Friday, May 24, 2019

भारतीय संविधान- स्रोत एवं विशेषताएँ (Indian Constitution- Sources & Features)

भारतीय संविधान- स्रोत एवं विशेषताएँ (Indian Constitution- Sources and Features)

भारतीय संविधान- स्रोत एवं विशेषताएँ (Indian Constitution- Sources and Features)

  • डॉ राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में हमारे भारतीय संविधान-निर्माताओं ने विश्व के सर्वोत्तम संविधानों का गहन अध्ययन किया और देश की तत्कालीन आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार उनके महत्त्वपूर्ण उपबन्धों को ग्रहण किया.
  • इसके साथ ही अपने देश की प्राचीन प्रथाओं एवं अभिसमय (Customs and Conventions), पुराने संवैधानिक अधिनियमों, अध्यादेश (Old Constitutional Acts and Ordinances) इत्यादि को ध्यान में रखते हुए कि ऐसे संविधान का निर्माण किया जो कि भारत की तत्कालीन ही नहीं भविष्य की असाधारण परिस्थितियों में भी भली-भांति कार्य कर सके.

संविधान के मुख्य स्रोत (Main Sources of Indian Constitution)

भारतीय शासन अधिनियम 1985, (Government of India Act, 1935)

  • यद्यपि 1858, 1892, 1909, 1919 के संवैधानिक अधिनियम भारतीय संविधान के प्रेरणा स्रोत रहे किन्तु 1935 के भारत शासन अधिनियम का भारतीय संविधान पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा.
  • इसमें करीब दो-तिहाई प्रावधान 1935 के अधिनियम से लिये गए हैं.
  • उदारणार्थ, नए संविधान की 256वीं धारा और 1935 के एक्ट की 126वीं धारा लगभग समान हैं.
  • इनके तहत केन्द्र, राज्यों को उचित निर्देश देने का अधिकार रखता है या नए संविधान की 352 व 356वीं धारा, जिनका संबंध राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों से है.
  • 1935 के अधिनियम की धारा 103 से मिलती-जुलती है या शक्ति-विभाजन की तीन सूचियाँ (संघ, प्रांतीय, समवर्ती) के प्रावधान भी लगभग समान हैं या केन्द्र अथवा राज्य स्तर पर विधान मंडल का द्विसदनीय होना, संबंधी प्रावधान 1919 के अधिनियम से मिलते-जुलते हैं.

विश्व के प्रमुख संविधानों का प्रभाव (Borrowing from the Constitutions of Other Countries)

  • सर्वप्रथम ब्रिटिश संविधान ने हमारे संवैधानिक कलेवर का निर्माण किया और हमने ब्रिटिश आदर्श की संसदीय शासन प्रणाली (British Model of Parliamentary System of Government) अपनायी और मंत्रिमंडल को सामूहिक रूप से “लोक सभा” (House of the people) के प्रति जवाबदेह बनाया.
  • राष्ट्रपति को ब्रिटिश सम्राट की भांति औपचारिक प्रधान बनाया गया.
  • संसदीय परिपाटी एवं प्रक्रिया भी ब्रिटिश संसद के समान भारतीय संसद को प्राप्त है.
  • यही बात संसदीय विशेषाधिकारों (Parliamentary Privileges) के सम्बन्ध में लागू है.
  • संघात्मक शासन व्यवस्था (Federal System), मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), स्वतंत्र और निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय एवं न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Independence of Judiciary and Judicia! Review) का सिद्धांत निसन्देह अमेरिकी संवैधानिक आदर्श पर आधारित है.
  • नए स्वतंत्र भारतीय लोकतंत्र को ‘‘गणतंत्र’ (Republic) फ्रांसीसी संविधान की तर्ज पर बनाया गया है.
  • संघ और राज्यों के मध्य शक्ति-विभाजन (Distribution of Powers Between the Union and the State) की प्रेरणा कनाडा के संविधान से ली गई है.
  • किन्तु समवर्ती सूची (Concurrentist) का प्रावधान आस्ट्रेलिया के संविधान से लिया गया है.
  • राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy) आयरलैंड के संविधान से प्राप्त हुए हैं.
  • जर्मनी के संविधान (वाइमर संविधान , 1933) से आपात-उपलब्ध (अनुच्छेद 352, 356, 360) प्राप्त हुआ हैं.
  • भूतपूर्व सोवियत संघ के संविधान से मूल कर्त्तव्य (भाग-चार, अनुच्छेद 51-क) प्राप्त हुए हैं.

प्रथाएं एवं अभिसमय (Customs and Conventions)

  • लिखित संविधान के बावजूद हमारे देश में अनेक परम्पराएं विकसित हो गयी हैं–जैसे, यद्यपि कार्यापालिका का प्रधान राष्ट्रपति है, किंतु वह अपनी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श से करता है.
  • राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर सकता है किंतु प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करेगा किंतु लोकसभा में बहुमत दल के नेता को .
  • अंत में कहा जा सकता है कि हमारी संसदीय शासन-प्रणाली का विकास पूर्ण रूप से प्रथागत ही हुआ है.

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं (Main Features of the Constitution)

लोकप्रिय प्रभुसत्ता (Popular Sovereignty)

  • संविधान भारतीय जनता द्वारा निर्मित है जिसके द्वारा अंतिम शक्ति जनता को ही प्रदान की गई है.
  • अर्थात् प्रभुसत्ता जनता में निहित है किसी व्यक्ति विशेष में नहीं.

लिखित और विस्तृत संविधान (Written and Comprehensive Constitution)

  • हमारा संविधान ब्रिटिश संविधान के विपरीत अमेरिकी संविधान की भांति निर्मित और लिखित है.
  • आइबर जैनिंग्ज (Ivor Jennings) ने भारतीय संविधान को विश्व का सर्वाधिक विस्तृत संविधान कहा है.
  • हमारे मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 8 अनुसूचियाँ (Schedules) और 4 परिशिष्ट (Appendices) थे. वर्तमान में यह संख्या 448 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियों तक पहुंच गई है. जबकि अमेरिका के संविधान में केवल 7, कनाडा में 147, और आस्ट्रेलिया में केवल 128 अनुच्छेद हैं.

सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न,लोकतंत्रात्मक राज्य और गणराज्य

सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न (Sovereign State)

  • अर्थात् आंतरिक या बाहरी दृष्टि से भारत किसी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है.
  • किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि या समझौते को स्वीकार करने या न करने के लिए भारत बाध्य नहीं है.

लोकतंत्रात्मक राज्य (Democratic State)

  • अर्थात् सत्ता भारत की जनता में निहित है जो कि अपनी प्रभुता का प्रयोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से करेगी.
  • ये प्रतिनिधि जनता के स्वामी न होकर सेवक होंगे.

गणराज्य (Republic)

  • अर्थात् भारतीय राज्य का सर्वोच्च प्राधिकारी (राष्ट्रपति) वंशक्रमानुगत न होकर भारतीय जनता द्वारा अप्रत्यक्ष (Indirectly) रूप से निर्वाचित (Elected) राष्ट्रपति (President) है .

समाजवादी राज्य (Socialist State)

  • संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की ‘प्रस्तावना’ (Preamble) में समाजवादी शब्द जोड़ा गया.
  • हमने ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था‘ (Mixed Ec0nority) को अपनाकर भारतीय समाजवाद को शेष परिचित समाजवाद से भिन्न घोषित किया .

धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State)

  • अर्थात राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं और राज्य के द्वारा विभिन्न धर्मावलम्बियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

कठोर एवं लचीला संविधान (Rigid and Flexible Constitution)

  • भारतीय संविधान न तो परम्पराओं से निर्मित ब्रिटिश संविधान की भांति लचीला है और न ही अमेरिकी संविधान की भांति अत्यधिक कठोर.
  • अनुच्छेद 368 के तहत कुछ विषयों में संशोधन करने के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साथ प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत के अतिरिक्त न्यूनतम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का अनुसमर्थन भी आवश्यक है.
  • जैसे, राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, संघ और इकाइयों के बीच शक्ति-विभाजन, राज्यों के संसद में प्रतिनिधि आदि.
  • यह प्रक्रिया अत्यन्त कठोर है. जबकि कुछ विषय ऐसे हैं जिनमें संसद के साधारण बहुमत से ही संशोधन हो जाता है जैसे-नवीन राज्यों का निर्माण, वर्तमान राज्यों के पुनर्गठन और भारतीय नागरिकता के अर्थ परिवर्तन इत्यादि कार्य संसद अपने साधारण बहुमत से कर सकती है.

संघात्मक शासन व्यवस्था (Federal system)

  • संविधान ने भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था स्थापित की है जिसके तहत केन्द्र और राज्यों की कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका का अपना-अपना कार्यक्षेत्र है.
  • केन्द्र और राज्यों के मध्य संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के तहत स्पष्ट रूप से शक्ति विभाजन किया गया है.
  • हमारे संविधान का यह अनूठा लक्षण है कि यह आपातकाल में संघात्मक व्यवस्था को एकात्मक स्वरूप प्रदान करता है.
  • इसके अलावा इकहरी नागरिकता, एवं एकल न्यायपालिका, राज्यपालों की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं, संसद द्वारा राज्यों के नाम, क्षेत्र तथा सीमाओं में परिवर्तन, एकल संविधान इत्यादि भी संविधान के एकात्मक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं.

संसदीय शासन एवं मंत्रिमण्डलीय सरकार (Parliamentary Systern and Cabinet Government)

  • अध्यक्षीय शासन प्रणाली (Presidential form of Government) के स्थान पर हमने संसदीय शासन का ब्रिटिश प्रतिमान (British Model of Parliamentary Democracy) अपनाया है जिसमें कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर रह सकती है जब तक कि उसे विधायिका का विश्वास प्राप्त रहता है.
  • राष्ट्रपति नाम-मात्र का कार्यपालिका-प्रमुख होता है और वास्तविक शयितयाँ मंत्रिमंडल के पास होती हैं जो कि सामूहिक रूप से विधायिका (लोक सभा (House of the People)) के प्रति निरन्तर अपना उत्तरदायित्व निभाता है.
  • यह मंत्रिमण्लीय सरकार का प्रमुख लक्षण है.

मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)  

  • मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का आशय नागरिकों को प्रदत्त ऐसे अधिकार और स्वतंत्रताओं से है, जिन्हें राज्य तथा केन्द्र सरकार के विरुद्ध भी लागू किया जा सकता है.
  • संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 32 तक इन अधिकारों का वर्णन है.
  • ये कुल छह अधिकार हैं. अनुच्छेद 31 के तहत प्राप्त सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को 1978 में संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम की धार 6 द्वारा समाप्त कर दिया गया है.
  • ये अधिकार लोकतंत्र के आधारस्तम्भ हैं.
  • अतः इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए छठे मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 39) के रूप में न्यायपालिका की सुरक्षा प्रदान की गई है.
  • न्यायालय इनकी सुरक्षा में उपचार स्वरूप निम्न लेख (Writ) जारी कर सकता है.
  1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus),
  2. परमादेश (Mandamus),
  3. प्रतिषेद्य (Prohibition),
  4. उत्प्रेषण लेख (Certiorari),
  5. अधिकार-पृच्छा (Qu0-Warrailto)
  • इन अधिकारों का उल्लंघन करने वाला प्रत्येक कानून और आदेश उल्लंघन की सीमा तक अवैध होगा.
  • कुछ विशेष परिस्थितियों जैसे – राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंडता या कल्याण के हित में इन अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाया जा सकता है.
  • तथापि इन प्रतिबंधों का न्यायालय की दृष्टि में युक्ति-युक्त होना भी आवश्यक है.

मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)

  • 1976 में सविधान के 42वें संशोधन द्वारा भूल संविधान में एक नया भाग “चौथा अ” और “अनुच्छेद 51-क” (Part IV A and Article 51-A) जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस मूल कर्त्तव्य बताए गए हैं.

नीति निदेशक तत्व (Directive Principles)

  • संविधान के भाग चार में शासन संचालन के लिए अनुच्छेद 36 से 51 तक कुछ निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है.
  • अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि –

“नीति निदेशक तत्वों को किसी न्यायालय द्वारा बाध्यता न दी जा सकेगी, तो भी ये तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं.”

संसदीय प्रभुता एवं न्यायिक सर्वांच्या में समन्वय (Coordination between Parliamentary Sovereignty and Judicial Supremacy)

  • संविधान ने जहां एक ओर न्यायालय को संविधान की अंतिम व्याख्या करने एवं संविधान का उल्लंघन करने वाले कानूनों एवं आदेशों को अवैध घोषित करने की शक्ति [ जिसे न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) कहते हैं.]
  • न्यायालय को देकर, न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित की है वहीं दूसरी और संसद को यह अधिकार देकर कि वह न्यायालय की शक्तियों को आवश्यकतानुसार सीमित कर दे, संसदीय सर्वोच्चता को भी स्थापित किया है.
  • अतः संविधान संसदीय प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है.

वयस्क मताधिकार (Adult Franchise)

  • भारत का प्रत्येक वह नागरिक जो 18 वर्ष (मूल संविधान में 21 वर्ष) की आयु पूरी कर चुका है लोकसभा व विधान सभा और पंचायत के चुनावों में वोट देने का अधिकारी होगा.
  • राज्य उसके साथ इस सम्बन्ध में धर्म, जाति, वंश, रंग, लिंग, आर्थिक स्थिति, शैक्षिक योग्यता, निवास स्थान इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा .
  • इसे “सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार” (Universal Adult Franchise) कहा गया है.

देशी रियासतों का विलय (Integration of Indian States)

  • 1935 के भारत शासन अधिनियम से जो समस्या हल न हो सकी.
  • और जिसके कारण परिसंघ की पूरी योजना ही असफल हो गयी उस समस्या को (अर्थात् 552 देशी रियासतों के भारत में विलय की समस्या) हमारे संविधान निर्माताओं ने हल कर दिया जिससे पूरा भारत एक हो गया और भारत संघ के रूप में सामने आया.
  • भारतीय संविधान की यह अनन्य विशेषता विश्व के इतिहास में अभूतपूर्व है.

 

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Wednesday, May 22, 2019

संविधान का दर्शन  (The Philosophy of the Constitution) प्रस्तावना (Preamble)

संविधान का दर्शन  (The Philosophy of the Constitution) प्रस्तावना (Preamble)

संविधान का दर्शन  The Philosophy of the Constitution प्रस्तावना Preamble

  • संविधान के दर्शन से अभिप्राय उन आदर्शो से है जिससे भारतीय संविधान अभिप्रेरित हुआ और उन नीतियों से है जिन पर हमारा संविधान और शासन प्रणाली आधारित है.
  • हमारे संविधान का दार्शनिक आधार पंडित जवाहरलाल नेहरू का वह ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ (Objective Resolution) है जिसे उन्होंने 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान निर्मात्री सभा में प्रस्तुत किया था.
  • उक्त प्रस्ताव में जिन आदर्शों को प्रस्तुत किया गया वे ही आदर्श हमारे वर्तमान संविधान में प्रमुख स्थान लिए हुए हैं जो मुख्यतः निम्नलिखित हैं :-

(01) स्वतंत्र और प्रभुता संपन्न (Indeperident and Sovereign)

  • भारत का संविधान ब्रिटिश संसद की देन नहीं है बल्कि भारत के लोगों ने एक प्रभुत्व सम्पन्न संविधान सभा में समवेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसे स्वीकार किया है.

(02) गणराज्य (Republic)

  • पाकिस्तान 1956 तक ब्रिटिश डोमिनियन बना रहा किन्तु भारत ने 1949 में ही अपने संविधान की रचना के बाद से अपने आपको गणराज्य घोषित किया.
  • जिसका अर्थ है भारत का राष्ट्र-प्रमुख जनता द्वारा निर्वाचित है.
  • उसे किसी वंश परम्परा के कारण पद प्राप्त नहीं है.

(03) प्रभुत्व संपन्नता राष्ट्रकुल की सदस्यता से संगत (Sovereignty is consistent with Membership of the Commonwealth)

  • आयरलैंड ने रिपब्लिक ऑफ आयरलैंड एक्ट, 1948 (Republic of Ireland Act, 1948) बनाकर ब्रिटिश राष्ट्र-कुल से अपने सम्बन्ध समाप्त कर लिए थे .
  • किंतु भारत ने अपने आप को गणराज्य घोषित करने के बावजूद राष्ट्रकुल में बने रहने का विनिश्चय किया जिसके कारण राष्ट्रकुल की संकल्पना ही बदल गयी .
  • क्योंकि भारत ने ब्रिटिशांसम्राट के प्रति निष्ठा रखना स्वीकार नहीं किया, अतः ब्रिटिश राष्ट्रकुल जो कि साम्राज्यवाद (Imperialism) का प्रतीक था, अब स्वाधीन राष्ट्रों का एक स्वतंत्र संघ हो गया .

(04) लोकतंत्र (Democracy)

  • प्रस्तावना में “लोकतंत्रात्मक गणराज्य” (Democratic Republic) का तात्पर्य यह है कि न केवल शासन में लोकतंत्र होगा बल्कि समाज भी लोकतंत्रात्मक होगा जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता’ की भावना होगी.

(05) प्रतिनिधिक लोकतंत्र (A Representative Democracy)

  • शासन में लोकतंत्र का रूप प्रतिनिधिक है.
  • हमारे संविधान में ‘जनमत संग्रह‘ या पहल (Referendum or initiative) जैसे जनता द्वारा प्रत्यक्ष नियंत्रण के अभिकरण नहीं हैं.
  • भारत के लोग अपनी प्रभुता का प्रयोग केंद्र में संसद और राज्यों में विधान-मंडल में अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से करते हैं.
  • कार्यपालिका अथवा मंत्रिपरिषद् इन्हीं के प्रति उत्तरदायी होती है.
  • संघ के अध्यक्ष के रूप में एक निर्वाचित राष्ट्रपति होता है और प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होता है जो कि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होता है.
  • संविधान सभी वयस्क नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने के विषय में समानता प्रदान करता है.

(06) जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन (Government of the People, for the People, by the People)

  • प्रस्तावना में जिस राजनीतिक न्याय की घोषणा की गई है उसे सुनिश्चित करने के लिए भारत के राज्यक्षेत्र में प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी आर्थिक, शैक्षिक अथवा सामाजिक भेदभाव के मताधिकार दिया गया है.
  • अर्थात् प्रत्येक पांच वर्ष में संघ और प्रत्येक राज्य के विधानमंडल के सदस्य समस्त वयस्क जनता के मत से निर्वाचित होंगे और इस निर्वाचन का सिद्धांत होगा एक व्यक्ति एक मत‘ (One man, one vote).

(07) लोकतांत्रिक समाज (A Democratic Society)

  • संविधान में जिस लोकतंत्र को दृष्टि में रखा गया वह राजनीतिक लोकतंत्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में भी प्राप्त है.
  • क्योंकि वोट का उस व्यक्ति के लिए कोई महत्व नहीं होता जो निर्धन और निर्बल है.

(08) आर्थिक न्याय (Economic Justice)

  • संविधान के भाग चार में वर्णित निर्देशक तत्वों के अनुसार राज्य का उद्देश्य किसी से धन छीनकर निर्धनता का उन्मूलन करना नहीं है बल्कि राष्ट्रीय धन और संसाधनों में वृद्धि कर के समस्त लोगों में उनका समानतापूर्वक उचित वितरण करना है.
  • यही आर्थिक न्याय है .

(09) स्वतंत्रता (Liberty)

  • संविधान द्वारा समाज में स्वतंत्र और सभ्य जीवन के लिए आवश्यक ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता’ (Freedom of thought, expression, belief, faith and worship) का संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 19, 25-28 के अन्र्तगत व्यवस्था की गई है.

(10) समानता (Equality)

  • समता से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिये .
  • इस उद्देश्य की पूर्ति संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक नागरिकों को दिए गए समानता के मूल अधिकार द्वारा की गई है.
  • इसके अतिरिक्त राजनीतिक समानता के लिए अनुच्छेद 326 के तहत सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है.
  • आर्थिक क्षेत्र में अनुच्छेद 39 के खंड (क) और खंड (ख) के तहत स्त्रियों और पुरुषों को काम करने का और समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार को सुनिश्चित किया गया है.

(11) समाजवादी राज्य (The Socialist State)

  • संविधान का उद्देश्य कल्याणकारी‘ (Welfare State) और समाजवादी राज्य (Socialist State) की स्थापना करना है.
  • 1976 में संविधान के बयालीसवें संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ा गया.
  • किन्तु भारत का समाजवाद धन के सभी साधनों का राष्ट्रीय-करण करके निजी सम्पत्ति को समाप्त करने वाला समाजवाद नहीं है.
  • अतः यहां मिश्रित अर्थव्यवस्था” (Mixed Economy) को स्थापित किया गया.
  • 1978 में किये गए संविधान के 44 वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 31 का निरसन (Repealing) करके राज्य द्वारा सम्पत्ति के अर्जन पर निजी स्वामियों को प्रतिकर संदाय (Payment of compensation) करने की संवैधानिक बाध्यता समाप्त कर दी गई.

(12) एकता एव अखंडता (Unity and Integrity)

  • राष्ट्र की एकता के आदर्श को 1976 के 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना (Preamble) में एकता और अखंडता शब्दों को जोड़कर बल प्रदान किया गया.

(13) बंधुत्व (Fraternity)

  • हमारे देश में अनेक मूलवंश, धर्म, भाषा और संस्कृति को मानने वाले लोग रहते हैं जिनमें एकता और बन्धुत्व की भावना स्थापित करने के लिए संविधान में पंथ-निरपेक्ष राज्य का आदर्श रखा गया है अर्थात राज्य का कोई धर्म नहीं है उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान हैं.

(14) व्यक्ति की गरिमा (Dignity of the Individual)

  • यद्यपि संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को समान रूप से मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्राप्त हैं
  • और इनकी सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की शरण ली जा सकती है तथापि यदि व्यक्ति को अभाव और दुःख से छुटकारा न मिले तो उसके लिए इन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है.
  • अतः संविधान के भाग चार में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह अपनी कल्याणकारी नीतियों का संचालन इस प्रकार करे कि प्रत्येक स्त्री और पुरुष को जीविका के पर्याप्त साधन समान रूप से प्राप्त हो .
  • (अनुच्छेद 39) “काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाएँ. हों” (Just and hurnane conditions of work)
  • (अनुच्छेद 42) तथा अनुच्छेद 43 के तहत “शिष्ट जीवनस्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त हों .” (A decent standard of life and full enjoyment of leisure and social and cultural opportunities)

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Tuesday, May 21, 2019

संविधान का निर्माण- संविधान सभा (The Making of the Constitution- Constituent Assembly)

संविधान का निर्माण– संविधान सभा (The Making of the Constitution- Constituent Assembly)

संविधान का निर्माण- संविधान सभा The Making of the Constitution- Constituent Assembly

  • मुख्यतः 1935 के भारत शासन अधिनियम के बाद से भारत में इस मांग ने जोर पकड़ा कि भारतवासी बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के अपना संविधान बनाना चाहते हैं.
  • 1938 में पं. नेहरू ने संविधान सभा की मांग को और अधिक स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त किया और द्वितीय महायुद्ध की विषम परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश सरकार को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि भारत की संवैधानिक समस्या का हल निकालना अति आवश्यक है.
  • फलतः मार्च, 1942 को सर स्टेफर्ड क्रिप्स को ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावों के साथ भारत भेजा गया.
  • मुख्य प्रस्ताव इस प्रकार थे :-
  1. भारतीय संविधान की रचना भारत के लोगों द्वारा निर्वाचित संविधान सभा करेगा.
  2. संविधान भारत के डोमिनियन स्तर (Dominion Status) और ब्रिटिश राष्ट्रकुल में (British Commonwealth) बराबर की भागीदारी देगा.
  3. सभी प्रांतों और देशी रियासतों से मिलकर एक संघ बनेगा किंतु यदि कोई प्रांत या देशी रियासत संघ में सम्मिलित न होना चाहे तो वह अपनी पृथक सांविधानिक स्थिति बनाए रखने के लिए स्वतंत्र होगी.
  • किंतु कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल इन प्रस्तावों से सहमत न हो सके.
  • मुस्लिम लीग ने स्वतंत्र पाकिस्तान और पृथक संविधान सभा की मांग को लेकर इन प्रस्तावों का विरोध किया.

कैबिनेट मिशन (Cabinet Mission)

  • 16 मई, 1946 को ब्रिटिश मंत्रिमंडलीय प्रतिनिधिमण्डल ने पृथक संविधान सभा और पृथक मुस्लिम राज्य के प्रस्तावों को स्पष्टतः नामंज़ूर करते हुए भारत को संघ बनाने और मुस्लिम लीग के दावे के पीछे जो सिद्धांत था उसे अधिकांशतः स्वीकार करते हुए निम्न प्रस्तावों की घोषणा की :-
  1. भारत एक संघ होगा जो ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों से मिलकर बनेगा. जिसके विदेश कार्य, प्रतिरक्षा और सूचना आदि राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर अधिकारिता होगी, शेष शक्तियाँ प्रांतों में निहित होगी.
  2. संघ के एक कार्यपालिका और एक विधान-मंडल होगा जो कान्तो और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगा. किंतु विधानमंडल में जब कोई प्रमुख साम्प्रदायिक प्रश्न उठेगा तो उसका विनिश्चय दोनों प्रमुख समुदायों के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा .
  3. भारत पर ब्रिटिश सरकार की प्रभुत्व-संपन्नता को समाप्त कर देना चाहिए.
  4. देशी रियासतों को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए, कि वे संघ में अपने आपको सम्मिलित करें या नहीं.
  5. भारत के शासन को संचालित करने के लिए एक अंतरिम सरकार होगी.
  6. भारत की एक संविधान सभा होगी जो भारत के संविधान का निर्माण करेगी.
  7. संविधान सभा के गठन के संबंध में यह उप-बंध किया गया कि — (a) सभा में प्रांतों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान दिए जाएगें और दस लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि होगा. (b) प्रांतों को दिए गए स्थानों को सम्बन्धित प्रान्त की प्रमुख जातियों के अनुपात में बांटा जाएगा. (c) देशी रियासतों के प्रतिनिधि भी संविधान सभा में शामिल होंगे और दस लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि होगा .

अंतरिम सरकार (Interim Government)

  • कैबिनेट मिशन योजना को क्रियान्वित करते हुए लॉर्ड वेवेल ने कांग्रेस के कालीन अध्यक्ष पंडित जवाहर लाल नेहरू को अंतरिम सरकार के गठन हेतु निमंत्रण दिया.
  • श्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सितम्बर, 1946 को पदभार ग्रहण किया.
  • यह अंतरिम सरकार भारत विभाजन अर्थात अगस्त, 1947 तक पदारूढ़ रही .
  • कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता करवाने की इस ब्रिटिश योजना का भी कोई सकारात्मक परिणाम न निकला और अन्ततः 9 दिसम्बर, 1946 को पहले-पहल ब्रिटिश सरकार ने यह स्वीकार किया कि दो राज्य और दो संविधान सभाएँ बन सकती है.
  • परिणामतः इसी दिन संविधान सभा की पहली बैठक हुई जिसमें मुस्लिम लीग ने भाग नहीं लिया .

 

  • अब लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन को भारत का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा गया ताकि विभाजन की औपचारिकताएं पूरी की जा सकें.
  • लॉर्ड माउंटबेटन ने कांग्रेस और लीग में यह स्पष्ट समझौता करवाया कि पंजाब और बंगाल के समस्या वाले प्रांतों का विभाजन करवाया जाएगा और इन प्रांतों में हिन्दू और मुसलमान बहुमत वाले खंड बनाए जाएंगे.
  • इन दोनों प्रांतों के विभाजन का वास्तविक निर्णय इन प्रांतों की विधान सभाओं पर छोड़ दिया गया.
  • यह “माउंटबेटन योजना” (Mountbatten plan) थी जिसे 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने अपनी औपचारिक स्वीकृति प्रदान की.

 

  • पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और सिलहट में प्रस्तावित जनमतसंग्रह का परिणाम भी पाकिस्तान के पक्ष में गया.
  • 26 जुलाई, 1947 को गवर्नर-जनरल ने पाकिस्तान के लिए पृथक संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की.
  • अंततः 1947 के भारत स्वतंत्रता अधिनियम के तहत भारत डोमिनियन को सिंध, बलूचिस्तान, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और असम के सिलहट जिले को छोड़कर भारत का शेष राज्य-क्षेत्र मिल गया .

भारत की संविधान सभा (Constituent Assembly of india)

  • अविभाजित भारत के लिए निर्वाचित की गई और 9 दिसम्बर, 1946 को पहली बार समवेत (First sitting) हुई संविधान सभा ही भारत डोमिनियन की प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा के रूप में 14 अगस्त 1947 को पुनः समवेत (Reassemble) हुई.

संविधान सभा का सभापति (The Chairman of Constituent Assembly)

  • 7 दिसम्बर, 1946 को प्रथम बार समवेत हुई संविधान सभा ने श्री सच्चिदानंद सिन्हा को अपना अस्थायी सभापति निर्वाचित किया था लेकिन सभा के सदस्यों द्वारा 11 दिसम्बर, 1946 को डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा के स्थायी सभापति के रूप में विधिवत् निर्वाचित किया गया .
  • यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि यह संविधान सभा कैबिनेट प्रतिनिधिमण्डल के सुझावानुसार प्रांतीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन से निर्वाचित हुई थी.
  • इस निर्वाचन में :-
  1. प्रत्येक प्रांत और प्रत्येक देशी रियासत या रियासतों के समूह को अपनी जनसंख्या के अनुपात से स्थानों का आवंटन किया गया था. स्थूल रूप से 10 लाख के लिए एक स्थान का अनुपात था. अतः प्रांतों को 292 और रियासतों को 93 स्थान दिये गए.
  2. प्रत्येक प्रांत के स्थानों को तीन प्रमुख समुदायों (मुस्लिम, सिख, साधारण) में जनसंख्या के अनुपात में बाँटा गया .
  3. प्रान्तीय विधान सभा के सदस्यों ने “एकल संक्रमणीय मत से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार” ( Proportional representation with single transferable vote) अपने प्रतिनिधि का निर्वाचन किया.
  4. देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चयन की पद्धति परामर्श से तय की जानी थी.

 

  • विभाजन के परिणामस्वरूप पाकिस्तानी भू-भाग के प्रतिनिधि, सभा के सदस्य नहीं रहे.
  • पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब में पुनः चुनाव करवाए गए.
  • इस प्रकार अंततः 26 नवम्बर 1949 को 284 सदस्य वास्तव में उपस्थित थे.
  • जिन्होंने अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किये .
  • प्रस्तावित संविधान के प्रमुख सिद्धांतों की रूपरेखा सभा की विभिन्न समितियों ने तैयार की जिनमें सबसे महत्वपूर्ण समिति प्रारूप समिति (Drafting Committee) की स्थापना 29 अगस्त, 1947 को हुई. इसके अध्यक्ष डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर थे.
  • 26 नवंबर, 1949 को संविधान पर सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के हस्ताक्षर हुए और उसे पारित घोषित किया गया .
  • नागरिकता, निर्वाचन और अन्तरिम संसद से सम्बन्धित उपबन्धों को तथा अस्थायी और संक्रमणकारी उपबन्धों को उक्त दिनांक से ही प्रभावी घोषित किया गया.
  • शेष संविधान, 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ.

 

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भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अधिनियम (Historical Background of Constitution)

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रेगुलेटिंग अधिनियम (Historical Background of the Indian Constitution in hindi)

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रेगुलेटिंग अधिनियम (Historical Background of the Indian Constitution)

  • 26 नवम्बर, 1949 को अंतिम रूप से पारित “भारतीय संविधान” से अभिन्न रूप से जुड़े हुए अनेक ऐसे ऐतिहासिक अधिनियम और चार्टर हैं जिन्हे समय-समय पर ब्रिटिश संसद ने पारित किया और जो भारतीय संविधान के आधार स्तम्भ कहे जाते हैं.
  • संवैधानिक विकास की दिशा में पहला महत्वपूर्ण चरण 1773 का रेगुलेटिंग अधिनियम (Regulating Act, 1773) है.
  • यह अधिनियम भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अकार्यकुशल और अनियंत्रित शासन को नियंत्रित करने की दिशा में भी पहला महत्वपूर्ण कदम था.
  • अधिनियम की प्रमुख धाराएं इस प्रकार हैं-
  1. ईस्ट इंडिया कम्पनी के संचालक-मण्डल (Board of Directors) की कार्य अवधि चार वर्ष तक कर दी गयी . पहले यह अवधि एक वर्ष थी. प्रति वर्ष संचालक-मण्डल के एक-चौथाई सदस्यों के स्थल पर नए सदस्यों का चुनाव होना था. संचालक-मण्डल में कुल 24 सदस्य थे .
  2. बंगाल की प्रेसीडेन्सी में मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियों को मिला दिया गया और सर्वोच्च प्राधिकारी के रूप में वारेन हेस्टिग्ज को बंगाल का प्रथम गवर्नर-जनरल बनाया गया, जिसे भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल कहा जाता है. गवर्नर-जनरल के लिए चार सदस्यों की एक कार्यकारी परिषद् (Executive Council) की भी स्थापना की गई. परिषद् में निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाने की व्यवस्था की गई लेकिन साथ ही मत बराबर होने की स्थिति में गवर्नर-जनरल को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया. परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष रखा गया तथा इस अवधि से पूर्व उन्हें केवल सम्राट ही हटा सकता था. गवर्नर-जनरल को युद्ध, संधि एवं राजस्व संबंधी अधिकार प्रदान किये गए.
  3. बम्बई और मद्रास के गवर्नरों से यह आशा की गई कि वे बंगाल स्थित गवर्नर-जनरल के आदेशों का पालन करें. यदि वे अपने इस कार्य में असफल रहें तो गवर्नर-जनरल को उन्हें पदच्युत करने का अधिकार दिया गया.
  4. गवर्नर-जनरल की परिषद् को कम्पनी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले प्रदेशों के शासन संचालन हेतु सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व स्वीकृति से नियम, विनियम तथा अध्यादेश के निर्माण का अधिकार प्रदान किया गया.
  5. इस अधिनियम के तहत 1774 में कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की स्थापना की गई जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश रखे जाने थे. सर एलिजाह इम्पे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया. इस न्यायालय को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के ब्रिटिश क्षेत्रों पर दीवानी, फौजदारी, समुद्री सेना तथा चर्च संबंधी मामलों पर सुनवाई का अधिकार दिया गया. इस न्यायालय को कलकत्ता नगर, कारखाने, फोर्ट विलियम तथा उसके अधीन अन्य कारखानों के लिए अभिलेख अदालत (Court of Record) भी बनाया गया.
  • अतएव कुल मिलाकर इस अधिनियम द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण प्रारंभ हुआ और भारत में बहुमत के निर्णय को मान्यता मिली.
  • इस अधिनियम का वैधानिक दृष्टि से यह महत्व था कि इसके द्वारा एक व्यापारिक कम्पनी को वैधानिक रूप से यह राजनीतिक अधिकार प्रदान किया गया कि वह ब्रिटिश सरकार के एजेंट के रूप में ब्रिटिश भारत पर नियंत्रण रखें.

1761 का अधिनियम (Act of 1781)

  • 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई थी जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय और कम्पनी के कर्मचारियों एवं गवर्नर-जनरल के मध्य अधिकार क्षेत्र को लेकर व्यापक संघर्ष प्रारंभ हो गया.
  • ब्रिटिश सरकार ने इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए 1781 में एक अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार–
  1. सर्वोच्च न्यायालय कम्पनी के कर्मचारियों के विरुद्ध उन कार्यों के लिए कार्रवाई नहीं कर सकता, जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किये हों.
  2. कम्पनी के राजस्व कलैक्टरों एवं कानूनी अधिकारियों को भी सरकारी अधिकारी के रूप में किये गए कार्यों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र से मुक्त कर दिया गया.
  3. गवर्नर-जनरल एवं उसको परिषद् के सदस्यों को भी यह उन्मुक्तता प्रदान की गई.

पिट्स भारतीय अधिनियम 1784 (Pit’s India Act, 1784)

  • पिट्स भारतीय अधिनियम 1784 अधिनियम के अनुसार-
  1. कम्पनी के राजनीतिक दायित्वों का भार छह सदस्यों के एक नियंत्रण बोर्ड को दिया गया. बोर्ड को भारतीय प्रशासन के संबंध में निरीक्षण, निर्देशन, तथा नियंत्रण संबंधी विस्तृत अधिकार दिए गए.
  2. गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई. परिषद् को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्यशक्ति, देशी रियासतों आदि के अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गई.
  3. यह घोषित किया गया कि सरकारी अधिकारियों को यदि वे किसी अपराध के दोषी सिद्ध हो जाएं तो उनको क्षमा न प्रदान की जाए.
  4. प्रान्तीय गवर्नरों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि ये केन्द्र के निर्देशों का पालन करें.
  5. संचालक मण्डल के स्थान पर राजनीतिक तथा फौजी मामलों के लिए एक गुप्त कमेटी बनाई गई जिसमें तीन संचालक (Directors) होते थे.
  • वास्तव में इस अधिनियम में भारत के एकीकरण में सहायता दी.
  • गवर्नर-जनरल सभी प्रांतीय गवर्नर का सर्वोच्च नियंत्रक हो गया.
  • गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् के सदस्यों की संख्या चूंकि कम कर दी गई थी अतः गवर्नर-जनरल की स्थिति सशक्त हो गयी .
  • नियंत्रक बोर्ड का अध्यक्ष आगे चलकर भारत मंत्री बन गया .

1786 का अधिनियम (Act of 1786)

  • 1786 का अधिनियम के द्वारा लॉर्ड कॉर्नवालिस को भारतीय फौजों का मुख्य सेनापति बना दिया गया.
  • उसे अपने उत्तरदायित्व से संबंधित मामलों पर अपनी परिषद् के निर्णयों के विरुद्ध भी कार्य करने का अधिकार दिया गया.

1793 का अधिनियम (Act of 1793)

1793 का अधिनियम के अनुसार–

  1. प्रान्तीय गवर्नरों को भी अपने विशेष उत्तरदायित्वों के अधीन आने वाले विषयों पर अपनी कौंसिलों के निर्णय बदलने का अधिकार दिया गया.
  2. गवर्नर-जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद् के एक सदस्य को उप-प्रधान नियुक्त कर सकता था जो कि गवर्नर-जनरल की अनुपस्थिति में उसके कर्तव्यों का निर्वाह करता था .
  3. नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के वेतन एवं भत्ते राजस्व पर भारित किये गये .

1813 का चार्टर एक्ट (Charter Act of 1813)

1813 का चार्टर एक्ट के अनुसार–

  1. ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार-पत्र को 20 वर्षों के लिए, और बढ़ा दिया गया.
  2. भारतीय व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार समाप्त करके भारतीय व्यापार को ब्रिटेन के सभी व्यापारियों के लिए खोल दिया गया .
  3. ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गई.
  4. स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं को करारोपण का अधिकार दिया गया और राजस्व संबंधी नियमों तथा लेखांकन की व्यवस्था की गई.

1833 का चार्टर अधिनियम (Charter Act of 1833)

1833 का चार्टर अधिनियम के अनुसार–

  1. बंगाल का गवर्नर-जनरल भारत का गवर्नर जनरल हो गया.
  2. राजस्व केन्द्र सरकार के आदेश से ही प्राप्त किये जा सकते थे.
  3. कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त करके उसे प्रशासनिक तथा राजनीतिक संस्था बना दिया गया.
  4. कम्पनी के नियंत्रण मण्डल का अधिकार क्षेत्र सीमित कर दिया गया.
  5. भारत का विधायी केन्द्रीयकरण (Legislative Centralisation) किया गया . सम्पूर्ण देश के लिए एक समान कानून लागू किया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेजिडेंसियों को उनके कानून-निर्माण संबंधी अधिकारों से वंचित कर दिया गया .
  6. सपरिषद् गवर्नर जनरल को कानून निर्माण का अधिकार दिया गया. वह सब विषयों पर कानून बना सकता था. देश के समस्त न्यायालयों को उन्हें लागू करने के लिए आवश्यक कार्रवाई करनी थी और कोई भी उन्हें लागू करने से इन्कार नहीं कर सकता था.
  7. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में “कानून सदस्य” (Law Member) के रूप में एक नए सदस्य की वृद्धि की गई. यह कार्यकारिणी की बैठकों में विशेष निमंत्रण से उपस्थित होता था लेकिन उसे मत (Vote) देने का अधिकार नहीं दिया गया .
  8. 1833 का चार्टर अधिनियम के द्वारा भारत के कानूनों का वर्गीकरण (Codification) किया गया. इस प्रयोजन के लिए कानून आयोग (Law Commission) की व्यवस्था की गई.
  9. भारत में कम्पनी के अधीन भर्ती के संबंध में किसी भारतीय के साथ धर्म, जन्म-स्थान, निवास तथा वर्ण-भेद के आधार पर कोई भेदभाव न किये जाने की व्यवस्था थी.

1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम (Charter Act of 1853)

1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम के अनुसार–

  1. कार्यकारिणी परिषद् के “कानून सदस्य” को परिषद् का पूर्ण सदस्य बना दिया गया .
  2. प्रान्तों को केन्द्रीय व्यवस्थापिका परिषद (Central Legislative Council) में एक-एक प्रतिनिधि भेजने की व्यवस्था की गई. अतएव किसी प्रान्त से संबंधित किसी विषय पर तब तक विधार नहीं हो सकता था जब तक कि संबंधित प्रान्त का प्रतिनिधि उपस्थित न हों . व्यवस्थापिका परिषद में 12 सदस्य होते थे–(a) गवर्नर-जनरल, (b) मुख्य सेनापति, (c) कार्यकारी परिषद् के चार सदस्य, (d) व्यवस्था संबंधी छह सदस्य, जिनमें से चार प्रान्तों के प्रतिनिधि थे, एक मुख्य न्यायाधीश, एक अवर न्यायाधीश .
  3. बंगाल प्रेजिडेंसी के लिए एक अलग गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गई जिसके फलस्वरूप बंगाल के लिए लेफ्टीनेंट-गवर्नर की व्यवस्था की गई.
  4. सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए प्रतियोगिता – के आयोजन की व्यवस्था की गई. इस संबंध में 1854 में मैकाले आयोग स्थापना की गई.
  5. 1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम में कम्पनी को पुनः अधिकार-पत्र उन कर दिया गया कि कम्पनी भारतीय इलाकों पर ब्रिटिश सम्राट और उसके अधिकारियों की ओर से तब तक शासन करे जब तक कोई अन्य व्यवस्था न कर दी जाए.

1858 का भारत शासन अधिनियम (Government of India Act, 1858)

  • सन् 1857 के विद्रोह के साथ दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं–
  1. यह ब्रिटिश शासन के विरोध में पहला जन संघर्ष था जो इतने बड़े पैमाने पर सामने आया, यद्यपि सफल न हो सका.
  2. इस विद्रोह को कुचलने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर सीधे अपने हाथ में ले लिया.
  • इसके साथ ही हमारे वर्तमान संविधान के निर्माण की प्रक्रिया की ऐतिहासिक शुरूआत हुई, जिसकी प्रथम कड़ी के रूप में ब्रिटिश संसद (British Parliament) ने भारत शासन अधिनियम-1858 (Government of India Act-1858) पारित किया.
  • 1858 का भारत शासन अधिनियम इस रूप में उल्लेखनीय है कि इसमें सम्राट (ब्रिटिश क्राउन) के नियंत्रण का प्रमुख स्थान था और प्रशासन में जनता का कोई स्थान नहीं था .
  • 1858 का भारत शासन अधिनियम के तहत सम्राट की शक्तियों का प्रयोग भारत सचिव (Secretary of State for India) द्वारा 15 सदस्यों की एक परिषद की सहायता से (जो भारत परिषद् (Council of India) के नाम से ज्ञात थी) , किया जाना था.
  • भारत परिषद् (Council of India) अनन्य रूप से इंग्लैण्ड के व्यक्तियों से मिलकर बनती थी जिसमें से कुछ सम्राट द्वारा नाम-निर्देशित होते थे और कुछ ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों के प्रतिनिधि होते थे.
  • भारत सचिव (Secretary of State for India) ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था और गवर्नर-जनरल (Governor-General) के माध्यम से भारत का शासन करता था.
  • गवर्नर-जनरल कार्यकारी परिषद् (Executive Council) की सहायता से कार्य करता था.
  • परिषद में सरकार के उच्च अधिकारी होते थे.

कुल मिलाकर

1858 के अधिनियम के तहत-

  1. भारतीय प्रशासन अत्यधिक केन्द्रीयकृत था . सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र को प्रान्तों में बांटा गया था और प्रत्येक के शीर्ष पर एक गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर (Lieutenant Governor) था जिसकी सहायता के लिए कार्यकारी परिषद् थी तथापि इन प्रान्तीय सरकारों को गवर्नर-जनरल (Governor-General) के अधीक्षण, निर्देश और नियंत्रण के अधीन काम करना पड़ता था.
  2. भारत सरकार के समस्त प्राधिकार–सिविल (Civil), सैनिक (Military), कार्यपाल (Executive) और विधायी (Legislative) – सपरिषद् गवर्नर-जनरल में निहित थे जो कि भारत सचिव (Secretary of State for India) के प्रति उत्तरदायी था.
  3. प्रशासन का सम्पूर्ण तंत्र अधिकारी तंत्र था जिसका भारत की जनता से कोई लेना देना नहीं था.

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 (Indian Council Act, 1861)

  • भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 में यह उपबन्ध किया गया कि गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद्, जो अभी तक अनन्य रूप से सरकारी अधिकारियों को एक समूह थी, उस समय जब परिषद् विधान परिषद् के रूप में विधायी कार्य करेगी, में कुछ गैर सरकारी सदस्य भी सम्मिलित किए जाएंगे.
  • किन्तु यह परिषद् किसी लोक-प्रतिनिधि संस्था से किसी भी रूप में समान न थी.
  • इसमें सदस्य मनोनीत किए जाते थे जिनका कार्य गवर्नर-जनरल द्वारा उनके समक्ष रखे गए प्रस्तावों पर केवल विचार-विमर्श करने तक सीमित था .
  • साथ ही ये किसी भी रीति से प्रशासनिक कार्यों की आलोचना का अधिकार नहीं रखते थे.
  • 1861 के अधिनियम के उक्त प्रावधान प्रान्तीय स्तर पर विधान परिषद के लिए भी थे.

भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 (Indian Council Act, 1892)

  • Council Act 1892 भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 द्वारा विधायी क्षेत्र में दो उल्लेखनीय सुधार किये गए-
  1. भारतीय विधान परिषद् में शासकीय सदस्यों (Oficial members) का बहुमत रखा गया किन्तु गैर-सरकारी सदस्य बंगाल चैम्बर आफ कामर्स और प्रान्तीय विधान परिषद् द्वारा नामनिर्दिष्ट होने लगे तथा प्रान्तीय परिषदों के गैर सरकारी सदस्य कुछ स्थानीय संस्थायें जैसे -विश्वविद्यालय, जिला बोर्ड, नगरपालिका आदि से नामनिर्दिष्ट होने लगे.
  2. परिषदों को राजस्व और व्यय के वार्षिक कथन अर्थात् बजट (Budget) पर विचार विमर्श करने की और कार्यपालिका से प्रश्न पूछने की उल्लेखनीय शक्ति दी गई.

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 या मोर्ले मिंटो सुधार (Indian Council Act, 1909 or Morley-Minto Reforms)

  • भारत के तत्कालीन सचिव (Secretary of State) लॉर्ड मोर्लेऔर वाइसराय (The Viceroy) लार्ड मिंटो के नाम पर प्रतिनिधिक और लोकप्रियता के क्षेत्र में किए गए सुधारों का समावेश 1909 के भारतीय परिषद् अधिनियम में किया गया.
  • मोर्ले मिंटो सुधार के तहत प्रान्तीय विधान परिषदों के आकार में वृद्धि करते हुए कुछ निर्वाचित गैर सरकारी सदस्य सम्मिलित किये गये जिससे शासकीय बहुमत समाप्त हो गया .
  • केन्द्रीय विधान परिषद् में भी निर्वाचन का समावेश हुआ किन्तु शासकीय बहुमत बना रहा.
  • 1909 के अधिनियम में जो निर्वाचन पद्धति अपनायी गयी उसका एक गंभीर दोष मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का उपबन्ध था.
  • इस उपबन्ध का समावेश करवाने में 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग काफी हद तक उत्तरदायी थी.
  • मोर्ले मिंटो सुधार अधिनियम की ही एक दुखद परिणति 1947 के भारत-विभाजन के रूप में हुई.

भारत शासन अधिनियम 1919 और मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन (Government of India Act, 1919 and the Recommendations of Montague-Chelmsford)

  • भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट श्री इ.एस. मोंटग्यू और गवर्नर-जनरल लॉर्ड चेम्सफोर्ड को ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की 20 अगस्त 1917 की ब्रिटिश सरकार की घोषणा की कार्यरूप देने का कार्य सौंपा गया.
  • Government of India Act, 1919 भारत शासन अधिनियम 1919 में इनकी सिफारिशों को एक विधिक रूप प्रदान किया गया .
  • भारत शासन अधिनियम 1919 में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई

(1) प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy in the Provinces)

  • गवर्नर-जनरल के माध्यम से प्रांतीय गवर्नर का उत्तरदायित्व कम न हो यह ध्यान रखते हुए प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रयत्न किया गया .
  • इसके लिए द्वैध शासन या द्विशासन की पद्धति का सहारा लिया गया .
  • प्रान्त के प्रशासनिक विषयों की दो प्रवर्गों में बाँटा गया-केन्द्रीय और प्रान्तीय (Central and Provincial) केन्द्रीय विषय केन्द्र सरकार के अनन्य नियंत्रण में थे जबकि प्रान्तीय विषयों को फिर दो भागों में बांटा गया-
  • अन्तरित और आरक्षित (transferred and reserved) अन्तरित विषयों, का प्रशासन गवर्नर द्वारा विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से किया जाना था.
  • विधान परिषद् के निर्वाचित सदस्यों का अनुपात बढ़ाकर 70 प्रतिशत कर दिया गया.
  • आरक्षित विषय, गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद् द्वारा शासित किये जाने थे. इसमें विधानमंडल के प्रति कोई उत्तरदायी नहीं था.

 

(2) प्रान्तों पर केन्द्रीय नियंत्रण का शिथिलीकरण (Relaxat Central Control Over the Provinces)

  • अखिल भारतीय महत्व के विषयों के ‘केन्द्रीय’ (Centra) और प्राथमिक रूप से प्रान्तों के प्रशासन से सम्बन्धित विषयों को ‘प्रांतीय’ (Provinces) प्रवर्गों में रखने के कारण प्रान्तों पर पूर्ववर्ती केन्द्रीय नियंत्रण प्रशासनिक, विधायी और वित्तीय विषयों में शिथिल हो गया.
  • राजस्व के क्षेत्र में प्रान्तीय बज़ट को भारत सरकार के बजट से अलग रखा गया और प्रान्तीय विधानमंडल को यह शक्ति दी गई कि वह अपना बज़ट प्रस्तुत कर सके और प्रान्त के राजस्व (Revenue) के स्रोतों से सम्बन्धित अपने कर उद्गृहीत कर सके (Levy its own taxes).
  • प्रांतीय विधान पर गवर्नर-जनरल के नियंत्रण को बनाए रखने के लिए प्रांतीय गवर्नर को यह शक्ति दी गई कि वह, इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट विषयों से सम्बन्धित विधेयक को गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित कर सके.

भारतीय विधानमंडल को अधिक प्रतिनिधिक बनाना : (The Indian Legislature Made More Representative)

  • प्रान्तों की भांति केन्द्र में उत्तरदायित्व को कोई स्थान न दिया गया.
  • सपरिषद् गवर्नर-जनरल भारत के लिए भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी बना रहा.
  • भारत शासन अधिनियम 1919 के तहत पहली बार विधान मंडल द्विसदनीय बनाया गया.
  • उच्चतर सदन जिसे राज्य परिषद् (Council of State) नाम दिया गया 60 सदस्यों से मिलकर बनती थी जिसमें से 5 निर्वाचित थे.
  • निचले सदन (Lower House) में जिसे विधान सभा (Legislative Assembly) नाम दिया गया, 144 सदस्य थे जिनमें से 104 निर्वाचित थे.
  • दोनों सदनों की शक्तियाँ समान थीं किन्तु प्रदाय के लिए मतदान की शक्ति (Power to vote for Supply) अनन्य रूप से विधान सभा को दी गई थी.
  • निर्वाचक मंडल जाति और धर्म (भाग) के आधार पर बनाकर मोर्ले मिंटो युक्ति को आगे बढ़ाया गया .

इसके अतिरिक्त गवर्नर जनरल की निम्न शक्तियों को पूर्ववत बनाए रखा गया–

  1. कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को पुनःस्थापित करने के लिए उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक थी.
  2. विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को वीटो करने या सम्राट के लिए आरक्षित करने की शक्ति उसकी थी.
  3. वह विधानमंडल द्वारा नामंजूर किये गए विधेयक या अनुदान को पारित या प्रदत (विधानमंडल द्वारा) नर्षित कर सकता था.
  4. वह अध्यादेश (Ordinances) जारी कर सकता था .

अधिनियम के दोष (Shortcomings of the Act)

  • भारत शासन अधिनियम 1919 के बाद भी प्रशासन ऐकिक और केन्द्रीकृत ही बना रहा जिसका एक उदाहरण यह है कि कोई विषय केन्द्रीय (Central) है या प्रांतीय (Provincial) यह निर्णय करने का प्राधिकार (Authority) गवर्नर-जनरल को था न्यायालय को नहीं .

प्रान्तीय क्षेत्र में द्वैध शासन प्रणाली के निम्न दोष सामने आए–

  1. वित्त आरक्षित विषय था और इसलिए कार्यकारी परिषद के प्रभार में रखा जाता था मंत्री के नहीं, इससे धन के अभाव में मंत्री के लिए कोई प्रगतिशील कार्य करना संभव न था.
  2. जिन लोक सेवकों के माध्यम से मंत्रियों को अपनी नीतियाँ लागू करनी होती थी, उनकी भर्ती सेक्रेटरी आफ स्टेट (भारत सचिव) द्वारा होती थी और उसी के प्रति वें उत्तरदायी रहते थे.
  3. प्रांतीय विधानमंडलों के प्रति मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व की कोई व्यवस्था नहीं थी .
  4. गवर्नर मंत्रियों की सलाह मानने या न मानने के लिए बाध्य ना था .
  • अतः उक्त अधिनियम भी भारतीय आकांक्षाओं को तुष्ट न कर सका.

साइमन आयोग (The Simon Commission)

  • 1919 के भारत शासन अधिनियम के कार्यकरण की जांच के लिए अधिनियम की धारा 84(क) के तहत 1928 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानूनी आयोग नियुक्त किया.
  • 1929 में ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि भारतीय राजनीतिक विकास का उद्देश्य डोमिनियम स्तर (Dorainion Status) है.
  • साइमन आयोग के अध्यक्ष सर जॉन साइमन ने 1980 में अपना प्रतिवेदन दिया.
  • इस प्रतिवेदन पर एक गोलमेज सम्मेलन (Round table conference) में विचार किया गया जिसमें ब्रिटिश सरकार के, ब्रिटिश भारत के, और देशी रियासतों के शासक प्रतिनिधि थे.
  • उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत योजना में एक परिसंघ बनाकर देशी रियासतों को शेष भारत से जोड़ना था.
  • इस सम्मेलन पर जारी एक श्वेत पत्र पर ब्रिटिश संसद की एक संयुक्त प्रवर समिति (Joint select committee of the British Parliament)द्वारा की गई जांच और प्रस्तुत की गई सिफारिशों के अनुसार कुछ संशोधनों सहित 1935 का भारत शासन अधिनियम पारित किया गया .

भारतीय शासन अधिनियम, 1935 (Government of India Act, 1935)

  • ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा 4 अगस्त, 1932 को दिये गए साम्प्रदायिक अधिनिर्णय के आधार पर साम्प्रदायिक वैमनस्य को और अधिक बाते हुए मुसलमानों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व के साथ-साथ सिखों के लिए, यूरोपीय लोगों के लिए, ईसाइयों के लिए और एंग्लो-इंडियन लोगों के लिए ई पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर दी गई.

1935 के अधिनियम में निम्नलिखित मुख्य व्यवस्थाएँ थी

(1) परिसंघ और प्रान्तीय स्वायत्तता (Federation and Provincial Autonomy)

  • 1935 के अधिनियम में परिसंघ की स्थापना की गई जिसमें इकाइयाँ थी–प्रांत और देशी रियासतें .
  • चूंकि देशी रियासतों के शासकों ने अपनी सहमति नहीं दी इसलिए परिसंघ की योजना पूर्ण न हो सकी.
  • किन्तु विधायी शक्तियों को प्रांतीय और केन्द्रीय विधान-मंडल के बीच विभाजित करके अधिनियम के एक भाग को 1937 में प्रभावी किया गया .
  • प्रान्त अपने परिवेश में केन्द्र सरकार के प्रत्यायोजिती (delegates) नहीं है बल्कि स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे.

 

  • गवर्नर, सम्राट की ओर से प्रान्त की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करता था.
  • इस प्रकार वह गवर्नर-जनरल के अधीन नहीं था.
  • किंतु उससे यह अपेक्षा की गई कि वह मंत्रिमंडल की सलाह से कार्य करेगा और मंत्री विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी थे. –
  • कुछ विषयों में गवर्नर से स्वविवेकानुसार या अपने स्वयं के विवेकानुसार (‘In his discretion or his individual judgement) कार्य करने की अपेक्षा थी जिसके कारण केन्द्र सरकार का एक विशेष क्षेत्र में प्रान्तों पर नियंत्रणु बना रहा.
  • क्योकि ‘स्वविवेक’ सम्बन्धी कार्य गवर्नर-जनरल और उसके माध्यम से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (Secretary of State) के नियंत्रण और निर्देश से होते थे .

(2) केन्द्र में द्वैध शासन (Dyarchy at the centre)

  • केन्द्र की कार्यपालिका  शक्ति (सम्राट के निमित्त) गवर्नर-जनरल में निहित थी जिसके विषयों को दो समूहों में बांटा गया था- ‘आरिक्षत’ (Reserved) जिनमें प्रतिरक्षा, विदेश कार्य, चर्चा सम्बन्धी कार्य और जनजाति क्षेत्र का प्रशासन गवर्नर जनरल को स्वविवेकानुसार ( in his discretion ) और अपने द्वारा नियुक्त परामर्शदाताओं (Counsellors) की सहायता से करना था.
  • ये परामर्शदाता विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे.
  • ‘अन्तरित विषय’ (Transferred subjects) अर्थात् वे विषय जिन पर उसे मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करना था.
  • मंत्रिपरिषद् विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी था.
  • किन्तु इस क्षेत्र में भी उसका ‘विशेष उत्तरदायित्व’ (Special Responsibilities) अन्तर्वलित होता था और वह मंत्रिपरिषद् द्वारा दी गई सलाह के विरुद्ध भारत सचिव के नियंत्रण और निर्देश में कार्य कर सकता था.

(3) द्विसदनीय विधानमंडल (Bicameral Legislature)

  • केन्द्रीय विधानमंडल में दो सदन थे जो परिसंघ विधानसभा और राज्य परिषद् से मिलकर बनते थे.
  • छह प्रांतों में विधानमंडल द्विसदनीय थे जो विधानसभा और विधान परिषद से मिलकर बनते थे.
  • शेष प्रान्तों के विधानमंडल में एक सदन था . किन्तु केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमंडलों की शक्तियाँ कुछ शर्तों के अधीन थी. जैसे–
  1. विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक पर क्रमशः गवर्नर या गवर्नर-जनरल वीटो (Veto) कर सकता था.
  2. विशेष उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में भी वह कार्यवाही को निलंबित कर सकता था.
  3. विधानमंडल के सत्रावसान के दौरान अध्यादेश (Ordinances) जारी कर सकता था.

(4) केन्द्र और प्रांतों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन (Distribution of Legislative Powers between the Centre and the Provinces)

  • इस अधिनियम को तीन सूचियों में विभाजित किया गया:–

1 परिसंघ सूची-

  • इस पर परिसंघ अर्थात् केन्द्रीय विधानमण्डल को विधान बनाने की अनन्य शक्ति थी.
  • इस सूची में विदेशी कार्य, करंसी और मुद्रा, नौसेना, सेना और वायु सेना, जनगणना जैसे विषय थे.

2 प्रान्तीय सूची-

  • इस पर प्रांतीय विधानमण्डलों की अनन्य अधिकारिता थी.
  • उदाहरणार्थ पुलिस, प्रान्तीय लोकसेवा और शिक्षा.

3 समवर्ती सूची-

  • इस पर परिसंघ और प्रांतीय विधानमण्डल दोनों को विधान बनाने की अधिकारिता थी.
  • जैसे – दंड-विधि और प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह और विवाह-विच्छेद आदि .

 

  • गवर्नर-जनरल द्वारा आपात की उद्घोषणा किये जाने पर परिसंघ विधान मंडल को प्रांतीय सूची में प्रगणित विषयों की बाबत विधान बनाने की शक्ति थी .
  • इसके अलावा जब दो या दो से अधिक प्रांतीय विधानमंडल प्रांतीय सूची के किसी विषय पर कानून बनाने या अध्यादेश जारी करने का आग्रह करे तो केन्द्र अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता था.
  • समवर्ती क्षेत्र में विरोध की दशा में परिसंघ विधि प्रांतीय विधि पर विरोध की सीमा तक मान्य होती

थी .

 

  • यह उल्लेखनीय है 1929 में जिस ‘डोमिनियन स्तर” (Dominion Status ) का वचन दिया गया था 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा प्रदत्त नहीं की गई.

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (Indian Independence Act, 1947)

(1) ब्रिटिश संसद की प्रभुता और उत्तरदायित्व का उत्सादन (Abolition of the Sovereignty and Responsibility of the British Parliament)

  • 1858 के भारत शासन अधिनियम द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से निकल कर ब्रिटिश सम्राट के हाथ में आ गया था किंतु 1947 के भारत स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा यह घोषित किया गया कि 15 अगस्त, 1947 से (जिसे ‘नियत दिन’ appointed day कहा गया) भारत ब्रिटेन के अधीनस्थ राज्य नहीं रहा और देशी रियायतों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुता तथा जनजाति क्षेत्रों से उनके संधि सम्बन्ध उसी दिन से समाप्त हो गये और भारत के लिए भारत सचिव ( Secretary of State for India ) का पद भी समाप्त कर दिया गया.

(2) सम्राट का प्राधिकार समाप्त (End of the Authority of Crown)

  • 1947 से पूर्व भारत का शासन “हिज़ मैजेस्टी” (His Majesty) के नाम से चलाया जाता था किन्तु स्वतंत्रता अधिनियम के पश्चात् सम्राट का भारत पर से प्राधिकार समाप्त हो गया.

(3) गवर्नर और गवर्नर-जनरल का सांविधानिक अध्यक्ष होना (The Governor and Governor-General as Constitutional Head)

  • 1947 के अधिनियम द्वारा भारत और पाकिस्तान नामक दोनों डोमिनियनों के गवर्नर और गवर्नर-जनरल अपने-अपने क्षेत्रों के सांविधानिक प्रमुख हो गये.
  • 1935 के अधिनियम में प्रस्तावित यह स्तर (Status) 1947 के अधिनियम में प्रदान किया गया .
  • इस अधिनियम के द्वारा 1919 के अधिनियम के तहत बनाई गई कार्यकारी परिषद् या 1935 के अधिनियम में उपबन्धित परामर्शदाता समाप्त हो गए.
  • गवर्नर-जनरल और प्रांतीय गवर्नर मंत्रिपरिषद् की सलाह पर काम करने लगे.
  • मंत्रिपरिषद् को डोमिनियन विधानमंडल या प्रान्तीय विधानमंडल का विश्वास होना आवश्यक था.
  • अधिनियम में गवर्नर-जनरल या गवर्नर की ‘विवेकाधीन (Individual Judgement) शक्तियों को कोई स्थान नहीं दिया गया .
  • फलतः ऐसा कोई क्षेत्र न बचा जहाँ सांविधानिक अध्यक्ष मंत्रियों की सलाह के बिना या उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य कर सके.
  • साथ ही गवर्नर-जनरल की उस शक्ति का भी लोप कर दिया गया जिसके अनुसार वह गवर्नरों से यह अपेक्षा करे कि वे उसके अभिकर्ता के रूप में कार्य करें.

(4) डोमिनियन विधानमंडलों की प्रभुता (Sovereignty of the Dominion Leare)

  • 14 अगस्त 1947 क भारत का केन्द्रीय विधान मंडल विघटित हो गया और नियत दिन ( appointed day ) से नए संविधान की रचना तक संविधान सभा की है अपने डोमिनियन के केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य करना था.
  • ध्यान देने योग्य बात यह है कि संविधान सभा ने इस दौरान दो रूपों में कई किया एक, संवैधानिक दूसरा, विधायी .
  • डोमिनियन विधानमंडल सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न था .

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