प्रागैतिहासिक काल (The Pre-Historic Time) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)
भूमिका
- इतिहास पूर्व विषय मानव की कहानी है जो दूर अतीत से शुरू होती है. जब मनुष्य ने अपने पशु-पूर्वजों से सम्बन्ध विच्छेद किया और उस समय तक चलती है जब उसने अपने अस्तित्व का ऐसा रिकार्ड छोड़ा है जहां से ऐतिहासिक अन्वेषक वास्तविक जगत में पहुंच जाता है.
- आर. ब्रूस फुट ने 1863 ई. में मद्रास के पास पल्लवरम् में पाषाणकालीन मानवों की खोज की. इस महत्वपूर्ण कार्य की प्रगति में धन की कमी के कारण बाधा आयी. किन्तु अब इस काल के विषय में हमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त है.
- प्रागैतिहासिक काल को सामान्यतः तीन भागों में बाँटा जाता है.
- पुरापाषाण काल
- मध्य पाषाण काल तथा
- नव या उत्तर पुरा पाषाण काल .
पुरापाषाण काल (25,00000-10,000 ई.पू.)
- इस काल को भी तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है
- निम्न पुरापाषाण (25,00000–1,00000 ई.पू.)
- मध्यपुरापाषाण (1,00000-40,000 ई.पू.)
- उच्च पुरापाषाण (40,000-10,000 ई.पू.)
- सर्वप्रथम पाषाणकालीन सभ्यता तथा संस्कृति का अन्वेषण ब्रूस फूट महोदय ने 1862 ई. में किया.
- अधिकांश हिमयुग निम्न या आरंभिक पुरापाषाण युग में ही बीता.
- इस काल के लक्षण हैं-कुल्हाड़ी या हस्तकुठार (हैंड-एक्स), विदारिणी (क्लीवर) और खंडक (गैडासा) के प्रयोग निम्न पुरापाषाण युग के स्थल वर्तमान पाकिस्तान के सोहन घाटी में पाए जाते हैं.
- इस काल के औजार उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर जिला के बेलन घाटी से भी प्राप्त हुए हैं.
- राजस्थान की मरूभूमि के दिदवाना क्षेत्र में, बेलन और नर्मदा की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश में भोपाल के भीमबेटका की गुफाओं और शैलाश्रयों से जो औजार प्राप्त हुए हैं, वे लगभग 1,00000 ईसा पूर्व के हैं.
- भीमबेटका से कलाकृतियाँ भी प्राप्त मध्य पुरापाषाण युग मुख्यतः शल्क से बनी वस्तुओं का था. मुख्य औजारों के अंतर्गत विविध प्रकार के फलक, बेधनी, छेदनी और खुरचनी आते हैं.
- इस युग का शिल्प-कौशल नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई स्थानों तथा तुंगभद्रा नदी के दक्षिणवत्त कई स्थानों पर पाया जाता है.
- उच्च-पुरापाषाण युग में आर्द्रता कम हो गई थी. इस युग की दो (विश्वव्यापी) विशेषताएँ हैं-नए चकमक उद्योग की स्थापना तथा आधुनिक प्रारूप के मानव (होमोसेपिएन्स) का उदय.
- आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र केन्द्रीय मध्य प्रदेश, द, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के पठार में फलकों तथा लक्षणियों का प्रयोग होता था. इस काल के मानवों की गुफाएँ भीमबेटका से मिली हैं.
मध्य पाषाण काल (9000-4000 ई.पू.)
- यह काल पुरा पाषाणकाल तथा नवपाषाणकाल दोनों की सम्मिश्रित विशिष्टाओं का प्रदर्शन करता है.
- इस युग में पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं में परिवर्तन हुए तथा मानव के लिए नए क्षेत्रों की ओर अग्रसर होना संभव हुआ.
- मध्य पाषाण काल के लोग शिकार करके, मछली पकड़कर तथा खाद्य वस्तुएँ बटोरकर पेट भरते थे.
- आगे चलकर के पशु-पालन भी करने लगे.
- मध्य पाषाण काल के विशिष्ट औजार हैं-सूक्ष्म-पाषाण (पत्थर के परिष्कृत औजार).
- मध्य पाषाण काल के स्थल राजस्थान, दक्षिण उत्तर प्रदेश, केन्द्रीय और पूर्वी भारत तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में पाए जाते हैं.
- बागोर (राजस्थान) में सूक्ष्म-पाषाण उद्योग था, लोगों की जीविका शिकार और पशुपालन थी.
- मध्य प्रदेश के आजमगढ़ और बागोर पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, जिसका समय लगभग 5000 ई.पू. है.
- राजस्थान के एक नमक-झील सम्भर के जमाओं से पता चलता है कि 7000-6000 ई.पू. के आस-पास पौधे लगाए जाते थे.
नव पाषाण काल (6,000-1000 ई.पू.)
- विश्व स्तर पर इस काल की शुरूआत 9,000 ई.पू. से होती है.
- पाकिस्तान के मेहरगढ़ (बलूचिस्तान प्रान्त) से मिली एक वस्ती का काल 7000 ई.पू. है. विन्ध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर पाए गए कुछ स्थलों को 5,000 ई. पू. माना गया है, किन्तु दक्षिण भारत में पाई गई नव-पाषाण बस्तियाँ 2,500 ई.पू. से पहले की नहीं है.
- भारत के कुछ स्थल (दक्षिणी और पूर्वी भागों में) केवल 1,000 ई.पू. के है. इस काल के लोग पालिशदार पत्थर के औजारों और हथियारों का प्रयोग करते थे. कुल्हाड़ियाँ देश के अनेक भागों में काफी विशाल मात्रा में पाई गई हैं.
- नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल निम्न हैं-
पिकलीहल
- कर्नाटक स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से शंख के ढेर और निवास स्थान दोनों पाये गये हैं.
मेहरगढ़
- बलूचिस्तान स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य एवं नव पाषाणिक प्राचीनतम वस्ती एवं कच्चे घरों के साक्ष्य मिले हैं.
भीमबेटका
- भोपाल के समीप स्थित इस पुरापाषाण कालीन स्थल से अनेक चित्रित गुफाएं, शैलाश्रय (चट्टानों से बने शरण स्थल) तथा अनेक प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं.
आमदगढ़ एवं बागोर
- मध्य प्रदेश के आदमगढ़ एवं राजस्थान के बागोर नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं.
- जिनका समय लगभग 5000 ई. पू. हो सकता है.
बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल
- कश्मीरी नवपाषाणिक पुरास्थल से गर्तावास (गड्ढ़ा घर) कृषि तथा पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं.
चिराँद
- (बिहार प्रान्त) एक मात्र नव पाषाणिक पुरास्थल जहाँ से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण प्राप्त हुए हैं.
- यहाँ से प्राप्त हड्डियों की तिथि अधिक-से-अधिक 1,600 ई. पू. है.
विन्ध्य के उत्तरी पृष्ठों पर मिर्जापुर और इलाहाबाद जिलों में कई स्थल है. इलाहाबाद के स्थलों में कोल्डिहवा में चावल का उत्पादन ईसापूर्व छठी सहस्त्राब्दी में होता था.
- बुर्जहोम से प्राप्त कब्रों में पालतू कुत्तों को उनके मालिकों के साथ दफनाया गया है.
- यह प्रथा भारत के अन्य किसी स्थल से प्राप्त नहीं होती.
- मेहरगढ़ के लोग अधिक उन्नत थे तथा वे गेहूँ, जौ, रूई उपजाते थे.
- नवपाषाण युग के निवासी सरकंडे के बने गोलाकार या आयाताकार घरों में रहते थे.
ताम्र-पाषाण : कृषक संस्कृतियाँ
- नवपाषाण युग की समाप्ति के बाद सबसे पहले तांबे का प्रयोग शुरू हुआ तथा तांबे और पाषाण (पत्थर) का साथ-साथ प्रयोग कई संस्कृतियों का अTधार बना.
- भारत में ताम्र-पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र हैं-
- दक्षिण-पूर्वी राजस्थान– आहार एवं गिलंद.
- पश्चिमी मध्य प्रदेश– मालवा, कथा, एरण, नवादातोली.
- पश्चिमी महाराष्ट्र-जोरवे, नेवासा, दैमाबाद (तीनों अहमदनगर में), चन्दोली, सोन गाँव, इनामगाँव, प्रकाश और नासिक (पुणे में)
- दक्षिणी-पूर्वी भारत– दक्षिणी-पूर्व राजस्थान की संस्कृति को ‘आहार संस्कृति’ कहा जाता है.
दक्षिण-पूर्वी राजस्थान
- बनास नदी घाटी के नाम से इसे बनास संस्कृति’ भी कहा जाता है.
- आहार और गिलंद दोनों ही बड़ी बस्तियाँ थीं. आहार का टीला 1500 x 800 फुट तथा गिलंद का टीला 1500 x 750 फुट बड़ा है.
- निर्माण कार्य का अधिकांश साक्ष्य आहार से प्राप्त होता है. यहाँ से तंदुर प्राप्त हुए हैं.
- गिलुद से पक्की ईटों का साक्ष्य प्राप्त होता है. आहार में चावल की खेती होती थी. बाजरा भी उपजाया जाता था.
- आहार संस्कृति का काल 2100-1500 ई.पू. था. आहार का प्राचीन नाम ताम्बवती था-अर्थात् तावा वाली जगह.
- गिलंद, आहार संस्कृति का स्थानीय केन्द्र था.
- आहार से मछली, गाय, कछुए, मुर्गे, भैंस, बकरी, भेड़, हिरण, सुअर की पशु-अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं.
- यहाँ से मृण्मूर्तियाँ, मनके, मुहरें भी प्राप्त हुई हैं. तांबे की वस्तुओं में अंगुठियाँ, चूडियाँ, चाकू के फाल, कुल्हाड़ियाँ तथा सुरमे की सलाइयाँ प्राप्त हुई हैं.
पश्चिमी मध्य प्रदेश
- पश्चिमी मध्य प्रदेश से प्राप्त स्थलों को ‘मालवा संस्कृति’ के नाम से जाना जाता है.
- इन स्थलों में कयथा और नवादातोली दो सबसे महत्वपूर्ण स्थल हैं.
- इस संस्कृति का काल 2200-2000 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है.
- नवादातोली का उत्खनन कार्य प्रो. एच. डी. संकालिया ने करवाया है.
- यहाँ से प्राप्त फसलों में-दो किस्म का गेहूँ, अलसी, मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर और केसारी शामिल हैं.
- मालवा संस्कृति (नवादातोली) के मृदभांड उत्तम कोटि के हैं.
पश्चिमी महाराष्ट्र
- महाराष्ट्र के उत्खनित स्थलों में दायमाबाद अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि महाराष्ट्र के आद्य ऐतिहासिक जीवनयापन का आधारभूत अनुक्रम यहीं प्राप्त हुआ है.
- इस संस्कृति को जोरवे संस्कृति कहा जाता है.
- जोरवे संस्कृति की तिथि 1400-1000 ईसा-पूर्व निर्धारित की गई है, किन्तु इनामगाँव जैसे स्थलों पर यह संस्कृति 700 ईसा पूर्व तक विद्यमान रही.
- दायमाबाद से तांबे की चार वस्तुएं प्राप्त हुई हैं-
- रथ चलाते हुए मनुष्य,
- सांड,
- गेंडे तथा
- हाथी .
- यहाँ से बेर की झुलसी गुठली भी प्राप्त हुई है.
- नेवासा से पटसन को साक्ष्य मिला है.
- जोरवे संस्कृति में कलश-शवाधान प्रचलित था. ये कलश घरों में फर्श के नीचे रखे जाते थे.
- टोंटीदार बर्तन ‘जोरवे संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता है.
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प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्व (The Importance of Ancient Indian History)
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