Friday, July 20, 2018

उदारवादी युग 1885-1905 (Moderate Period)भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन

उदारवादी युग 1885-1905 (Moderate Period)

उदारवादी युग 1885-1905 (Moderate Period)-1885-1905 तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अर्थात् कांग्रेस पर पूरी तरह से उदारवादियों का प्रभाव रहा. इस काल में कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले नेता ब्रिटिश उदारवाद से प्रभावित थे. जिन्होंने 20 साल तक कांग्रेस की बागडोर संभाली. इनमें प्रमुख थे- सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव रानाडे, उमेश चन्द्र बनर्जी तथा पण्डित मदन मोहन मालवीय आदि.

उदारवादी एकदम क्रांति रूप में नहीं, वरन् क्रमिक सुधारों में विश्वास रखते थे. इनका मानना था कि भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय का प्रधान श्रेय ब्रिटिश शासन को है और ब्रिटिश शासन ने भारत के सामाजिक जीवन को पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का स्पर्श देकर उसमें स्वतंत्रता की भावना जागृत की है. अतः यह उचित है कि देश के राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से धीरे-धीरे सुधार लाने की चेष्टा की जाए. उन्हें पूर्ण विश्वास था कि अंग्रेजी शासन भारत के हित में है तथा वे आशा रखते थे कि कालान्तर में अंग्रेज उन्हें अपनी परम्पराओं के अनुसार स्वशासन करने के योग्य बना देंगे. उस समय इनकी मांगों में अवज्ञा तथा चुनौती का स्वर न होकर आग्रह और प्रार्थना का स्वर होता था.

अपने 20 वर्ष के समय-अंतराल में उदारवादियों अर्थात् कांग्रेस ने अपने वार्षिक अधिवेशनों में अनेक प्रस्ताव पास किए और ब्रिटिश सरकार से प्रशासन में सुधारों की मांग की. उदारवादी युग में कांग्रेस की मांगें बहुत साधारण थी. तत्कालीन उदारवादी नेताओं का मानना था कि न्याय-प्रिय अंग्रेजों से प्रार्थनाओं द्वारा अपने अधिकार मांगने पर वे अधिकार प्रदान कर देंगे. कांग्रेस की प्रमुख मांगें थी, जैसे- भारत सचिव की इंडिया कौंसिल को समाप्त किया जाए, केन्द्र और प्रांतों में विधान परिषदों का विस्तार किया. जाए, उच्च सरकारी नौकरियों में भारतीयों को भी अंग्रेजों के समान अवसर तथा सिविल सेवा की प्रतियोगी परीक्षाएं भारत में भी आयोजित की जाएं. आदि तक ही सीमित थीं.

 

उदारवादियों की कार्य-पद्धति (Work-method of Moderates)

 

उदारवादी नेताओं द्वारा अपनाई जाने वाली कार्य-प्रणाली पूर्ण रूप से संवैधानिक और ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग की भावनाओं पर आधारित होती थी. ये लोग सरकार से किसी भी स्थिति में टकराव नहीं चाहते थे. वे प्रार्थना पत्रों, आवेदन-पत्रों, प्रतिनिधि मण्डलों और स्मरण-पत्रों आदि द्वारा सरकार से अपनी न्याययुक्त मांगों को मानने का आग्रह करते थे. उदारवादी पाश्चात्य सभ्यता और विचारों से प्रभावित थे. अतः वे ब्रिटेन से स्थायी सम्बन्ध की स्थापना, भारत के हित में मानते थे. उदारवादियों के साधनों को “राजनैतिक भिक्षावृत्ति के रूप में वर्णित किया गया है.

 

कांग्रेस ने आरम्भिक समय में संवैधानिक साधनों का प्रयोग करते हुए अपनी वफादारी की घोषणाओं के साथ मध्यम मार्ग तथा अपील के स्वर को अपनाया. कांग्रेस ने उस समय राष्ट्रीय जागृति के प्रसार के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए. इसने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावनाओं के विकास, उनमें समन्वय तथा राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न करने में पर्याप्त योग दिया.

 

उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास (Growth of Moderate National Movement)

 

महत्वपूर्ण रूप से उदारवादियों ने साम्राज्यवाद का आर्थिक विवेचन किया था. वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि ब्रिटिश आर्थिक साम्राज्यवाद में निहित उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के अधीन रखना है. इसीलिए प्रारंभिक उदारवादियों ने सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में प्रभावशाली तर्क रखे और आंदोलन आयोजित किए. सरकार द्वारा भू-राजस्व में की गई बढ़ोत्तरी के विरोध में आंदोलन चलाया तथा कराधान और व्यय के तत्कालीन स्वरूप में भी परिवर्तनों का आग्रह किया.

उदारवादियों ने सरकार द्वारा उठाये जाने वाले प्रशासनिक कदमों की आलोचना करते हुए प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और अक्षमताओं को दूर करने की आवाज उठाई. इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुधार आंदोलन प्रशासनिक सेवा की उच्चतर श्रेणी के पदों का भारतीयकरण के सम्बन्ध में था. यूरोपियनों को मिलने वाले ऊंचे वेतन का भारतीय वित्त पर भारी बोझ था. राजनीतिक रूप में यूरोपीय नागरिक भारतीयों की उपेक्षा करते थे तथा उन्हें हीन-दृष्टि से देखते थे. उदारवादियों ने सरकारी ऐजेण्टों व पुलिस द्वारा जनसाधारण के साथ दुर्व्यवहार का विरोध किया. इनकी एक महत्वपूर्ण मांग यह थी कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक किया जाए, ताकि जनसाधारण के हित में कुछ सुरक्षात्मक कार्य हो सकें.

कांग्रेस के प्रारम्भिक उदारवादी नेताओं ने कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को मिलने वाली सुविधाओं का विरोध किया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समानता के सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने की अपील की. इन नरमपंथी नेताओं को आधुनिक नागरिक अधिकारों जैसेभाषण, प्रेस, विचार और संगठन आदि की स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता थी. तत्कालीन परिस्थितियों में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए आवश्यक था. कि देश के विभिन्न भागों में रहने वाले तथा अलग-अलग मतों के लोगों के बीच समन्वय स्थापित कर देश को एक राष्ट्र के रूप में संगठित किया जाए. नरम पंथियों द्वारा इस क्षेत्र में किए गए प्रयासों के फलस्वरूप ही शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावनाओं का विकास हुआ.

कांग्रेस के प्रारम्भिक उदारवादी नेता धीरे-धीरे आग्रहों, आवेदनों और प्रार्थनाओं द्वारा क्रमिक सुधारों में विश्वास रखते थे. परन्तु एक बात अवश्य थी कि वे मौलिक सांविधानिक परिवर्तनों के लिए शुरू से ही बल देने लगे थे. कांग्रेस ने स्थानीय कौंसिलों के विस्तार की तथा उनमें अधिक संख्या में चुने हुए सदस्यों को लेने और उनके कार्यों के विस्तार की मांग की, ताकि एक ऐसी सरकार स्थापित की जा सके जिसका आधार जनता के प्रतिनिधियों के साथ सलाह हो. इस प्रस्ताव को बाद में भी बार-बार दोहराया गया. इनके प्रयत्न के परिणामस्वरूप ही सरकार ने पुरानी व्यवस्था में सुधार करके नया ‘भारतीय विधान परिषद विधेयक, 1892‘ पास किया. इसमें गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ाने, सदस्यों को बजट पर बोलने आदि अधिकारों की व्यवस्था थी, परन्तु वोट देने का अधिकार नहीं था. इस प्रकार ‘इंडियन कौंसिल एक्ट, 1892‘ द्वारा भारतीय परिषदों में कुछ सुधार किए गए.

 

इसके बाद से भारतीयों के प्रति अंग्रेजों ने अधिक कठोरता का रुख अपनाना शुरू कर दिया था. 1894 में इंग्लैंड से भारत में आने वाले कपड़े पर आयात-कर घटा दिया गया. 1895-97 के वर्षों में दक्षिण भारत में अकाल की स्थिति व्याप्त थी तथा 1897 में यहां भूकंप से बहुत अधिक नुकसान हुआ. पूना और आस-पास के क्षेत्रों में प्लेग की स्थिति व्याप्त रही. परन्तु सरकार इन सभी स्थितियों को अनदेखा करते हुए उदासीन बनी रही. सरकार के इस व्यवहार से लोगों में असन्तोष की भावनाएं उत्पन्न होने लगी. इसी समय दो युवकों ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड और उसके एक साथी की गोली मारकर हत्या कर दी. परिणामस्वरूप, अंग्रेजों ने अधिक सख्त कानून बना दिए तथा कांग्रेस व लोगों के साथ उनका व्यवहार पहले से अधिक कठोर हो गया. लार्ड कर्जन के समय 1899-1905 के बीच सरकार ने अनेक अन्यायपूर्ण कानून पास किए तथा ऐसे कार्य किए जिनसे लोगों में अत्यधिक असंतोष व्याप्त हो गया. 1905 के बंगाल-विभाजन ने तो लोगों के बीच तूफान खड़ा कर दिया.

 

बंगाल विभाजन, 1905 (Partition of Bengal, 1905)

 

1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा से सम्पूर्ण देश में चारों और विरोध स्वरूप अनेक बैठकें आयोजित की गई. यद्यपि तत्कालीन गवर्नर जनरल. लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन का प्रमुख कारण प्रशासनिक असुविधा बताया परन्तु वास्तव में इसका प्रमुख कारण राजनति से प्ररेति था. चूंकि उस समय बंगाल भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र बिन्दु था तथा बंगालियों में प्रबल राजनीतिक जागृति थी जिसे दबाने के लिए कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर उसे क्रमशः हिन्दू और मुस्लिम बहुलता वाले दो भागों में बांटने और उन्हें आपस में लड़ाने की नीति अपनाई. जंग-भंग की घटना ने न केवल बंगाल में बल्कि सम्पूर्ण देश में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न कर दी. जगह-जगह आम सभाएं होने लगी तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा. 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता में ‘टाउन हाल’ में स्वदेशी आंदोलन की घोषणा की गई, जिसमें ऐतिहासिक बहिष्कार प्रस्ताव पारित किया गया.

16 अक्टूबर, 1905 को पूरे बंगाल में ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई. बंगाल विभाजन के विरोध में पहली बार एक सभा में 50 से 75 हजार लोग एकत्र हुए. बहिष्कार आंदोलन धीरे-धीरे पूरे देश में फैलने . लगा बम्बई और पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने इसका प्रचार-प्रसार किया. अजीत सिंह एवं लाला लाजपत राय ने पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में, सैय्यद हैदर रजा ने दिल्ली तथा आस-पास के स्थानों पर तथा चिदम्बरम् पिल्ले ने मद्रास में इसका प्रचार-प्रसार किया. गोपाल कृष्ण गोखले ने भी इस आंदोलन को पूरा समर्थन दिया.

 

सरकार का रुख (Government’s Attitude)

 

यद्यपि कांग्रेस का रुख आराध में बहुत ही नरम था तथा कांग्रेस पूरी राज-भक्ति के साथ अपनी मांगे प्रस्तुत करती थी, परन्तु सरकार की ओर से उसे कोई सहायता व प्रोत्साहन नहीं मिला. 1886 में इसी भावना से प्रेरित होकर लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में सम्मिलित प्रतिनिधियों को भोज दिया. 1887 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में भी प्रतिनिधियों को पूर्ववत् सुविधाएं मुहैया कराई गई. इसी समय डफरिन ने ह्यूम को सुझाव दिया कि कांग्रेस को अपने कार्यक्रम राजनीतिक गतिविधियों की अपेक्षा सामाजिक गतिविधियों में सुधार की ओर मोड़ देने चाहिए. परन्तु कांग्रेसी नेताओं ने यह सुझाव अस्वीकार कर दिया. 1887 में कांग्रेस ने एक पुस्तिका (Parmphlet) प्रकाशित की, जिसमें दो व्यक्तियों के बीच प्रश्नोत्तर के रूप में तानाशाही राजपद्धति और अन्यत्रवासी भूमिपतियों (Absentee Landlordism) की आलोचना की गई थी. इन कारणों से कांग्रेस और सरकार के बीच गहरे मतभेद उत्पन्न हो गए. अब अंग्रेजों ने कांग्रेस की खुले रूप में आलोचना शुरू कर दी तथा डफरिन जिसने कांग्रेस की स्थापना में पूर्ण सहयोग किया था इसे चुनौती देते हुए कहा कि कांग्रेस केवल एक “सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्या” (Microscopic Minority of the People) का प्रतिनिधित्व करती है तथा मुझे उसका भारतीय जनता के प्रतिनिधित्व का दावा बेबुनियाद लगता है. सरकार ने मुसलमानों को कांग्रेस से अलग करने तथा हिन्दू-मुस्लिमों में परस्पर फूट डालने की नीति शुरू कर दी. 1888 में सर सैय्यद अहमद खाँ द्वारा ‘ऐग्लों मुस्लिम डिफेंस एसोसिएशन‘ की स्थापना सरकार की इस दिशा में प्रारम्भिक सफलता थी. सरकार का रुख भारतीयों के प्रति अब दिन-प्रतिदिन कठोर होता चला गया.

 

उदारवादियों का मूल्यांकन (Analysis of Moderates)

 

यदि हम उदारवादियों के कार्यों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें तो स्पष्ट होता है कि वह अधिक उपलब्ध्यिां प्राप्त कर पाने में असफल रहे. उन्हें बहुत कम सुधार लागू करवाने में सफलता प्राप्त हो पाई. ब्रिटिश भारतीय सरकार ने हमेशा ही इनकी मांगों की उपेक्षा की. उदारवादी तत्कालीन कांग्रेसियों और सामान्य जनता के बीच बहुत अधिक समझबूझ स्थापित करने अर्थात् जनसामान्य को कांग्रेस के साथ जोड़ने में असफल रहे. उदारवादियों के राजनीतिक कार्य अधिक उत्साहवर्धक नहीं थे तथा वे आवेदनों और प्रार्थनाओं के माध्यम से अपनी मांगे प्रस्तुत करते थे. इनके कार्यों को राजनीतिक भिक्षावृत्ति” (Political Mendicancy) कहा गया. लाला लाजपतराय ने इसको अवसरवादी आंदोलन कहा.

उदारवादी ब्रिटिश साम्राज्य के वास्तविक आधार अथवा उसकी प्रकृति को नहीं समझ सके थे. उदारवादियों के विरुद्ध सबसे बड़ा दोषारोपण उनका ‘क्राउन के प्रति राजभक्ति‘ था. उनका यह अनुमान था कि दोनों देशों के हित परस्पर जुड़े हुए हैं तथा उनका यह विश्वास था कि अंग्रेजों के चले जाने से भारतीयों के हितों की हानि होगी. उदारवादी इस बात को समझने में असफल रहे कि भारत ब्रिटिश पूंजीवाद के लाभार्थ अंग्रेजों का एक शोषित आर्थिक उपनिवेश था.

उदार राष्ट्रवादियों की यह आशा कि विदेशी सरकार के आगे हाथ फैलाकर तथा प्रार्थना के माध्यम से भारत के लिए प्रतिनिधि-शासन प्राप्त किया जा सकता है एकदम भ्रान्तिपूर्ण थी. उनकी मांगें दबी जुबान में बिना किसी उत्साह के प्रस्तुत की जाती थी. उन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं था तथा वे अपने शासकों की कृपा पर निर्भर रहे. इसी कारण ब्रिटिश सरकार उदारवादियों की मांगों पर विशेष ध्यान नहीं देती थी तथा वह उदारवादियों के प्रति लगातार उदासीन बनी रही. सरकार शासन में मूल-भूत परिवर्तन करके कभी भी भारतीयों को शासन में भागीदारी प्रदान करने को तैयार नहीं हुई.

यद्यपि उदारवादी शासन-व्यवस्था में अधिक सुधार प्राप्त करवाने में असफल रहे तथापि उन्होंने अपनी नरम नीति के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन को एक मजबूत आधार अवश्य प्रदान किया और अनेक उपयोगी कार्य करने में भी सफलता प्राप्त की. उदारवादियों ने डटकर राजनीतिक मांगों का प्रचार-प्रसार किया, जिससे वह शिक्षित भारतीयों को प्रभावित करने में तथा राष्ट्रीय चेतना को गति प्रदान करने में सफल सिद्ध हुए. इन्हीं के प्रयासों से 1886 में एक ‘लोक सेवा आयोग’ (Public Service Commission) गठित हुआ तथा 1892 में भारतीय परिषदों का अधिनियम’ (Indian Council’s Act) पारित हुआ. परन्तु दोनों से ही लोगों में निराशा हुई. क्योंकि इनसे संविधान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था. कुल मिलाकर उदारवादी युग के नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी. उन्होंने देशवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया. उदारवादी नीतियों में परिवर्तन करके बाद में कांग्रेस ने औपनिवेशिक स्वराज्य तथा स्वाधीनता को अपना लक्ष्य घोषित किया.

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