Tuesday, May 21, 2019

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अधिनियम (Historical Background of Constitution)

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रेगुलेटिंग अधिनियम (Historical Background of the Indian Constitution in hindi)

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रेगुलेटिंग अधिनियम (Historical Background of the Indian Constitution)

  • 26 नवम्बर, 1949 को अंतिम रूप से पारित “भारतीय संविधान” से अभिन्न रूप से जुड़े हुए अनेक ऐसे ऐतिहासिक अधिनियम और चार्टर हैं जिन्हे समय-समय पर ब्रिटिश संसद ने पारित किया और जो भारतीय संविधान के आधार स्तम्भ कहे जाते हैं.
  • संवैधानिक विकास की दिशा में पहला महत्वपूर्ण चरण 1773 का रेगुलेटिंग अधिनियम (Regulating Act, 1773) है.
  • यह अधिनियम भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अकार्यकुशल और अनियंत्रित शासन को नियंत्रित करने की दिशा में भी पहला महत्वपूर्ण कदम था.
  • अधिनियम की प्रमुख धाराएं इस प्रकार हैं-
  1. ईस्ट इंडिया कम्पनी के संचालक-मण्डल (Board of Directors) की कार्य अवधि चार वर्ष तक कर दी गयी . पहले यह अवधि एक वर्ष थी. प्रति वर्ष संचालक-मण्डल के एक-चौथाई सदस्यों के स्थल पर नए सदस्यों का चुनाव होना था. संचालक-मण्डल में कुल 24 सदस्य थे .
  2. बंगाल की प्रेसीडेन्सी में मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियों को मिला दिया गया और सर्वोच्च प्राधिकारी के रूप में वारेन हेस्टिग्ज को बंगाल का प्रथम गवर्नर-जनरल बनाया गया, जिसे भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल कहा जाता है. गवर्नर-जनरल के लिए चार सदस्यों की एक कार्यकारी परिषद् (Executive Council) की भी स्थापना की गई. परिषद् में निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाने की व्यवस्था की गई लेकिन साथ ही मत बराबर होने की स्थिति में गवर्नर-जनरल को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया. परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष रखा गया तथा इस अवधि से पूर्व उन्हें केवल सम्राट ही हटा सकता था. गवर्नर-जनरल को युद्ध, संधि एवं राजस्व संबंधी अधिकार प्रदान किये गए.
  3. बम्बई और मद्रास के गवर्नरों से यह आशा की गई कि वे बंगाल स्थित गवर्नर-जनरल के आदेशों का पालन करें. यदि वे अपने इस कार्य में असफल रहें तो गवर्नर-जनरल को उन्हें पदच्युत करने का अधिकार दिया गया.
  4. गवर्नर-जनरल की परिषद् को कम्पनी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले प्रदेशों के शासन संचालन हेतु सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व स्वीकृति से नियम, विनियम तथा अध्यादेश के निर्माण का अधिकार प्रदान किया गया.
  5. इस अधिनियम के तहत 1774 में कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की स्थापना की गई जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश रखे जाने थे. सर एलिजाह इम्पे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया. इस न्यायालय को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के ब्रिटिश क्षेत्रों पर दीवानी, फौजदारी, समुद्री सेना तथा चर्च संबंधी मामलों पर सुनवाई का अधिकार दिया गया. इस न्यायालय को कलकत्ता नगर, कारखाने, फोर्ट विलियम तथा उसके अधीन अन्य कारखानों के लिए अभिलेख अदालत (Court of Record) भी बनाया गया.
  • अतएव कुल मिलाकर इस अधिनियम द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण प्रारंभ हुआ और भारत में बहुमत के निर्णय को मान्यता मिली.
  • इस अधिनियम का वैधानिक दृष्टि से यह महत्व था कि इसके द्वारा एक व्यापारिक कम्पनी को वैधानिक रूप से यह राजनीतिक अधिकार प्रदान किया गया कि वह ब्रिटिश सरकार के एजेंट के रूप में ब्रिटिश भारत पर नियंत्रण रखें.

1761 का अधिनियम (Act of 1781)

  • 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई थी जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय और कम्पनी के कर्मचारियों एवं गवर्नर-जनरल के मध्य अधिकार क्षेत्र को लेकर व्यापक संघर्ष प्रारंभ हो गया.
  • ब्रिटिश सरकार ने इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए 1781 में एक अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार–
  1. सर्वोच्च न्यायालय कम्पनी के कर्मचारियों के विरुद्ध उन कार्यों के लिए कार्रवाई नहीं कर सकता, जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किये हों.
  2. कम्पनी के राजस्व कलैक्टरों एवं कानूनी अधिकारियों को भी सरकारी अधिकारी के रूप में किये गए कार्यों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र से मुक्त कर दिया गया.
  3. गवर्नर-जनरल एवं उसको परिषद् के सदस्यों को भी यह उन्मुक्तता प्रदान की गई.

पिट्स भारतीय अधिनियम 1784 (Pit’s India Act, 1784)

  • पिट्स भारतीय अधिनियम 1784 अधिनियम के अनुसार-
  1. कम्पनी के राजनीतिक दायित्वों का भार छह सदस्यों के एक नियंत्रण बोर्ड को दिया गया. बोर्ड को भारतीय प्रशासन के संबंध में निरीक्षण, निर्देशन, तथा नियंत्रण संबंधी विस्तृत अधिकार दिए गए.
  2. गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई. परिषद् को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्यशक्ति, देशी रियासतों आदि के अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गई.
  3. यह घोषित किया गया कि सरकारी अधिकारियों को यदि वे किसी अपराध के दोषी सिद्ध हो जाएं तो उनको क्षमा न प्रदान की जाए.
  4. प्रान्तीय गवर्नरों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि ये केन्द्र के निर्देशों का पालन करें.
  5. संचालक मण्डल के स्थान पर राजनीतिक तथा फौजी मामलों के लिए एक गुप्त कमेटी बनाई गई जिसमें तीन संचालक (Directors) होते थे.
  • वास्तव में इस अधिनियम में भारत के एकीकरण में सहायता दी.
  • गवर्नर-जनरल सभी प्रांतीय गवर्नर का सर्वोच्च नियंत्रक हो गया.
  • गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् के सदस्यों की संख्या चूंकि कम कर दी गई थी अतः गवर्नर-जनरल की स्थिति सशक्त हो गयी .
  • नियंत्रक बोर्ड का अध्यक्ष आगे चलकर भारत मंत्री बन गया .

1786 का अधिनियम (Act of 1786)

  • 1786 का अधिनियम के द्वारा लॉर्ड कॉर्नवालिस को भारतीय फौजों का मुख्य सेनापति बना दिया गया.
  • उसे अपने उत्तरदायित्व से संबंधित मामलों पर अपनी परिषद् के निर्णयों के विरुद्ध भी कार्य करने का अधिकार दिया गया.

1793 का अधिनियम (Act of 1793)

1793 का अधिनियम के अनुसार–

  1. प्रान्तीय गवर्नरों को भी अपने विशेष उत्तरदायित्वों के अधीन आने वाले विषयों पर अपनी कौंसिलों के निर्णय बदलने का अधिकार दिया गया.
  2. गवर्नर-जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद् के एक सदस्य को उप-प्रधान नियुक्त कर सकता था जो कि गवर्नर-जनरल की अनुपस्थिति में उसके कर्तव्यों का निर्वाह करता था .
  3. नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के वेतन एवं भत्ते राजस्व पर भारित किये गये .

1813 का चार्टर एक्ट (Charter Act of 1813)

1813 का चार्टर एक्ट के अनुसार–

  1. ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार-पत्र को 20 वर्षों के लिए, और बढ़ा दिया गया.
  2. भारतीय व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार समाप्त करके भारतीय व्यापार को ब्रिटेन के सभी व्यापारियों के लिए खोल दिया गया .
  3. ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गई.
  4. स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं को करारोपण का अधिकार दिया गया और राजस्व संबंधी नियमों तथा लेखांकन की व्यवस्था की गई.

1833 का चार्टर अधिनियम (Charter Act of 1833)

1833 का चार्टर अधिनियम के अनुसार–

  1. बंगाल का गवर्नर-जनरल भारत का गवर्नर जनरल हो गया.
  2. राजस्व केन्द्र सरकार के आदेश से ही प्राप्त किये जा सकते थे.
  3. कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त करके उसे प्रशासनिक तथा राजनीतिक संस्था बना दिया गया.
  4. कम्पनी के नियंत्रण मण्डल का अधिकार क्षेत्र सीमित कर दिया गया.
  5. भारत का विधायी केन्द्रीयकरण (Legislative Centralisation) किया गया . सम्पूर्ण देश के लिए एक समान कानून लागू किया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेजिडेंसियों को उनके कानून-निर्माण संबंधी अधिकारों से वंचित कर दिया गया .
  6. सपरिषद् गवर्नर जनरल को कानून निर्माण का अधिकार दिया गया. वह सब विषयों पर कानून बना सकता था. देश के समस्त न्यायालयों को उन्हें लागू करने के लिए आवश्यक कार्रवाई करनी थी और कोई भी उन्हें लागू करने से इन्कार नहीं कर सकता था.
  7. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में “कानून सदस्य” (Law Member) के रूप में एक नए सदस्य की वृद्धि की गई. यह कार्यकारिणी की बैठकों में विशेष निमंत्रण से उपस्थित होता था लेकिन उसे मत (Vote) देने का अधिकार नहीं दिया गया .
  8. 1833 का चार्टर अधिनियम के द्वारा भारत के कानूनों का वर्गीकरण (Codification) किया गया. इस प्रयोजन के लिए कानून आयोग (Law Commission) की व्यवस्था की गई.
  9. भारत में कम्पनी के अधीन भर्ती के संबंध में किसी भारतीय के साथ धर्म, जन्म-स्थान, निवास तथा वर्ण-भेद के आधार पर कोई भेदभाव न किये जाने की व्यवस्था थी.

1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम (Charter Act of 1853)

1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम के अनुसार–

  1. कार्यकारिणी परिषद् के “कानून सदस्य” को परिषद् का पूर्ण सदस्य बना दिया गया .
  2. प्रान्तों को केन्द्रीय व्यवस्थापिका परिषद (Central Legislative Council) में एक-एक प्रतिनिधि भेजने की व्यवस्था की गई. अतएव किसी प्रान्त से संबंधित किसी विषय पर तब तक विधार नहीं हो सकता था जब तक कि संबंधित प्रान्त का प्रतिनिधि उपस्थित न हों . व्यवस्थापिका परिषद में 12 सदस्य होते थे–(a) गवर्नर-जनरल, (b) मुख्य सेनापति, (c) कार्यकारी परिषद् के चार सदस्य, (d) व्यवस्था संबंधी छह सदस्य, जिनमें से चार प्रान्तों के प्रतिनिधि थे, एक मुख्य न्यायाधीश, एक अवर न्यायाधीश .
  3. बंगाल प्रेजिडेंसी के लिए एक अलग गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गई जिसके फलस्वरूप बंगाल के लिए लेफ्टीनेंट-गवर्नर की व्यवस्था की गई.
  4. सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए प्रतियोगिता – के आयोजन की व्यवस्था की गई. इस संबंध में 1854 में मैकाले आयोग स्थापना की गई.
  5. 1853 का अधिकार-पत्र अधिनियम में कम्पनी को पुनः अधिकार-पत्र उन कर दिया गया कि कम्पनी भारतीय इलाकों पर ब्रिटिश सम्राट और उसके अधिकारियों की ओर से तब तक शासन करे जब तक कोई अन्य व्यवस्था न कर दी जाए.

1858 का भारत शासन अधिनियम (Government of India Act, 1858)

  • सन् 1857 के विद्रोह के साथ दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं–
  1. यह ब्रिटिश शासन के विरोध में पहला जन संघर्ष था जो इतने बड़े पैमाने पर सामने आया, यद्यपि सफल न हो सका.
  2. इस विद्रोह को कुचलने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर सीधे अपने हाथ में ले लिया.
  • इसके साथ ही हमारे वर्तमान संविधान के निर्माण की प्रक्रिया की ऐतिहासिक शुरूआत हुई, जिसकी प्रथम कड़ी के रूप में ब्रिटिश संसद (British Parliament) ने भारत शासन अधिनियम-1858 (Government of India Act-1858) पारित किया.
  • 1858 का भारत शासन अधिनियम इस रूप में उल्लेखनीय है कि इसमें सम्राट (ब्रिटिश क्राउन) के नियंत्रण का प्रमुख स्थान था और प्रशासन में जनता का कोई स्थान नहीं था .
  • 1858 का भारत शासन अधिनियम के तहत सम्राट की शक्तियों का प्रयोग भारत सचिव (Secretary of State for India) द्वारा 15 सदस्यों की एक परिषद की सहायता से (जो भारत परिषद् (Council of India) के नाम से ज्ञात थी) , किया जाना था.
  • भारत परिषद् (Council of India) अनन्य रूप से इंग्लैण्ड के व्यक्तियों से मिलकर बनती थी जिसमें से कुछ सम्राट द्वारा नाम-निर्देशित होते थे और कुछ ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों के प्रतिनिधि होते थे.
  • भारत सचिव (Secretary of State for India) ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था और गवर्नर-जनरल (Governor-General) के माध्यम से भारत का शासन करता था.
  • गवर्नर-जनरल कार्यकारी परिषद् (Executive Council) की सहायता से कार्य करता था.
  • परिषद में सरकार के उच्च अधिकारी होते थे.

कुल मिलाकर

1858 के अधिनियम के तहत-

  1. भारतीय प्रशासन अत्यधिक केन्द्रीयकृत था . सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र को प्रान्तों में बांटा गया था और प्रत्येक के शीर्ष पर एक गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर (Lieutenant Governor) था जिसकी सहायता के लिए कार्यकारी परिषद् थी तथापि इन प्रान्तीय सरकारों को गवर्नर-जनरल (Governor-General) के अधीक्षण, निर्देश और नियंत्रण के अधीन काम करना पड़ता था.
  2. भारत सरकार के समस्त प्राधिकार–सिविल (Civil), सैनिक (Military), कार्यपाल (Executive) और विधायी (Legislative) – सपरिषद् गवर्नर-जनरल में निहित थे जो कि भारत सचिव (Secretary of State for India) के प्रति उत्तरदायी था.
  3. प्रशासन का सम्पूर्ण तंत्र अधिकारी तंत्र था जिसका भारत की जनता से कोई लेना देना नहीं था.

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 (Indian Council Act, 1861)

  • भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 में यह उपबन्ध किया गया कि गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद्, जो अभी तक अनन्य रूप से सरकारी अधिकारियों को एक समूह थी, उस समय जब परिषद् विधान परिषद् के रूप में विधायी कार्य करेगी, में कुछ गैर सरकारी सदस्य भी सम्मिलित किए जाएंगे.
  • किन्तु यह परिषद् किसी लोक-प्रतिनिधि संस्था से किसी भी रूप में समान न थी.
  • इसमें सदस्य मनोनीत किए जाते थे जिनका कार्य गवर्नर-जनरल द्वारा उनके समक्ष रखे गए प्रस्तावों पर केवल विचार-विमर्श करने तक सीमित था .
  • साथ ही ये किसी भी रीति से प्रशासनिक कार्यों की आलोचना का अधिकार नहीं रखते थे.
  • 1861 के अधिनियम के उक्त प्रावधान प्रान्तीय स्तर पर विधान परिषद के लिए भी थे.

भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 (Indian Council Act, 1892)

  • Council Act 1892 भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 द्वारा विधायी क्षेत्र में दो उल्लेखनीय सुधार किये गए-
  1. भारतीय विधान परिषद् में शासकीय सदस्यों (Oficial members) का बहुमत रखा गया किन्तु गैर-सरकारी सदस्य बंगाल चैम्बर आफ कामर्स और प्रान्तीय विधान परिषद् द्वारा नामनिर्दिष्ट होने लगे तथा प्रान्तीय परिषदों के गैर सरकारी सदस्य कुछ स्थानीय संस्थायें जैसे -विश्वविद्यालय, जिला बोर्ड, नगरपालिका आदि से नामनिर्दिष्ट होने लगे.
  2. परिषदों को राजस्व और व्यय के वार्षिक कथन अर्थात् बजट (Budget) पर विचार विमर्श करने की और कार्यपालिका से प्रश्न पूछने की उल्लेखनीय शक्ति दी गई.

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 या मोर्ले मिंटो सुधार (Indian Council Act, 1909 or Morley-Minto Reforms)

  • भारत के तत्कालीन सचिव (Secretary of State) लॉर्ड मोर्लेऔर वाइसराय (The Viceroy) लार्ड मिंटो के नाम पर प्रतिनिधिक और लोकप्रियता के क्षेत्र में किए गए सुधारों का समावेश 1909 के भारतीय परिषद् अधिनियम में किया गया.
  • मोर्ले मिंटो सुधार के तहत प्रान्तीय विधान परिषदों के आकार में वृद्धि करते हुए कुछ निर्वाचित गैर सरकारी सदस्य सम्मिलित किये गये जिससे शासकीय बहुमत समाप्त हो गया .
  • केन्द्रीय विधान परिषद् में भी निर्वाचन का समावेश हुआ किन्तु शासकीय बहुमत बना रहा.
  • 1909 के अधिनियम में जो निर्वाचन पद्धति अपनायी गयी उसका एक गंभीर दोष मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का उपबन्ध था.
  • इस उपबन्ध का समावेश करवाने में 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग काफी हद तक उत्तरदायी थी.
  • मोर्ले मिंटो सुधार अधिनियम की ही एक दुखद परिणति 1947 के भारत-विभाजन के रूप में हुई.

भारत शासन अधिनियम 1919 और मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन (Government of India Act, 1919 and the Recommendations of Montague-Chelmsford)

  • भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट श्री इ.एस. मोंटग्यू और गवर्नर-जनरल लॉर्ड चेम्सफोर्ड को ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की 20 अगस्त 1917 की ब्रिटिश सरकार की घोषणा की कार्यरूप देने का कार्य सौंपा गया.
  • Government of India Act, 1919 भारत शासन अधिनियम 1919 में इनकी सिफारिशों को एक विधिक रूप प्रदान किया गया .
  • भारत शासन अधिनियम 1919 में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई

(1) प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy in the Provinces)

  • गवर्नर-जनरल के माध्यम से प्रांतीय गवर्नर का उत्तरदायित्व कम न हो यह ध्यान रखते हुए प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रयत्न किया गया .
  • इसके लिए द्वैध शासन या द्विशासन की पद्धति का सहारा लिया गया .
  • प्रान्त के प्रशासनिक विषयों की दो प्रवर्गों में बाँटा गया-केन्द्रीय और प्रान्तीय (Central and Provincial) केन्द्रीय विषय केन्द्र सरकार के अनन्य नियंत्रण में थे जबकि प्रान्तीय विषयों को फिर दो भागों में बांटा गया-
  • अन्तरित और आरक्षित (transferred and reserved) अन्तरित विषयों, का प्रशासन गवर्नर द्वारा विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से किया जाना था.
  • विधान परिषद् के निर्वाचित सदस्यों का अनुपात बढ़ाकर 70 प्रतिशत कर दिया गया.
  • आरक्षित विषय, गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद् द्वारा शासित किये जाने थे. इसमें विधानमंडल के प्रति कोई उत्तरदायी नहीं था.

 

(2) प्रान्तों पर केन्द्रीय नियंत्रण का शिथिलीकरण (Relaxat Central Control Over the Provinces)

  • अखिल भारतीय महत्व के विषयों के ‘केन्द्रीय’ (Centra) और प्राथमिक रूप से प्रान्तों के प्रशासन से सम्बन्धित विषयों को ‘प्रांतीय’ (Provinces) प्रवर्गों में रखने के कारण प्रान्तों पर पूर्ववर्ती केन्द्रीय नियंत्रण प्रशासनिक, विधायी और वित्तीय विषयों में शिथिल हो गया.
  • राजस्व के क्षेत्र में प्रान्तीय बज़ट को भारत सरकार के बजट से अलग रखा गया और प्रान्तीय विधानमंडल को यह शक्ति दी गई कि वह अपना बज़ट प्रस्तुत कर सके और प्रान्त के राजस्व (Revenue) के स्रोतों से सम्बन्धित अपने कर उद्गृहीत कर सके (Levy its own taxes).
  • प्रांतीय विधान पर गवर्नर-जनरल के नियंत्रण को बनाए रखने के लिए प्रांतीय गवर्नर को यह शक्ति दी गई कि वह, इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट विषयों से सम्बन्धित विधेयक को गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित कर सके.

भारतीय विधानमंडल को अधिक प्रतिनिधिक बनाना : (The Indian Legislature Made More Representative)

  • प्रान्तों की भांति केन्द्र में उत्तरदायित्व को कोई स्थान न दिया गया.
  • सपरिषद् गवर्नर-जनरल भारत के लिए भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी बना रहा.
  • भारत शासन अधिनियम 1919 के तहत पहली बार विधान मंडल द्विसदनीय बनाया गया.
  • उच्चतर सदन जिसे राज्य परिषद् (Council of State) नाम दिया गया 60 सदस्यों से मिलकर बनती थी जिसमें से 5 निर्वाचित थे.
  • निचले सदन (Lower House) में जिसे विधान सभा (Legislative Assembly) नाम दिया गया, 144 सदस्य थे जिनमें से 104 निर्वाचित थे.
  • दोनों सदनों की शक्तियाँ समान थीं किन्तु प्रदाय के लिए मतदान की शक्ति (Power to vote for Supply) अनन्य रूप से विधान सभा को दी गई थी.
  • निर्वाचक मंडल जाति और धर्म (भाग) के आधार पर बनाकर मोर्ले मिंटो युक्ति को आगे बढ़ाया गया .

इसके अतिरिक्त गवर्नर जनरल की निम्न शक्तियों को पूर्ववत बनाए रखा गया–

  1. कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को पुनःस्थापित करने के लिए उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक थी.
  2. विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को वीटो करने या सम्राट के लिए आरक्षित करने की शक्ति उसकी थी.
  3. वह विधानमंडल द्वारा नामंजूर किये गए विधेयक या अनुदान को पारित या प्रदत (विधानमंडल द्वारा) नर्षित कर सकता था.
  4. वह अध्यादेश (Ordinances) जारी कर सकता था .

अधिनियम के दोष (Shortcomings of the Act)

  • भारत शासन अधिनियम 1919 के बाद भी प्रशासन ऐकिक और केन्द्रीकृत ही बना रहा जिसका एक उदाहरण यह है कि कोई विषय केन्द्रीय (Central) है या प्रांतीय (Provincial) यह निर्णय करने का प्राधिकार (Authority) गवर्नर-जनरल को था न्यायालय को नहीं .

प्रान्तीय क्षेत्र में द्वैध शासन प्रणाली के निम्न दोष सामने आए–

  1. वित्त आरक्षित विषय था और इसलिए कार्यकारी परिषद के प्रभार में रखा जाता था मंत्री के नहीं, इससे धन के अभाव में मंत्री के लिए कोई प्रगतिशील कार्य करना संभव न था.
  2. जिन लोक सेवकों के माध्यम से मंत्रियों को अपनी नीतियाँ लागू करनी होती थी, उनकी भर्ती सेक्रेटरी आफ स्टेट (भारत सचिव) द्वारा होती थी और उसी के प्रति वें उत्तरदायी रहते थे.
  3. प्रांतीय विधानमंडलों के प्रति मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व की कोई व्यवस्था नहीं थी .
  4. गवर्नर मंत्रियों की सलाह मानने या न मानने के लिए बाध्य ना था .
  • अतः उक्त अधिनियम भी भारतीय आकांक्षाओं को तुष्ट न कर सका.

साइमन आयोग (The Simon Commission)

  • 1919 के भारत शासन अधिनियम के कार्यकरण की जांच के लिए अधिनियम की धारा 84(क) के तहत 1928 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानूनी आयोग नियुक्त किया.
  • 1929 में ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि भारतीय राजनीतिक विकास का उद्देश्य डोमिनियम स्तर (Dorainion Status) है.
  • साइमन आयोग के अध्यक्ष सर जॉन साइमन ने 1980 में अपना प्रतिवेदन दिया.
  • इस प्रतिवेदन पर एक गोलमेज सम्मेलन (Round table conference) में विचार किया गया जिसमें ब्रिटिश सरकार के, ब्रिटिश भारत के, और देशी रियासतों के शासक प्रतिनिधि थे.
  • उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत योजना में एक परिसंघ बनाकर देशी रियासतों को शेष भारत से जोड़ना था.
  • इस सम्मेलन पर जारी एक श्वेत पत्र पर ब्रिटिश संसद की एक संयुक्त प्रवर समिति (Joint select committee of the British Parliament)द्वारा की गई जांच और प्रस्तुत की गई सिफारिशों के अनुसार कुछ संशोधनों सहित 1935 का भारत शासन अधिनियम पारित किया गया .

भारतीय शासन अधिनियम, 1935 (Government of India Act, 1935)

  • ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा 4 अगस्त, 1932 को दिये गए साम्प्रदायिक अधिनिर्णय के आधार पर साम्प्रदायिक वैमनस्य को और अधिक बाते हुए मुसलमानों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व के साथ-साथ सिखों के लिए, यूरोपीय लोगों के लिए, ईसाइयों के लिए और एंग्लो-इंडियन लोगों के लिए ई पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर दी गई.

1935 के अधिनियम में निम्नलिखित मुख्य व्यवस्थाएँ थी

(1) परिसंघ और प्रान्तीय स्वायत्तता (Federation and Provincial Autonomy)

  • 1935 के अधिनियम में परिसंघ की स्थापना की गई जिसमें इकाइयाँ थी–प्रांत और देशी रियासतें .
  • चूंकि देशी रियासतों के शासकों ने अपनी सहमति नहीं दी इसलिए परिसंघ की योजना पूर्ण न हो सकी.
  • किन्तु विधायी शक्तियों को प्रांतीय और केन्द्रीय विधान-मंडल के बीच विभाजित करके अधिनियम के एक भाग को 1937 में प्रभावी किया गया .
  • प्रान्त अपने परिवेश में केन्द्र सरकार के प्रत्यायोजिती (delegates) नहीं है बल्कि स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे.

 

  • गवर्नर, सम्राट की ओर से प्रान्त की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करता था.
  • इस प्रकार वह गवर्नर-जनरल के अधीन नहीं था.
  • किंतु उससे यह अपेक्षा की गई कि वह मंत्रिमंडल की सलाह से कार्य करेगा और मंत्री विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी थे. –
  • कुछ विषयों में गवर्नर से स्वविवेकानुसार या अपने स्वयं के विवेकानुसार (‘In his discretion or his individual judgement) कार्य करने की अपेक्षा थी जिसके कारण केन्द्र सरकार का एक विशेष क्षेत्र में प्रान्तों पर नियंत्रणु बना रहा.
  • क्योकि ‘स्वविवेक’ सम्बन्धी कार्य गवर्नर-जनरल और उसके माध्यम से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (Secretary of State) के नियंत्रण और निर्देश से होते थे .

(2) केन्द्र में द्वैध शासन (Dyarchy at the centre)

  • केन्द्र की कार्यपालिका  शक्ति (सम्राट के निमित्त) गवर्नर-जनरल में निहित थी जिसके विषयों को दो समूहों में बांटा गया था- ‘आरिक्षत’ (Reserved) जिनमें प्रतिरक्षा, विदेश कार्य, चर्चा सम्बन्धी कार्य और जनजाति क्षेत्र का प्रशासन गवर्नर जनरल को स्वविवेकानुसार ( in his discretion ) और अपने द्वारा नियुक्त परामर्शदाताओं (Counsellors) की सहायता से करना था.
  • ये परामर्शदाता विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे.
  • ‘अन्तरित विषय’ (Transferred subjects) अर्थात् वे विषय जिन पर उसे मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करना था.
  • मंत्रिपरिषद् विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी था.
  • किन्तु इस क्षेत्र में भी उसका ‘विशेष उत्तरदायित्व’ (Special Responsibilities) अन्तर्वलित होता था और वह मंत्रिपरिषद् द्वारा दी गई सलाह के विरुद्ध भारत सचिव के नियंत्रण और निर्देश में कार्य कर सकता था.

(3) द्विसदनीय विधानमंडल (Bicameral Legislature)

  • केन्द्रीय विधानमंडल में दो सदन थे जो परिसंघ विधानसभा और राज्य परिषद् से मिलकर बनते थे.
  • छह प्रांतों में विधानमंडल द्विसदनीय थे जो विधानसभा और विधान परिषद से मिलकर बनते थे.
  • शेष प्रान्तों के विधानमंडल में एक सदन था . किन्तु केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमंडलों की शक्तियाँ कुछ शर्तों के अधीन थी. जैसे–
  1. विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक पर क्रमशः गवर्नर या गवर्नर-जनरल वीटो (Veto) कर सकता था.
  2. विशेष उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में भी वह कार्यवाही को निलंबित कर सकता था.
  3. विधानमंडल के सत्रावसान के दौरान अध्यादेश (Ordinances) जारी कर सकता था.

(4) केन्द्र और प्रांतों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन (Distribution of Legislative Powers between the Centre and the Provinces)

  • इस अधिनियम को तीन सूचियों में विभाजित किया गया:–

1 परिसंघ सूची-

  • इस पर परिसंघ अर्थात् केन्द्रीय विधानमण्डल को विधान बनाने की अनन्य शक्ति थी.
  • इस सूची में विदेशी कार्य, करंसी और मुद्रा, नौसेना, सेना और वायु सेना, जनगणना जैसे विषय थे.

2 प्रान्तीय सूची-

  • इस पर प्रांतीय विधानमण्डलों की अनन्य अधिकारिता थी.
  • उदाहरणार्थ पुलिस, प्रान्तीय लोकसेवा और शिक्षा.

3 समवर्ती सूची-

  • इस पर परिसंघ और प्रांतीय विधानमण्डल दोनों को विधान बनाने की अधिकारिता थी.
  • जैसे – दंड-विधि और प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह और विवाह-विच्छेद आदि .

 

  • गवर्नर-जनरल द्वारा आपात की उद्घोषणा किये जाने पर परिसंघ विधान मंडल को प्रांतीय सूची में प्रगणित विषयों की बाबत विधान बनाने की शक्ति थी .
  • इसके अलावा जब दो या दो से अधिक प्रांतीय विधानमंडल प्रांतीय सूची के किसी विषय पर कानून बनाने या अध्यादेश जारी करने का आग्रह करे तो केन्द्र अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता था.
  • समवर्ती क्षेत्र में विरोध की दशा में परिसंघ विधि प्रांतीय विधि पर विरोध की सीमा तक मान्य होती

थी .

 

  • यह उल्लेखनीय है 1929 में जिस ‘डोमिनियन स्तर” (Dominion Status ) का वचन दिया गया था 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा प्रदत्त नहीं की गई.

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (Indian Independence Act, 1947)

(1) ब्रिटिश संसद की प्रभुता और उत्तरदायित्व का उत्सादन (Abolition of the Sovereignty and Responsibility of the British Parliament)

  • 1858 के भारत शासन अधिनियम द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से निकल कर ब्रिटिश सम्राट के हाथ में आ गया था किंतु 1947 के भारत स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा यह घोषित किया गया कि 15 अगस्त, 1947 से (जिसे ‘नियत दिन’ appointed day कहा गया) भारत ब्रिटेन के अधीनस्थ राज्य नहीं रहा और देशी रियायतों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुता तथा जनजाति क्षेत्रों से उनके संधि सम्बन्ध उसी दिन से समाप्त हो गये और भारत के लिए भारत सचिव ( Secretary of State for India ) का पद भी समाप्त कर दिया गया.

(2) सम्राट का प्राधिकार समाप्त (End of the Authority of Crown)

  • 1947 से पूर्व भारत का शासन “हिज़ मैजेस्टी” (His Majesty) के नाम से चलाया जाता था किन्तु स्वतंत्रता अधिनियम के पश्चात् सम्राट का भारत पर से प्राधिकार समाप्त हो गया.

(3) गवर्नर और गवर्नर-जनरल का सांविधानिक अध्यक्ष होना (The Governor and Governor-General as Constitutional Head)

  • 1947 के अधिनियम द्वारा भारत और पाकिस्तान नामक दोनों डोमिनियनों के गवर्नर और गवर्नर-जनरल अपने-अपने क्षेत्रों के सांविधानिक प्रमुख हो गये.
  • 1935 के अधिनियम में प्रस्तावित यह स्तर (Status) 1947 के अधिनियम में प्रदान किया गया .
  • इस अधिनियम के द्वारा 1919 के अधिनियम के तहत बनाई गई कार्यकारी परिषद् या 1935 के अधिनियम में उपबन्धित परामर्शदाता समाप्त हो गए.
  • गवर्नर-जनरल और प्रांतीय गवर्नर मंत्रिपरिषद् की सलाह पर काम करने लगे.
  • मंत्रिपरिषद् को डोमिनियन विधानमंडल या प्रान्तीय विधानमंडल का विश्वास होना आवश्यक था.
  • अधिनियम में गवर्नर-जनरल या गवर्नर की ‘विवेकाधीन (Individual Judgement) शक्तियों को कोई स्थान नहीं दिया गया .
  • फलतः ऐसा कोई क्षेत्र न बचा जहाँ सांविधानिक अध्यक्ष मंत्रियों की सलाह के बिना या उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य कर सके.
  • साथ ही गवर्नर-जनरल की उस शक्ति का भी लोप कर दिया गया जिसके अनुसार वह गवर्नरों से यह अपेक्षा करे कि वे उसके अभिकर्ता के रूप में कार्य करें.

(4) डोमिनियन विधानमंडलों की प्रभुता (Sovereignty of the Dominion Leare)

  • 14 अगस्त 1947 क भारत का केन्द्रीय विधान मंडल विघटित हो गया और नियत दिन ( appointed day ) से नए संविधान की रचना तक संविधान सभा की है अपने डोमिनियन के केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य करना था.
  • ध्यान देने योग्य बात यह है कि संविधान सभा ने इस दौरान दो रूपों में कई किया एक, संवैधानिक दूसरा, विधायी .
  • डोमिनियन विधानमंडल सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न था .

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