Saturday, July 21, 2018

राष्ट्रीय आंदोलन-उग्रवादियों का उदय(1906-1919)Rise of Extremist

उग्रवादियों का उदय, 1906-1919 (Rise of Extremist, 1906-1919)

 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-उग्रवादियों का उदय(1906-1919)Rise of Extremist-उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक नए दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के आदर्श तथा ढंगों का कड़ा आलोचक था. ये क्रुद्ध तरुण लोग (Angry youngmen) चाहते थे कि कांग्रेस का उद्देश्य स्वराज्य (Swaraj) होना चाहिए, जिसे वे आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता से प्राप्त करें. इस नए दल को पुराने उदारवादियों की तुलता में उग्रवादी कहा जाता है.

 

उग्रवाद और आतंकवाद के उदय के कारण (Causes of the Rise of Extremism & Militants)

 

उदारवादियों के लम्बे प्रयत्नों के बावजूद जब मौलिक रूप में कुछ भी हासिल नहीं हो सका तो ऐसा समझा गया कि सरकार ने उदारवादियों के प्रयासों को कमजोरी के चिन्ह के रूप में स्वीकार किया है. अत: बंकिम चन्द्र चटर्जी, अरविन्द घोष तथा बालगंगाधर तिलक आदि नेताओं ने उदारवादियों की आलोचना करते हुए दृढ़ दबावों के द्वारा अधिकार प्राप्त करने के मार्ग को अपनाने की बात कही. बालगंगाधर तिलक के अनुसार “राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ना ही होगा. नरम दल वालों का विचार है कि ये अधिकार प्रेरणा से प्राप्त किये जा सकते हैं. हमारा विचार है कि उनकी प्राप्ति केवल दृढ़ दबाव से ही हो सकती है.”

उग्रवादियों के विपरीत क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग बमों और बन्दूकों के उपयोग से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे. उग्रवादी जहां शान्तिपूर्ण लेकिन सक्रिय राजनीतिक आन्दोलनों में विश्वास करते थे, वहीं क्रान्तिकारी अंग्रेजों को भारत से भगाने में शक्ति एवं हिंसात्मक उपायों में विश्वास करते थे. इन दोनों के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे . 

 

1. अंग्रेजी साम्राज्य की प्रकृति को ठीक-ठीक समझना (Enlightenment of True Nature of British Rule) 

 

आरम्भिक राष्ट्रवादी नेताओं ने अपने अध्ययन तथा लेखों के माध्यम से लोगों को भारत में अंग्रेजी राज्य के सच्चे स्वरूप को समझाने का प्रयत्न किया. उन्होंने आंकड़ों से यह सिद्ध किया कि अंग्रेजी राज्य तथा उसकी नीतियां ही भारत की दरिद्रता का मूलभूत कारण हैं. दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेजी राज्य की शोषक नीतियों से लोगों को अच्छी तरह परिचित कराकर कहा कि अंग्रेज भारत को लूटने में लगे हुए हैं और भारत की आर्थिक कमजोरी का एकमात्र कारण ये ही हैं. श्री रमेशचन्द्र दत्त और जी. बी. जोशी ने अंग्रेजों की भूमिकर व्यवस्था का सही मूल्यांकन किया तथा श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने इस बात को स्पष्ट किया कि सेवाओं की भर्ती में अंग्रेजों की कथनी और करनी में बहुत अधिक अन्तर है.

कांग्रेस ने शुरू से ही देश की बढ़ती दरिद्रता की ओर ध्यान आकर्षित किया और इससे संबन्धित प्रस्ताव प्रत्येक वर्ष पारित किया जाता था. इसके लिए सैनिक और असैनिक पदों पर नियुक्त यूरोपियनों को मिलने वाले ऊंचे-ऊंचे वेतनों, गृह शासन के तेजी के साथ बढ़ते व्यय, भेद-भाव पूर्ण आयात-निर्यात नीति, अदूरदर्शी भूमि कर नीति, भारत के औद्योगीकरण के प्रति उदासीनता और भारतीयों को अच्छे पदों और सेवाओं से वंचित रखना इत्यादि अनेक कारणों को जिम्मेदार ठहराया.

1892 से 1905 के बीच घटित विभिन्न घटनाओं तथा सरकार के कार्यों ने राष्ट्रवादियों को शासन में मौलिक परिवर्तनों की ओर सोचने के लिए मजबूर किया. 1892 का भारत परिषद् अधिनियम पूर्ण रूप से बाहरी दिखावा था जिससे कुछ भी मूल रूप में हासिल नहीं हुआ. 1899 में कलकत्ता अधिनियम स्वीकृत किया गया जिसके द्वारा कलकत्ता निगम को पूर्ण रूप से सरकारी रूप दे दिया गया. कलकत्ता निगम के कुल सदस्यों की संख्या को 75 को घटाकर 50 कर दिया गया. जो 25 लोग कम किए गए वे कलकत्ता के लोगों के प्रतिनिधि थे. इस व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि निगम में यूरोपीय बहुमत हो गया. 1904 में ‘भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम’ स्वीकृत हुआ. इस कानून से सिण्डीकेट, सीनेट तथा फैकल्टियों के सदस्यों की संख्या इसलिए घटा दी गई ताकि यूरोपियनों को महत्व दिया जा सके. 1904 में ही प्रसिद्ध ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ (Official Secrets Act) स्वीकृत हुआ. इस अधिनियम ने सरकार के अधिकारों में वृद्धि कर दी. “विद्रोह” शब्द की परिभाषा विस्तृत कर दी गई. 1889 तथा 1898 के सरकारी गोपनीयता के अधिनियम केवल फौजी गोपनीयता से सम्बन्धित थे. परन्तु 1904 के अधिनियम द्वारा नागरिक मामलों के उन सरकारी रहस्यों तथा समाचार-पत्रों की आलोचना के सम्बन्ध में भी कार्यवाही की जा सकती थी जो सरकार को सन्देहास्पद लगते थे. 1897 में लोकमान्य तिलक तथा कुछ अन्य समाचार-पत्र सम्पादकों को सरकार ने लोगों में सरकार विरोधी भावनाएं जगाने के आरोप में लम्बे कारावास की सजा दे दी थी. लार्ड कर्जन के भारतीयों के विरुद्ध उठाये गए विभिन्न कदमों तथा ब्रिटिश सरकार के किसी भी कार्य की अनुपयोगिता ने भी राष्ट्रवादियों को मौलिक परिवर्तनों के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया.

सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी ब्रिटिश शासन के अधीन किसी प्रकार के सुधार की सम्भावना नहीं थी. बेसिक और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी किसी प्रकार की उन्नति नहीं हो रही थी. 1904 के भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम के बाद विश्वविद्यालयों में व्यवहारिक रूप में कोई स्वतंत्रता नहीं रह गई थी. जिसे राष्ट्रवादियों ने भी भारतीय विश्वविद्यालयों के ऊपर कठोर नियंत्रण के रूप में देखा.

इस प्रकार लगातार बढ़ते हुए राष्ट्रवादी भारतीयों ने आवश्यक रूप से माना कि आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वृद्धि के लिए स्वशासन आवश्यक और मूल आवश्यकता है.

 

2. बढ़ता हुआ पश्चिमीकरण (Increasing Westernisation)

 

भारतीय राष्ट्रवादियों की इस नई पीढ़ी ने देश में बढ़ते पश्चिमीकरण पर गहरी चिन्ता व्यक्त की. भारतीय जीवन, चिन्तन और राजनीति में पश्चिम का प्रभाव बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा था जो कि भारतीय धर्मों और विचारों के लिए एक खुली चुनौती था. बढ़ते पश्चिमीकरण के कारण धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति का प्रभाव कम हो रहा था. ब्रिटिश शासक भारतीय राष्ट्रीयता की पहचान को पश्चिमी सभ्यता में विलीन करने में लगे हुए थे.

उदारवादियों की बौद्धिक और भावात्मक प्रेरणा का स्रोत भारत था. और उन्होंने भारत के इतिहास में भारतीय वीरों की गाथाओं से प्ररेणा प्राप्त की थी. बंकिम चन्द्र, स्वामी विवेकानन्द तथा स्वामी दयानन्द के लेखों ने उनको प्रभावित किया. स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय वेदान्त से नवयुवकों में आत्म-विश्वास जगाया तथा अपनी प्राचीन परम्पराओं व विरासत में एक नई आस्था उत्पन्न की. स्वामी दयानन्द ने बताया कि वैदिक काल में जब भारत में एक उच्च सभ्यता, संस्कृति तथा धर्म का विकास हो रहा था उस समय यूरोपवासी असभ्यता तथा अज्ञानता से घिरे हुए थे.

 

3. कांग्रेस की उपलब्धियों से असंतोष (Dissatisfaction with the Performance of the Congress)

 

युवावर्ग कांग्रेस की 15-20 वर्ष की अवधि में प्राप्त उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं था. वे शान्तिमय तथा संवैधानिक ढंगों के आलोचक बन गये थे. उनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा बराबरी की भावना पर किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं रह गया था. उन्होंने याचना, प्रार्थना तथा प्रतिवाद आदि उपायों को ‘राजनीतिक शिक्षावृत्ति‘ का नाम देकर उनकी कटु आलोचना की. उन्होंने भारत से यूरोपीय साम्राज्यवाद की समाप्ति के लिए यूरोपीय ढंगों को अपनाने पर बल दिया.

कांग्रेस की नई पीढ़ी जिसे अग्रवादी भी कहा जाता है पुरानी पीढ़ी के किसी भी कार्य से असंतुष्ट थी. उनके अनुसार कांग्रेस का ‘राजनीतिक धर्म’ केवल क्राउन के प्रति राजभक्ति प्रकट करना, राजनीतिक उद्देश्य केवल अपने लिए प्रान्तीय अथवा केन्द्रीय विधान परिषदों में सदस्यता प्राप्त करना और उनके ‘राजनीतिक कार्यक्रम- केवल भाषण देना तथा प्रत्येक वर्ष दिसम्बर में कांग्रेस के अधिवेशन में उपस्थित होना था. उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे केवल मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों के लिए काम करते हैं. और कांग्रेस की सदस्यता इस मध्यमवर्गीय लोगों तक ही सीमित है. उन्हें भय है कि यदि जन-साधारण इन आंदोलन में आ गया तो उनका नेतृत्व समाप्त हो जाएगा. अत: उदारवादियों पर देश-भक्ति के नाम पर व्यापार (Trading in the name of Patriotism) करने का आरोप लगाया.

 

4. अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव (International Influences)

 

विदेशों में घटित विभिन्न घटनाओं ने राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया. मुख्य रूप से भारतीयों के साथ दक्षिण अफ्रीका में हुए दुर्व्यवहार से अंग्रेज विरोधी भावनाएं प्रबल हुई. साथ ही मिस्र, ईरान, तुर्की और रूस के राष्ट्रवादी आंदोलनों ने भी इन्हें महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया.

1868 के बाद आधुनिक जापान के उदय से यह सिद्ध हो गया कि एशियाई राष्ट्र बिना पश्चिमी राष्ट्रों के नियंत्रण या सहयोग के अपना विकास कर सकते हैं. भारतीय राष्ट्रवादी 1896 में इथोपिया की इटली पर विजय तथा 1905 में जापान की रूस पर विजय से अत्यधिक प्रभावित हुए तथा इससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि हुई. अब यह बात साफ हो गई थी कि यूरोप अजेय नहीं है.

 

5. शिक्षा का विकास (Growth of Education)

 

भारत में शिक्षा के विकास से प्रजातंत्र के बारे में पश्चिमी विचारों, राष्ट्रवाद तथा राजनीति के मौलिक सिद्धान्तों ने भारतीयों को अत्यधिक प्रभावित किया. अधिकतर शिक्षित लोग क्रान्तिकारियों तथा आतंकवादियों की नीतियों के समर्थक बन गए. जिनके लिए स्वराज्य का अर्थ था, “विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता जिसमें अपने राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबन्ध में पूर्णतया स्वतंत्रता हो.” देश में उस समय आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास के लिए स्वशासन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी.

 

6. भारत की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति (Poor Economic Condition of India)

 

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों, अर्थात् 1876 से 1900 के मध्य देश में लगभग 18 बार अकाल पड़े थे. जिससे अपार जन-धन की हानि हुई. 1896-97 और 1899-1900 के बीच बम्बई तथा आस-पास के क्षेत्रों में प्लेग की बीमारी से करीब 1 लाख 73 हजार लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा. जबकि सरकार की ओर से किसी भी प्रकार की सहायता करने के बजाय उल्टा भारतीयों के साथ अमानवीय व बर्बरता का व्यवहार किया जाता था. तिलक ने सरकार के व्यवहार की कटु आलोचना की जिस कारण उन्हें 18 महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई. बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि ”प्लेग हमारे लिए सरकारी प्रयत्नों से कम निर्दयी है.”

1902 में दिल्ली दरबार ऐसे समय पर लगाया गया था जबकि लोग भूखों मर रहे थे. सरकार के इस कार्य को अत्यधिक आलोचना की गई तथा लोगों में अत्यधिक रोष व्याप्त हो गया. अंग्रेज सरकार की प्लेग के समय की ज्यादतियों से परेशान होकर चापेकर बन्धुओं ने 1899 में पूना के प्लेग अधिकारी रैण्ड और उसके एक साथी मिस्ट की गोली मारकर हत्या कर दी. इस प्रकार सरकार की गलत नीतियों के कारण भी उग्र-राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन मिला.

 

7. स्वाभिमान का विकास (Growth of Self Respect) 

 

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल जैसे नेताओं ने भारतीय को स्वाभिमानी बनने का पाठ पढ़ाया और कहा कि सभी राष्ट्रवादियों को देश की जनता की शक्ति और क्षमता पर पूरा विश्वास है. उन्होंने लोगों से कहा कि वह अपना भविष्य खुद अपने प्रयत्नों से बनायें. उन्होंने जन आक्रोश का पूरा समर्थन किया. उन्हें संवैधानिक साधनों की सामर्थ्य अथवा इनके प्रयोग पर किसी प्रकार का विश्वास नहीं था.

 

8. बंगाल का विभाजन (The Partition of Bengal)

 

लार्ड कर्जन के शासनकाल 1905 में अंग्रेज सरकार द्वारा बंगाल विभाजन के फैसले के कारण देश-भर में जन-आक्रोश व्याप्त हो गया. कर्जन के हो शासन काल में कुछ और प्रतिक्रियावादी कार्यों, जैसे- कलकत्ता कारपोरेशन अधिनियम एवं विश्वविद्यालय अधिनियम आदि ने भी उग्रवादी कार्यों को प्रोत्साहन देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. संभवत: कर्जन का बंगाल विभाजन का फैसला हिन्दू-मुस्लिमों में परस्पर फूट डालकर शासन करने की नीति का ही एक अंग था. जिससे स्पष्ट हो गया कि प्रार्थना, याचना तथा सिर्फ प्रतिरोध प्रकट करने से कुछ नहीं होने वाला है.

 

उग्रवादियों के उद्देश्य और ढंग (Objectives and Methods of Extremists)

 

1906 के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस के भीतर उग्रवादी दल के उदय के साथ-साथ देश में क्रान्तिकारी तथा आतंकवादी दल का भी उद्य हुआ. चार प्रमुख कांग्रेसी नेताओं– बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल एवं अरविन्द घोष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा इनके कार्यों का मार्गदर्शन किया. तिलक ने कहा, “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा.”(Swaraj is my birthright and I shall have it). राष्ट्रवादियों या आतंकवादियों ने स्वराज्य को अपना प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य बनाया तथा इनके लिए स्वराज्य का अर्थ “विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता था जिसमें अपने राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबन्ध में पूर्णतया स्वतंत्रता हो.’

उदारवादियों के लिए स्वराज्य का अर्ध साम्राज्य के अन्दर औपनिवेशिक स्वशासन था. दोनों दलों के मार्ग और दुग बिल्कुल अलग-अलग थे. उग्रवादी और आतंकवादियों ने उदारवादियों की तरह संवैधानिक दायरे के अन्दर अपनी मागें मनवाने में विश्वास नहीं जताया. उन्हें अपने अधिकारों के लिए याचना करने या गिड़गिड़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. ये लोग हिंसात्मक प्रतिरोध (Active resistance), सामूहिक आंदोलन तथा आत्म-बलिदान के लिए दृढ़ निश्चय में विश्वास रखते थे. उन्होंने अपने भड़काऊ भाषणों से स्वतंत्रता के लिए तीव्र लालसा तथा आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत रहने की भावना उत्पन्न करने का प्रयास किया. उन्होने विदेशी माल के बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा के महत्व पर बल दिया.

उन्हें जनता पर बहुत अधिक विश्वास था तथा उन्होंने जन-शक्ति तथा समूहिक प्रयासों से स्वराज्य प्राप्त करने का फैसला किया. इसलिए उन्होंने राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए जन समूह के माध्य से कार्य किए.

उग्रवादियों ने विदेशी माल का बहिष्कार और स्वदेशी माल अंगीकार करने तथा राष्ट्रीयता और सत्याग्रह पर भी विशेष बल दिया. विदेशी माल का बहिष्कार बाद में एक शक्तिशाली हथियार के रूप में सामने आया. क्योंकि इसके माध्यम से लोगों से समर्थन प्राप्त करना अधिक सरल था. सरकार नियंत्रित शिक्षा संस्थाओं के स्थान पर एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना बनाई गई. उग्रवादी दल की योजना विद्यार्थियों को देश सेवा में लगाने की थी. उग्रवादियों ने सहकारी संगठन को बढ़ावा दिया तथा स्वयंसेवी सभाएं स्थापित की गईं. दिवानी मामलों तथा अहस्तकक्षेप्य (non-cognizable) झगड़ों को सुलझाने के लिए पंचनिणर्य समितियाँ बनाई गई.

 

उग्रवाद का मूल्यांकन (Analysis of Extremisms)

 

यद्यपि राष्ट्रीय आंदोलन में उग्रवाद की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही थी परन्तु इसको एक सुसंगठित राजनीतिक दर्शन नहीं कहा जा सकता है. इस धारा से जुड़े हुए लोग विभिन विचारों तथा विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग तरीकों के समर्थक थे. इसके समर्थक एक ओर जहां सक्रिय क्रान्तिकारिता में भागीदारी कर रहे थे वहीं कुछ गुप्त समर्थक तथा कुछ आतंकवाद के विरुद्ध भी थे. यहां तक कि इसके शीर्ष के प्रमुख नेताओं अरविन्द, तिलक, पाल और लाजपत राय सभी अपने राजनीतिक आदशों तथा कार्य-प्रणाली में विभिन्नता लिए हुए थे तथा इनके विचार भी समयानुसार बदलते रहे. उग्रवादी नेता प्रजातंत्र संविधान और प्रगति की बात करते थे तथा राष्ट्रीय आंदोलन के सामाजिक आधार को विस्तृत करना चाहते थे. उग्रवादियों ने अनुभव किया कि अंग्रेजों का भारत छोड़ना किसी-न-किसी प्रकार की प्रत्यक्ष क्रिया और दबाव के बिना सम्भव नहीं. इसीलिए सहयोग के स्थान पर असहयोग और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध की नीति को आधार बनाया गया. साथ ही इन लोगों ने जनता को असहयोग, अहिंसात्मक प्रतिरोध, सामूहिक आंदोलन, आत्मनिर्भरता और दुःख सहने” का नया पाठ पढ़ाया.

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