुकूल थी. प्रथम विश्व युद्ध ने सम्पूर्ण एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवाद को बहुत बल पहुंचाया था. अपने युद्ध-प्रयासों में जन-समर्थन पाने के लिए मित्र राष्ट्रों अर्थात् ब्रिटेन, अमेरीका, फ्रांस, इटली और जापान ने दुनिया के सभी राष्ट्र के लिए जनतंत्र तथा राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का एक नया युग आरम्भ करने का वचन दिया था.

लेकिन युद्ध (First world war) समाप्ति के बाद उन्होंने अपने वायदे पर कोई अमल नहीं किया. उल्टे अफ्रीका,पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी एशिया में जर्मनीटर्की के सारे उपनिवेशों को आपस में बांट लिया. इससे एशिया व अफ्रीका में हर जगह जुझारू और भ्रममुक्त राष्ट्रवाद उठ खड़ा होने लगा. यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने भारत में थोड़े से सुधार अवश्य लागू किए, परन्तु उनका सत्ता में भारतीयों को साझेदार बनाने का कोई इरादा नहीं था.

प्रथम विश्वयुद्ध (First world war) के बाद एक महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली कि गोरों की प्रतिष्ठा में कमी हुई. यूरोपीय शक्तियों ने साम्राज्यवाद के आरम्भ से हो जातीय-सांस्कृतिक श्रेष्ठता का स्वांग रचा था. परन्तु युद्ध (First world war) के दौरान दोनों पक्षों के एक-दूसरे के खिलाफ अंधाधुंध प्रचार से तथा अन्य विरोधात्मक कार्यों से अपने विरोधियों के व्यवहार का वास्तविक स्वरूप उजागर किया. जिससे उपनिवेशों का जनता में गोरों के प्रति विरोधी भावनाओं का विकास हुआ. नवम्बर, 1917 की रूसी क्रान्ति से भी राष्ट्रीय आंदोलनों को बहुत बल मिला. रूस में ब्लादिमीर इल्यिच लेनिन के नेतृत्व में वहां की बोल्शेविक (कम्युनिस्ट) पार्टी ने जार का तख्ता पलट दिया. रूस की क्रांति ने उपनिवेशों की जनता में एक नई जान फेंकी.

राष्ट्रवादी और सरकार विरोधी भावनाओं को उठती लहर से परिचित ब्रिटिश सरकार ने एक बार फिर छूट और दमन की मिली-जुली नीति अपनाने का फैसला किया.

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Monday, July 23, 2018

क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)

 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-क्रान्तिकारी आंदोलन (The Revolutionary Movement)क्रान्तिकारी आतंकवादी आंदोलन उन्नीसवीं सदी के अन्त में और बीसवीं सदी के आरम्भ में चला था. यह उग्रराष्ट्रवाद की ही एक अवस्था थी. परन्तु ये लोग तिलक-पक्षीय राजनीतिक उग्रवाद से बिल्कुल भिन्न साधनों का प्रयोग करने पर विश्वास रखते थे.

क्रान्तिकारी लोग अपीलों, प्रेरणाओं और शान्तिपूर्ण संघर्षों को नहीं मानते थे. ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी और दमन की नीति ने उन्हें निराश कर दिया था. क्रान्तिकारी प्रशासन और उनके हिन्दुस्तानी सहायकों की हिम्मत पस्त करने के लिए हिंसात्मक कार्यों में विश्वास रखते थे तथा शीघ्र परिणाम चाहते थे.

उनका विश्वास था कि पाश्चात्य साम्राज्य केवल पश्चिमी हिंसक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है. इसीलिए इन लोगों ने बम तथा पिस्तौल का प्रयोग किया और डकैतियां डाली व खजाने लूटे.

इन क्रान्तिकारी युवकों ने आयरिश आंतकवादियों और रूसी नेशनलिस्टों के संघर्ष के तरीकों को अपनाकर यूरोपीय प्रशासकों की हत्या करके तथा अन्य आतंकवादी साधनों का प्रयोग कर स्वतंत्रता विरोधीयों को उखाड़ फेंकने का प्रयल किया.

 

महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement in Maharashtra)

 

क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों का सबसे पहला केन्द्र महाराष्ट्र था. पूना जिले के चितपावन ब्राह्मणों में सर्वप्रथम स्वराज्य के प्रति प्रेम की उग्र भावना का विकास हुआ था. बाल गंगाधर तिलक ने जो कि स्वयं चितपावन ब्राह्मण थे, 1893 में गणपति त्यौहार तथा 1895 में शिवाजी त्यौहार मनाया. इससे महाराष्ट्र के लोगों में राष्ट्रवादी भावनाओं का काफी विकास हुआ. 

सर्वप्रथम 22 जून, 1899 को पूना में पूना प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड तथा उनके एक साथी लेफ्टिनेन्ट अयर्स्ट (Lieutenant or Lt. Ayerst) की चापेकर बन्धुओं (दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापेकर जो कि चितपावन ब्राह्मणों से सम्बन्धित थे) ने हत्या कर दी. रैण्ड की हत्या का तात्कालिक कारण उसका भारतीयों के प्रति प्लेग की स्थिति में अमानीय व्यवहार था.

उस समय जबकि पूना तथा आस-पास के क्षेत्रों में प्लेग फैला हुआ था, अंग्रेज सरकार ने प्लेग ग्रस्त लोगों की किसी भी प्रकार की सहायता करने के बजाय बहुत अधिक दुर्व्यवहार किए. तिलक ने तो यहां तक कहा कि

आजकल नगर में फैली प्लेग अपने मानवीय रूपान्तरों से अधिक दयालु है.” चापेकर बन्धुओं को फांसी की सजा दे दी गई तथा तिलक को भी सरकार विरोधी भड़काऊ लेख लिखने के जुर्म में 18 मास के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई.

1905 में कृष्ण वर्मा जो कि पश्चिमी भारत के काठियावाड़ प्रदेश के रहने वाले थे, ने लन्दन में ‘भारत स्वशासन समिति(India Home Rule Society) का गठन किया. जिसे इंडिया हाउस (India House) के नाम से भी जाना जाता था.

ऐसा माना जाता है कि मि. रैण्ड की हत्या के सिलसिले में कृष्ण वर्मा भी कुछ हद तक जिम्मेदार थे. उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘Indian Sociologist’ भी प्रारम्भ की. विदेश आने वाले योग्यता प्राप्त भारतीयों के लिए उन्होंने एक-एक हजार रुपये की 6 फैलोशिप (Fellowship) भी आरम्भ की ताकि वे बाहर जाकर राष्ट्र सेवा के काम में अपने आपको शिक्षित करें.

शीघ्र ही इण्डिया हाउस लन्दन में रहने वाले भारतीयों के लिए आंदोलन का एक केन्द्र बन गया. वी. डी. सावरकर, लाला हरदयाल और मदलनाल ढींगरा जैसे क्रान्तिकारी इसके सदस्य बन गए.

सावरकर बन्धुओं ने महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन को संगठित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी. उन्होंने गणपति उत्सव मनाने के लिए 1899 में मित्र मेला नामक एक सोसायटी की स्थापना की, जिसे 1906 में एक क्रान्तिकारी संगठन में बदल दिया गया और उसका नाम ‘अभिनव भारत समाज’ रखा गया.

1905 में जब स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा तो वीर सावरकर ने पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. जिससे दक्षिण भारत में हलचल पैदा हो गई. 1909 में मदललाल ढींगरा ने कर्नल विलियम कर्जन वाइली (Col. William Curzon Wyllie) की, जो कि इण्डिया आफिस में राजनैतिक सहायक थे, गोली मार कर हत्या कर दी.

मदललाल ढींगरा पकड़े गये और उन्हें फांसी दे दी गई. सावरकर को बन्दी बना लिया गया और आजन्म निष्कासन का दण्ड सुनाया गया. ग्वालियर षड़यंत्र केस, नासिक षड़यंत्र केस तथा सतारा षड़यंत्र केस इन्हीं क्रान्तिकारी सभाओं से सम्बन्धित थे.

 

बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन (Revolutionary Movement in Bengal)

 

1905 की बंगाल विभाजन की अलोकप्रिय घटना के बाद बंगाल में नए सिरे से ऐसी राजनीतिक जागृति आई जो इससे पहले कभी नहीं देखी गयी थी. यह माना जा सकता है कि बंगाल आतंकवादी क्रान्तिकारी आंदोलन का केन्द्र बिन्दु था. बंगाल में क्रान्तिकारी आंदोलन का सूत्रपात ‘भद्रलोक समाज’ ने किया.

श्री पी. मित्रा तथा वरीन्द्र कुमार घोष एवं भूपेन्द्र दत्त आदि के सहयोग से 1907 में ‘अनुशीलन समिति‘ का गठन किया गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य था खून के बदले खून.’ अंग्रेज विरोधी विचारों के प्रकाशन के लिए तथा क्रान्तिकारी कार्यों को संगठित करने के लिए 1905 में वरिन्द्र कुमार घोष ने ‘भवानी मन्दिर‘ नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया.

इसके बाद ‘वर्तमान रणनीति नामक पुस्तिका तथा ‘युगान्तर‘ और ‘सन्ध्या‘ नामक पत्रिकाओं में भी अंग्रेज विरोधी विचार प्रकाशित किए जाने लगे. एक अन्य पुस्तक ‘मुक्ति कौन पाथे’ (मुक्ति किस मार्ग से?) में भारतीय सैनिकों से क्रान्तिकारियों को हथियार देने का आग्रह किया गया.

बंगाल के युवकों को शक्ति की प्रतीक भवानी की पूजा करने को कहा गया ताकि वे मानसिक, शारीरिक, आत्मिक तथा नैतिक बल प्राप्त कर सकें. कर्म करने पर भी जोर दिया गया.

क्रान्तिकारी हिसंक घटनाओं का आरंभ 1906 में हुआ, जब धन को व्यवस्था के लिए क्रान्तिकारियों ने डकैतियों की योजनाएं बनायी. 1907 में पूर्वी बंगाल तथा बंगाल के लेफ्टिनेन्ट गवर्ननरों की हत्याओं के असफल प्रयल किए गए.

प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस ने 30 अप्रैल, 1908 को न्यायाधीश किंग्जफोर्ड की हत्या का प्रयास किया, परन्तु गलती से बम श्री कनेडी की गाड़ी पर गिर गया जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गई थी.

प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस पकड़े गए. प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली तथा खुदीराम बोस को फांसी की सजा दी गई. रौलट कमेटी की रिपोर्ट ने 1906 और 1917 के मध्य में 110 डांके तथा हत्या के 60 प्रयत्नों का उल्लेख किया है.

 

अन्य प्रान्तों में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement in Other Provinces)

 

पंजाब में शिक्षित वर्ग क्रान्तिकारी विचारों से काफी प्रभावित हुआ. पंजाब सरकार ने सुझाव दिया था कि चिनाब नहरी तथा बारी दोआब नहरी बस्तियों में भूमिकर बढ़ाया जाना चाहिए. फलस्वरूप प्रदेश की ग्रामीण जनता में बहुत अधिक रोष जागा.

केन्द्र सरकार ने इस विधेयक को यद्यपि अपनी वीटो (Veto) शक्ति से रद्द कर दिया था परन्तु दो प्रमुख नेताओं लाला लाजपत राय तथा सरदार अजीत सिंह को बन्दी बना लिया गया.

दिसम्बर, 1912 में दिल्ली में लार्ड हार्डिंग के ऊपर उस समय बम फेंका गया जब वह राज यात्रा (State Entry) पर थे. इसमे वह बाल-बाल बचे.

मुख्य रूप से बिहार, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर व निमेज हत्या काण्ड तथा बनारस में क्रान्तिकारी गतिविधिया सक्रिय रही.

 

विदेशों में क्रान्तिकारी आंदोलन (Revolutionary Movement, Abr0ad)

 

क्रान्तिकारियों ने विदेशों से भी भारत की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन का संचालन किया. लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा, वी. डी. सावरकर, मदन लाल धींगरा तथा लाला हरदयाल और यूरोप में मैडम भीकाजी कामा तथा अजीत सिंह प्रमुख सक्रिय नेता थे.

1905 में कृष्णवर्मा ने लन्दन में ‘इण्डियन होमरुल सोसायटी’ की स्थापना की, जो कि ‘इण्डिया हाउस‘ के नाम से प्रसिद्ध था. जल्दी ही इण्डिया हाउस लन्दन में भारतीय गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु बन गया. इसी समय एक मासिक पत्रिका ‘इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट‘ का प्रकाशन भी किया गया.

8 जुलाई, 1909 को मदन लाल धींगरा ने इण्डिया आफिस के राजनीतिक सहायक सर विलियम कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी. बाद में धींगरा को फांसी दे दी गई.

सावरकर को बन्दी बना लिया गया और आजन्म निष्कासन (Transportation for Life) का दण्ड सुनाया गया. श्याम जी भी लन्दन छोड़ कर पेरिस चले गये. फलस्वरूप इंडिया हाउस की गतिविधियां बन्द करनी पड़ी.

 

गदर आन्दोलन (Gadar Movement)

 

1 नवम्बर 1913 को लाला हरदयाल ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सान फ्रांसिस्को नगर में गदर पार्टी की स्थापना की. इस संगठन ने ‘युगान्तर प्रेस‘ की स्थापना कर ‘गदर‘ नामक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन भी किया. इस दल के अन्य प्रमुख नेता थे- रामचन्द्र, बरकबुल्ला, रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, अब्दुल रहमान एवं मैडम भीकाजी कामा. कुछ समय पश्चात अग्रेजों के कहने पर अमरीकी प्रशासन ने लाला हरदयाल के विरुद्ध मुकदमा बना दिया. फलस्वरूप उन्हें अमेरिका छोड़ना पड़ा.

लाला हरदयाल तथा उसके साथी बाद में जर्मनी चले गए. उन्होंने बर्लिन में भारतीय स्वतंत्रता समिति का गठन किया. इनका उद्देश्य था कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भारत की स्वतंत्रता के लिए सभी सम्भव प्रयास करने चाहिए.

इनके प्रयास थे- भारत में स्वयं सेवकों को भेजकर भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार करना, भारत में क्रान्तिकारियों के लिए विस्फोटक पदार्थ भेजना और सम्भव हो तो भारत पर सैनिक आक्रमण करना.

पंजाब में कामागाटा मारू काण्ड (Kormagata Maru Incident) ने विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर दी. एक सिख बाबा गुरदित्त सिंह ने एक जापानी जलपोत कामागाटा मारू को भाड़े पर लेकर कुछ पंजाबी सिक्खों व मुसलमानों को कनाडा के वेनकूवर नगर ले जाने का प्रयत्न किया ताकि वे विदेश में रहकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए योगदान कर सकें.

परन्तु कनाडा सरकार ने इन यात्रियों को अपने बन्दरगाह में उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज 27 सितम्बर, 1914 को पुनः कलकत्ता बन्दरगाह लौट आया. बाबा गुरूदित सिंह को गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया गया, परन्तु वह भाग गए. शेष लोगों को विशेष रेलगाड़ी में वापस पंजाब लाया गया

और थोड़ी-बहुत औपचारिकताओं के बाद छोड़ दिया गया. इन लोगों को विश्वास था कि अंग्रेजी सरकार के दबाव के कारण हो कनाडा सरकार ने उन्हें वापस लौटने पर मजबूर किया. इन असन्तुष्टों तथा अन्य बहुत से लोगों ने लुधियाना, जालन्धर तथा अमृतसर में बहुत से डाके डाले जो कि पूर्ण रूपेण राजनीति से प्रेरित थे. अंग्रेजी सरकार ने स्थिति से निबटने के लिए अनेक कदम उठाये.

प्रथम विश्व युद्ध के अन्त में क्रान्तिकारी गतिविधियों में कुछ समय के लिए पूर्ण विराम आया, जब सरकार ने रक्षा अधिनियम के अधीन पकड़े गये राजनैतिक बन्दियों को रिहा कर दिया. साथ ही 1919 के अधिनियम द्वारा जो सुधार लागू किए गये उनसे सामान्य वातावरण बन गया था. इसी समय भारत की राजनीति में गांधी जी के आगमन से भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में थोड़ा धीमापन आया.

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प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (First world war in Hindi & Nationalism)

प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (World War-I & Indian Nationalism)

प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (First world war in Hindi and Indian Nationalism)

प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रवाद (first world war in Hindi and Indian Nationalism)-प्रथम विश्व युद्ध जुलाई, 1914 में शुरू हुआ था. इसमें एक तरफ ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और जापान तथा दूसरी तरफ इटली, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और टर्की थे. भारत में युद्ध के वर्ष राष्ट्रवाद के तेजी के साथ विकास के संकेतक थे. 

जब युद्ध प्रारम्भ हुआ था उस समय कांग्रेस पूरी तरह से गोपाल कृष्ण गोखले अर्थात् उदारवादियों के नेतृत्व में थी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित लगभग सभी दलों ने सरकार को इस युद्ध में इस आश्वासन पर सहयोग देना स्वीकार किया कि युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों की मांगों पर पूरा ध्यान दिया जाएगा. इस समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक दूसरे के थोड़ा करीब आये. क्योंकि कुछ कारणों जैसे- मुस्लिम राष्ट्र टर्की का रूस व इंग्लेण्ड द्वारा विरोध, बंगाल विभाजन के समय मुसलमानों की राय न लेना तथा कुछ मुसलमान नवयुवकों के हृदय में राष्ट्रीय भावना जागृत होने आदि से मुसलमान भी अंग्रेजों से रुष्ट हो गए. बाद में जब जिन्ना लीग के सभापति बने तो तय हुआ कि लीग व कांग्रेस अब मिल कर साथ-साथ काम करेंगे.

 

होमरुल लीग आन्दोलन (The Home Rule Movement)

 

जब इंग्लेण्ड प्रथम विश्व युद्ध (First world war in Hindi) में व्यस्त था उसी समय भारतीय नेता बाल गंगाधर तिलक और श्रीमति एनी बेसन्ट ने देश में राष्ट्रीय आंदोलन को नया जीवन प्रदान करने का निर्णय लिया. अत: 23 अप्रैल, 1916 को बाल गंगाधर तिलक ने पूना में “होमरुल लीग‘ की स्थापना की. इसके छः महीने बाद श्रीमती एनीबेसेन्ट ने भी मद्रास में ‘अखिल भारतीय होमरुल लीग’ की स्थापना की. इन दोनों लोगों का उद्देश्य एक ही था. अत: दोनों ने परस्पर सहयोग से काम किया.

दिसम्बर, 1919 में कांग्रेस तथा लीग ने सुधारों की एक सामान्य योजना स्वीकार की तथा उसे जन-सामान्य में लोकप्रिय बनाने के लिए स्वराज्य आन्दोलन का उपयोग करने का निश्चय किया. तिलक और एनीबेसेन्ट ने देश भर में भ्रमण कर आंदोलन को गतिशील बनाया. इससे देश भर में स्वशासन का घर-घर प्रचार होने लगा. इस आंदोलन में अपनी मांगों को प्रार्थना या याचना के बजाय अधिकार पूर्वक प्रस्तुत किया जाता था. इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे–

लीग का मुख्य उद्देश्य यह था कि स्थानीय संस्थाओं और विधान सभाओं में जनता द्वारा निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों का स्वशासन स्थापित करना, ताकि भारत में भी औपनिवेशिक राज्यों की तरह ही शासन स्थापित हो सके. इस सन्दर्भ में कहा गया कि स्वशासित भारत अंग्रेजों के लिए युद्ध में अधिक सहायक सिद्ध होगा. एक और उद्देश्य इसका यह था कि भारतीय राजनीति को उग्रता की ओर जाने से रोकना तथा युद्धकाल में सुस्त पड़ गई भारतीय जनता में राजनीतिक चेतना को पुनः जागृत करना.

धीरे-धीरे यह गृह-स्वशासन आंदोलन तेजी पकड़ता गया. श्रीमति एनीबेसेन्ट ने दैनिक पत्र ‘न्यू इण्डिया’ एवं साप्ताहिक पत्र ‘कामन विल’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया. इन पत्रों के द्वारा एनी बेसेन्ट ने भारतीयों में स्वतंत्रता एवं राजनीतिक भावना को जागृत किया. तिलक ने अपने पत्र ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ के माध्यम से गृहशासन का जबरदस्त प्रचार किया. आंदोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार ने इसे कुचलने का फैसला किया. तिलक और एनीबेसेन्ट के कार्यालय पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिए गये . एनीबेसेन्ट को उसके दो साथियों के साथ 1917 में नजरबन्द कर दिया गया तथा तिलक के पंजाब और दिल्ली प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. सरकार के इन कार्यों का देशभर में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तथा लोगों में विरोध और रोष का तूफान उठ खड़ा हुआ. प्रतिकूल विचारों वाले राष्ट्रवादी अब एकजुट हो गये. देश भर में जबरदस्त विरोध को देखते हुए भारत सचिव माटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया, जिसमें भारत को उत्तरदायी शासन प्रदान करने का आश्वासन दिया गया था. उदारवादियों ने इस आश्वासन को अपनी जीत समझा तथा भारत मंत्री के देश में आने पर उनके साथ सहयोग करने का निर्णय लिया. धीरे-धीरे यह आंदोलन शान्त हो गया.

 

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन, 1916 (The Lucknow Session of Congress, 1916)

 

उदारवादी दल के दो प्रमुख नेताओं फिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले की 1915 में मृत्यु हो गई थी. इसके बाद गरम दल और नरम दल को कांग्रेस के मंच पर एक साथ लाने का प्रयास तिलक एवं एनीबेसेन्ट ने किया और इनका प्रयास सफल रहा. 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने की. 1916 के लखनऊ अधिवेशन में ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत कांग्रेस एवं लीग ने मिलकर एक ‘संयुक्त समिति’ की स्थापना की. इस समय भारतीय मुसलमान अनेक कारणों से ब्रिटिश सरकार से रुष्ट थे. अतः उपरोक्त समझौते द्वारा एकता पर बल दिया गया और दोनों ने मिलकर स्वराज्य प्राप्ति की योजना तैयार की. इस समझौते में कांग्रेस की भयंकर भूल यह थी कि उसने लीग की साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकार कर लिया. जिसके परिणाम कालान्तर में देश-विभाजन के रूप में सामने आये.

‘कांग्रेस-लीग’ अथवा ‘लखनऊ समझौते’ में निम्नलिखित सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव थे

1.प्रान्तों को प्रशासनिक और वित्तीय क्षेत्र में केन्द्रीय नियंत्रण से अधिकाधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए.

      2. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में निर्वाचित और मनोनीत सदस्यों का प्रतिशत क्रमश: 80 और 20 होना चाहिए.

      3. केन्द्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या कम से कम 150, मुख्य प्रान्तों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या कम से कम 115 और अन्य प्रान्तों की विधान सभाओं की सदस्य संख्या 50 से 75 तक होनी चाहिए.

  1. जब तक कौंसिल द्वारा पारित प्रस्तावों पर गवर्नर जनरल अथवा सपरिषद् गवर्नर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग न करें, तब तक प्रान्तीय और केन्द्रीय सरकारों को उनके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए.
  2. केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा को भारत सरकार के सैनिक, विदेशी और राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप का, जिनमें युद्ध-घोषणा अथवा सन्धि करना भी सम्मिलित हैं, कोई अधिकार नहीं होना चाहिए.
  3. भारत मंत्री के भारत सरकार के साथ वे ही सम्बन्ध होने चाहिए जो औपनिवेशिक मन्त्री के डोमीनियनों की सरकारों के साथ होते हैं.
  4. अल्पसंख्यकों को किसी विधेयक के निषेध (Veto) का अधिकार दिया जाना चाहिए. यदि उनके तीन-चौथाई प्रतिनिधि किसी विधेयक के विरुद्ध हों तो उस पर विधान सभा में विचार नहीं किया जाना चाहिए.

लखनऊ समझौते को यद्यपि तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में अत्यधिक सफल बताया गया, परन्तु वास्तव में यह समझौता मुलसमानों के अन्दर पृथक राष्ट्रीयता की भावना के जन्म और विकास का मूल कारण रहा. इसमें मुसलमानों को उनकी आबादी से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था. धीरे-धीरे मुस्लिम साम्प्रदायिक भावना उग्र होती गई. परिणामस्वरूप देश विभाजन की ओर अग्रसर होता चला गया.

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Saturday, July 21, 2018

उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट

उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट Split between the Moderates and Extremists

उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच सूरत की फूट (Split between the Moderates and Extremists)

 

सूरत की फूट, 1907 (Surat Split, 1907)

 

1906 ई. तक कांग्रेस के दो पक्ष उदारवादी और उग्रवादी काफी मतभेदों के बावजूद जिसमें से एक अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी था, किसी तरह साथ-साथ चले. परन्तु 1907 के सूरत अधिवेशन में जोकि कि पहले नागपुर में होना था, इन दोनों दलों में विभाजन हो गया. कांग्रेस के 1906 को कलकत्ता में हुए अधिवेशन में दादा भाई नारौजी की अध्यक्षता में निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकृत हुआ- “निश्चय हुआ कि इस तथ्य का ध्यान रखते हुए कि इस देश के लोगों का उसके प्रशासन में बहुत कम अथवा शून्य भाग है तथा सरकार के प्रति प्रेषित स्मृति-पत्रों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता, इसमें कांग्रेस की यह सम्मति है कि प्रान्त के विभाजन के विरोध में बंगाल में जिस बहिष्कार आंदोलन का आरम्भ हुआ है, वह न्याय संगत था, तथा है.”

उग्रवादी चाहते थे कि कांग्रेस 1906 के अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के आधार पर ही आगे की नीति निर्धारित करे. बाल गंगाधर तिलक ने 23 दिसम्बर, 1907 को सूरत में कहा कि, “हम कांग्रेस में फूट डालने नहीं आए हैं. हम चाहते हैं कि कांग्रेस अपनी बात से न हटे. हम कांग्रेस को समय के साथ चलता देखना चाहते हैं. पर जो लोग कांग्रेस को सूरत लाए. हैं, हालाकि नागपुर अधिवेशन कराने को तैयार था, वे कांग्रेस को पीछे घसीट रहे हैं. जब आप स्वदेशी की स्वीकार करते हैं तो आपको विदेशी वस्तुओं का अवश्य बायकाट करना चाहिए. मैं उस पार्टी में हैं जो वह काम करने को तैयार है जिसे वह ठीक समझती है चाहे सरकार खुश हो या नाखुश.कांग्रेस सब लोगों की संस्था है और उसमें जनता की आवाज ही मुख्य होनी चाहिए. नरमदलियों की नीति विनाशकारी है. मैं नहीं चाहता कि आप इस पर चलें. हम आगे बढ़ना चाहते हैं.”

यद्यपि सूरत अधिवेशन के समय कांग्रेस के अधिवेशन का एजेण्डा प्रतिनिधियों को नहीं बांटा गया था पर तिलक को गोखले द्वारा बनाये गये कांग्रेस के प्रस्तावित संविधान की एक प्रति मिल गई. जिससे पता चला कि कांग्रेस 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में प्रस्तावित प्रस्ताव पर स्पष्ट रूप से परिवर्तन करने जा रही है, तो तिलक चुप न रह सके. उन्होंने कहा कि यदि मुझे और मेरे साथियों को यह आश्वासन मिल जाए कि कांग्रेस को पीछे ले जाने की कोशिश नहीं की जाएगी तो प्रेजीडेण्ट के चुनाव के बारे में विरोध वापस ले लिया जाएगा. परन्तु नरम दलीय अपनी नीतियों में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं चाहते थे.

27 दिसम्बर, 1907 को कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ. डा. रासबिहारी घोष को अध्यक्ष चुना गया. किन्तु जैसे ही वे अपना सभापति का भाषण देने खड़े हुए, तिलक मंच पर चढ़ गये और मांग करने लगे कि उन्हें दर्शकों से कुछ कहने की अनुमति प्रदान की जाए. अध्यक्ष ने तिलक की इस मांग को अस्वीकार कर दिया, जिसे मानने को तिलक तैयार नहीं हुए. इसी समय गरम दल वालों ने सभा के बीच अशान्ति उत्पन्न कर दी तथा दोनों दलों के बीच खूब मार-पीट हुई. तिलक को मनाने के सभी प्रयास व्यर्थ गये. अत: अधिवेशन को स्थगित करना पड़ा. एनीबेसेंट ने कहा सूरत की घटना कांग्रेस के इतिहास में सबसे अधिक दु:खद घटना है.” नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले तथा गरम दल में मुख्य नेता-बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल थे. पुन: दोनों दलों का परस्पर विलय् 1916 में हुआ.

 

मोर्ले-मिन्टो सुधार (Morley-Minto Reforms)

 

इस समय सरकार ने दोहरी नीति अपनानी शुरू कर दी थी. गरम दल वालों का दमन तथा नरम दल वालों को खुश कर अपने साथ मिलाने की नीति का पालन किया जाने लगा. अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों को अपने साथ रखने की नीति का पालन करते हुए मुस्लिक साम्प्रदायिकता को भी प्रोत्साहन दिया. 

तत्कालीन भारत सचिव मोर्ले एवं वायसराय लार्ड मिन्टो ने सुधारों का भारतीय परिषद् एक्ट, 1909 पारित किया, जिसे मार्ले-मिन्टो सुधार कहा गया. इन सुधारों के तहत केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों के आकार एवं उनकी शक्ति में नाममात्र की वद्धि की गई, लेकिन साथ ही निर्वाचन प्रणाली को दूषित बना दिया गया. मुसलमानों को पृथक निर्वाचन और अधिक प्रतिनिधित्व की मांगें स्वीकार कर ली गई. साथ ही जमींदारों, धनी वर्गों व नगर-पालिकाओं को भी कौंसिलों में पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया.

सुधारों से मूल रूप में देश के किसी भी वर्ग को संतोष नहीं हुआ. बाद में अंग्रेजों की यही नीति भारत विभाजन का मुख्य कारण बनी.

 

मुस्लिम लीग की स्थापना (Foundation of the Muslim League)

 

अंग्रेजी सरकार की प्रेरणा से ही 1 अक्टूबर, 1906 को सर आगाखां के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल ने तत्कालीन वायसराय लार्ड मिण्टो से भेंट की. जिसने वायसराय से मांग की कि प्रान्तीय, केन्द्रीय व स्थानीय निर्वाचन हेतु मुसलमानों के लिए पृथक साम्प्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था की जाय. जिसे सरकार ने आसानी से स्वीकार कर लिया. अंग्रेजों ने “फूट डालो और राज करो” की नीति के तहत मुसलमानों की पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग स्वीकार केरके साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन दिया तथा भविष्य में हुए विभाजन के लिए एक मजबूत आधार तैयार कर दिया.

सरकार से प्रोत्साहन मिलने पर 30 दिसम्बर, 1906 को ढाका में मुसलमानों की एक सभा हुई. जिसमें मुख्य रूप से आगा खां तथा नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में ‘मुस्लिम लीग‘ की स्थापना की गई. इस लीग के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित बतलाये गए. इसका उद्देश्य मुसलमानों में राज्य-भक्ति बढ़ाना और उनके अधिकारों व हितों की रक्षा करना था. मुस्लिम लीग हमेशा ही राष्ट्रीय आंदोलनों के मार्ग में बाधक बनी रही.

 

राजद्रोह अधिनियम (Rebellion Act)

 

मार्ले-मिन्टों सुधारों पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उग्रवादी राष्ट्रवादियों तथा आतंकवादियों ने अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को काफी तेज कर दिया. परिणामस्वरूप सरकार ने इनके दमन के लिए अनेक कठोर और अत्याचारी कानून बनाये. 1910 ई. में भारतीय प्रेस एक्ट पारित कर समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता छीन ली गई. 1911 ई. में राजद्रोह अधिनियम पारित कर सरकार के विरुद्ध सभाएं करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई. इसी क्रम में 1913 ई. में फौजदारी संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जो कि राष्ट्रवादियों के दमन के लिए पारित किया गया था.

 

दिल्ली दरबार, 1911 (Delhi Darbar)

 

सम्राट जार्ज पंचम एवं महारानी मेरी के स्वागत में तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग के समय 1911 में दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया. इसी समय भारतीयों के विरोध को देखते हुए बंगाल विभाजन को रद्द करने की घोषणा की गई तथा बंग्ला भाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाया गया. उड़ीसा व बिहार को अलग राज्य तथा भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित करने की घोषणा भी इसी समारोह में की गई.

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