Tuesday, November 19, 2019

वैदिक काल (The Vedic Age)

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Wednesday, September 25, 2019

AnyRor Anywhere Gujarat 7/12 8a ऑनलाइन कैसे देखें 2019

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Sunday, September 15, 2019

भू नक्शा यूपी अपनी जमीन का नक्शा कैसे देखें ?

भू नक्शा यूपी अपनी जमीन का नक्शा कैसे देखें ?

भू नक्शा यूपी वह ऑनलाइन वेब पोर्टल है जहां पर आप घर बैठे अपनी जमीन का या उत्तर प्रदेश राज्य के किसी भी व्यक्ति की जमीन का भूलेख मैप देख सकते हैं .यह सुविधा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भू अभिलेख की जानकारी प्रदान करती है. भूलेख यूपी के माध्यम से जमीन का खसरा खतौनी जमाबंदी तो हम देख ही सकते हैं 

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एमपी रोजगार पंजीयन ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन फॉर्म कैसे भरें ?

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Saturday, September 14, 2019

युवा स्वाभिमान योजना एमपी रजिस्ट्रेशन 2019 | मध्य प्रदेश

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Friday, September 13, 2019

Bhoomi RTC online Land Record Karnataka | Pahani 2019

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Tuesday, September 3, 2019

Friday, July 12, 2019

भारत की प्रागैतिहासिक जातियाँ और संस्कृतियाँ (Pre-Historic Races and Cultures in India)

भारत की प्रागैतिहासिक जातियाँ और संस्कृतियाँ (Pre-Historic Races and Cultures in India) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

भारत की प्रागैतिहासिक जातियाँ और संस्कृतियाँ (Pre-Historic Races and Cultures in India) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

  • भारत की इतिहास पूर्व जातियों और संस्कृतियों के विषय में निश्चय पूर्वक कुछ नहीं लिखा जा सकता. 
  • सर हरबर्ट रिस्ले (Sir H. Risley) ने इन जातियों को सात भागों में विभाजित किया है.

जातियों का वर्ग

द्रविड़

  • रंग काला, काली आँखे, लम्बा सिर, चौड़ी नाक, चपटा चेहरा तथा वे भारत के दक्षिण में रहते थे. 

इण्डो आर्य

  • लम्बा कद, रंग गोरा, काली आँखे, तीखी नाक, तथा वे कश्मीर, पंजाब व राजपूताना में मिलते थे. 

तुर्क इरानियन

  • उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त (N.W.F.P.) और बलोचिस्तान में पाये जाते थे.

साईयो द्रविड़

  • पूर्वी सिन्ध, गुजरात व बम्बई में मिलते थे. 

आर्य द्रविड़

  • पूर्वी पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश में 

मंगोल

  • बर्मा, असम और हिमालय के विभिन्न प्रदेशों में तथा

मंगोल द्रविड़

  • प्रायः बंगाल और उड़ीसा में पाये जाते थे.

 

सर रिस्ले का विचार स्पष्ट करता है कि द्रविड़ जाति ही भारत की आदि निवासी जाति थी. मगर अब स्पष्ट हो गया है कि द्रविड़ों से पहले भी भारत में कुछ जातियाँ रहती थीं. 

  • 1933 ई. में डा. एच.जे. हड्डुन (Dr. H.J.Hutton) ने कहा कि भारत में निम्न आठ जातियों ने प्रवेश किया.
  1. हब्शी (Negritos), 
  2. मौलिक-आस्ट्रेलाएड (Proto-Australoids), 
  3. प्राथमिक मैडीटेरेनियन (Early Mediterraneans), 
  4. सभ्य या उन्नत मैडीटेरेनियन (Civilized or Advanced Mediterraneans), 
  5. आर्मेनाइड (Armenoids), 
  6. एल्पाइन (Alpines), 
  7. वैदिक आर्य (Verlic Aryans) या नाडिक (Nordics) और 
  8. मंगोल (Mongoloids) .

भारत के मानव विज्ञान सर्वेक्षण के निदेशक (Director of Anthropological Survey of India) डा. बी. एस. गुहा (Dr. B. S. Guha) ने अपनी पुस्तक “Racial Element in the Population” में कहा है कि भारत में निम्न छहः जातियों ने प्रवेश किया था.

  1. हब्शी (Negritos), 
  2. मौलिक-आस्ट्रेलाइड (Proto-Australoids), 
  3. मंगोल (Mongoloids), 
  4. मैडीटेरेनियन (Mediterraneans), 
  5. पश्चिमी ब्रेकिसैफेल (Western brachycephals) और 
  6. नार्डिक (Nordics).

यहाँ भारतीय संस्कृति पर प्रभाव डालने वाली विभिन्न संस्कृतियों और जातियों का वर्णन करना उचित रहेगा. 

हब्शी जाति 

  • हब्शी जाति भारत की सर्वप्रथम मानव जाति थी जो मूलतः अफ्रीका से अरब-ईरान और बलूचिस्तान के रास्ते यहाँ आये . 
  • यद्यपि अब भारत से उनका नाम तक उठ गया तो भी अंडमान, मलाया और इण्डोनेशिया में उनका अस्तित्व अब भी विद्यमान है. 
  • वे स्वयं सभ्य नहीं थे, इसी कारण भारतीय सभ्यता में उनका कोई योगदान नहीं रहा. 

मौलिक आस्ट्रेलाएड जाति

  • इन लोगों ने कई बार भिन्न-भिन्न भागों से भारत में प्रवेश किया.
  • निश्चय ही इस जाति का मिश्रण हब्शी और मंगोल जैसी भारतीय जातियों से हुआ होगा. 
  • भारत में रहने वाले कोल, मुण्ड और नॉन-ख्मेर (Non-Khmer) और असम, बर्मा और हिन्द-चीन में रहने वाले लोगों में मौलिक ऑस्ट्रेलॉएड जाति के तत्व पाये जाते हैं. 
  • मुण्ड भाषाएं आस्ट्रो एशियाई परिवार से सम्बन्धित हैं और आजकल मध्य भारत के पूर्व में हिमालय की दक्षिणी सीमा पर और कश्मीर तथा पूर्वी नेपाल में पाई जाती हैं.

द्रविड़ जाति

  • द्रविड़ लोग पूर्वी भू-मध्य सागर खंड की ओर से भारत आये थे. ये तीन शाखाएं थीं तथा सभी द्रविड़ भाषा बोलते थे. 
  • उत्तरी भारत में द्रविड़ों की सभ्यता का कोई मुख्य केन्द्र नहीं था. अतः आर्यों ने सुगमता से यहां अपना विस्तार किया. 
  • हेरोडोट्स के अनुसार लायसियन वास्तव में क्रीट नामक द्वीप से भारत में आये थे. 
  • तमिल तथा द्रविड़ शब्द सम्भवतः ‘द्रमिल’ या ‘द्रमिज’ शब्दों से निकले हैं. 
  • एशिया माइनर की लायसियन जाति ने अपने आपको शिलालेखों में ‘तृम्मिलि’ कहा है. 
  • द्रविड़ों ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति व धर्म को प्रभावित किया. 
  • आज हिन्दू धर्म में पूजे जाने वाले देवता शिव, भगवती, नाग आदि द्रविड़ों के प्रमुख देवी-देवता थे. 
  • सिन्धु घाटी की लिपि यदि पढ़ने में आ जाए तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आ जाएंगे.

द्रविड़ जाति का उद्भव

  • विभिन्न विद्वानों ने इस विषय में अपने मत दिये हैं—डा. काल्डवैल इन्हें “मध्य एशिया” का मानते हैं तो कन कस भाई पिल्लई मंगोल जाति की शाखा. 
  • कुछ सेमिटिक सभ्यता का मानते हैं तो इलियट स्मिथ मिस्त्र का जो समुद्र के मार्ग से भारत आयी. 
  • मगर यह सम्भव प्रतीत नहीं होता.
  • कुछ भी हो प्रायः इस बात को स्वीकार किया गया है कि द्रविड़ विदेशी थे जो मेसोपोटामिया और बलूचिस्तान के रास्ते भारत में आये थे.

प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्व (The Importance of Ancient Indian History)

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प्रागैतिहासिक काल (The Pre-Historic Time)

प्रागैतिहासिक काल (The Pre-Historic Time) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

प्रागैतिहासिक काल (The Pre-Historic Time) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

भूमिका

  • इतिहास पूर्व विषय मानव की कहानी है जो दूर अतीत से शुरू होती है. जब मनुष्य ने अपने पशु-पूर्वजों से सम्बन्ध विच्छेद किया और उस समय तक चलती है जब उसने अपने अस्तित्व का ऐसा रिकार्ड छोड़ा है जहां से ऐतिहासिक अन्वेषक वास्तविक जगत में पहुंच जाता है.
  • आर. ब्रूस फुट ने 1863 ई. में मद्रास के पास पल्लवरम् में पाषाणकालीन मानवों की खोज की. इस महत्वपूर्ण कार्य की प्रगति में धन की कमी के कारण बाधा आयी. किन्तु अब इस काल के विषय में हमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त है.
  • प्रागैतिहासिक काल को सामान्यतः तीन भागों में बाँटा जाता है.
  1. पुरापाषाण काल 
  2. मध्य पाषाण काल तथा 
  3. नव या उत्तर पुरा पाषाण काल .

पुरापाषाण काल (25,00000-10,000 ई.पू.)

  • इस काल को भी तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है
  1. निम्न पुरापाषाण (25,00000–1,00000 ई.पू.) 
  2. मध्यपुरापाषाण (1,00000-40,000 ई.पू.) 
  3. उच्च पुरापाषाण (40,000-10,000 ई.पू.)
  • सर्वप्रथम पाषाणकालीन सभ्यता तथा संस्कृति का अन्वेषण ब्रूस फूट महोदय ने 1862 ई. में किया. 
  • अधिकांश हिमयुग निम्न या आरंभिक पुरापाषाण युग में ही बीता. 
  • इस काल के लक्षण हैं-कुल्हाड़ी या हस्तकुठार (हैंड-एक्स), विदारिणी (क्लीवर) और खंडक (गैडासा) के प्रयोग निम्न पुरापाषाण युग के स्थल वर्तमान पाकिस्तान के सोहन घाटी में पाए जाते हैं. 
  • इस काल के औजार उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर जिला के बेलन घाटी से भी प्राप्त हुए हैं. 
  • राजस्थान की मरूभूमि के दिदवाना क्षेत्र में, बेलन और नर्मदा की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश में भोपाल के भीमबेटका की गुफाओं और शैलाश्रयों से जो औजार प्राप्त हुए हैं, वे लगभग 1,00000 ईसा पूर्व के हैं. 
  • भीमबेटका से कलाकृतियाँ भी प्राप्त मध्य पुरापाषाण युग मुख्यतः शल्क से बनी वस्तुओं का था. मुख्य औजारों के अंतर्गत विविध प्रकार के फलक, बेधनी, छेदनी और खुरचनी आते हैं. 
  • इस युग का शिल्प-कौशल नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई स्थानों तथा तुंगभद्रा नदी के दक्षिणवत्त कई स्थानों पर पाया जाता है. 
  • उच्च-पुरापाषाण युग में आर्द्रता कम हो गई थी. इस युग की दो (विश्वव्यापी) विशेषताएँ हैं-नए चकमक उद्योग की स्थापना तथा आधुनिक प्रारूप के मानव (होमोसेपिएन्स) का उदय. 
  • आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र केन्द्रीय मध्य प्रदेश, द, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के पठार में फलकों तथा लक्षणियों का प्रयोग होता था. इस काल के मानवों की गुफाएँ भीमबेटका से मिली हैं.

मध्य पाषाण काल (9000-4000 ई.पू.)

  • यह काल पुरा पाषाणकाल तथा नवपाषाणकाल दोनों की सम्मिश्रित विशिष्टाओं का प्रदर्शन करता है. 
  • इस युग में पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं में परिवर्तन हुए तथा मानव के लिए नए क्षेत्रों की ओर अग्रसर होना संभव हुआ. 
  • मध्य पाषाण काल के लोग शिकार करके, मछली पकड़कर तथा खाद्य वस्तुएँ बटोरकर पेट भरते थे. 
  • आगे चलकर के पशु-पालन भी करने लगे.
  • मध्य पाषाण काल के विशिष्ट औजार हैं-सूक्ष्म-पाषाण (पत्थर के परिष्कृत औजार). 
  • मध्य पाषाण काल के स्थल राजस्थान, दक्षिण उत्तर प्रदेश, केन्द्रीय और पूर्वी भारत तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में पाए जाते हैं. 
  • बागोर (राजस्थान) में सूक्ष्म-पाषाण उद्योग था, लोगों की जीविका शिकार और पशुपालन थी. 
  • मध्य प्रदेश के आजमगढ़ और बागोर पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, जिसका समय लगभग 5000 ई.पू. है. 
  • राजस्थान के एक नमक-झील सम्भर के जमाओं से पता चलता है कि 7000-6000 ई.पू. के आस-पास पौधे लगाए जाते थे.

नव पाषाण काल (6,000-1000 ई.पू.)

  • विश्व स्तर पर इस काल की शुरूआत 9,000 ई.पू. से होती है. 
  • पाकिस्तान के मेहरगढ़ (बलूचिस्तान प्रान्त) से मिली एक वस्ती का काल 7000 ई.पू. है. विन्ध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर पाए गए कुछ स्थलों को 5,000 ई. पू. माना गया है, किन्तु दक्षिण भारत में पाई गई नव-पाषाण बस्तियाँ 2,500 ई.पू. से पहले की नहीं है. 
  • भारत के कुछ स्थल (दक्षिणी और पूर्वी भागों में) केवल 1,000 ई.पू. के है. इस काल के लोग पालिशदार पत्थर के औजारों और हथियारों का प्रयोग करते थे. कुल्हाड़ियाँ देश के अनेक भागों में काफी विशाल मात्रा में पाई गई हैं. 
  • नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल निम्न हैं-

पिकलीहल

  • कर्नाटक स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से शंख के ढेर और निवास स्थान दोनों पाये गये हैं.

मेहरगढ़

  • बलूचिस्तान स्थित इस नव पाषाणिक पुरास्थल से कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य एवं नव पाषाणिक प्राचीनतम वस्ती एवं कच्चे घरों के साक्ष्य मिले हैं.

भीमबेटका

  • भोपाल के समीप स्थित इस पुरापाषाण कालीन स्थल से अनेक चित्रित गुफाएं, शैलाश्रय (चट्टानों से बने शरण स्थल) तथा अनेक प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं.

आमदगढ़ एवं बागोर

  • मध्य प्रदेश के आदमगढ़ एवं राजस्थान के बागोर नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं. 
  • जिनका समय लगभग 5000 ई. पू. हो सकता है.

बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल

  • कश्मीरी नवपाषाणिक पुरास्थल से गर्तावास (गड्ढ़ा घर) कृषि तथा पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं.

चिराँद

  • (बिहार प्रान्त) एक मात्र नव पाषाणिक पुरास्थल जहाँ से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण प्राप्त हुए हैं. 
  • यहाँ से प्राप्त हड्डियों की तिथि अधिक-से-अधिक 1,600 ई. पू. है.

 

विन्ध्य के उत्तरी पृष्ठों पर मिर्जापुर और इलाहाबाद जिलों में कई स्थल है. इलाहाबाद के स्थलों में कोल्डिहवा में चावल का उत्पादन ईसापूर्व छठी सहस्त्राब्दी में होता था.

  • बुर्जहोम से प्राप्त कब्रों में पालतू कुत्तों को उनके मालिकों के साथ दफनाया गया है. 
  • यह प्रथा भारत के अन्य किसी स्थल से प्राप्त नहीं होती.
  • मेहरगढ़ के लोग अधिक उन्नत थे तथा वे गेहूँ, जौ, रूई उपजाते थे.
  • नवपाषाण युग के निवासी सरकंडे के बने गोलाकार या आयाताकार घरों में रहते थे.

ताम्र-पाषाण : कृषक संस्कृतियाँ

  • नवपाषाण युग की समाप्ति के बाद सबसे पहले तांबे का प्रयोग शुरू हुआ तथा तांबे और पाषाण (पत्थर) का साथ-साथ प्रयोग कई संस्कृतियों का अTधार बना. 
  • भारत में ताम्र-पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र हैं-
  1. दक्षिण-पूर्वी राजस्थान– आहार एवं गिलंद. 
  2. पश्चिमी मध्य प्रदेश– मालवा, कथा, एरण, नवादातोली.
  3. पश्चिमी महाराष्ट्र-जोरवे, नेवासा, दैमाबाद (तीनों अहमदनगर में), चन्दोली, सोन गाँव, इनामगाँव, प्रकाश और नासिक (पुणे में)
  4. दक्षिणी-पूर्वी भारत– दक्षिणी-पूर्व राजस्थान की संस्कृति को ‘आहार संस्कृति’ कहा जाता है. 

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान

  • बनास नदी घाटी के नाम से इसे बनास संस्कृति’ भी कहा जाता है. 
  • आहार और गिलंद दोनों ही बड़ी बस्तियाँ थीं. आहार का टीला 1500 x 800 फुट तथा गिलंद का टीला 1500 x 750 फुट बड़ा है. 
  • निर्माण कार्य का अधिकांश साक्ष्य आहार से प्राप्त होता है. यहाँ से तंदुर प्राप्त हुए हैं. 
  • गिलुद से पक्की ईटों का साक्ष्य प्राप्त होता है. आहार में चावल की खेती होती थी. बाजरा भी उपजाया जाता था. 
  • आहार संस्कृति का काल 2100-1500 ई.पू. था. आहार का प्राचीन नाम ताम्बवती था-अर्थात् तावा वाली जगह. 
  • गिलंद, आहार संस्कृति का स्थानीय केन्द्र था. 
  • आहार से मछली, गाय, कछुए, मुर्गे, भैंस, बकरी, भेड़, हिरण, सुअर की पशु-अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं. 
  • यहाँ से मृण्मूर्तियाँ, मनके, मुहरें भी प्राप्त हुई हैं. तांबे की वस्तुओं में अंगुठियाँ, चूडियाँ, चाकू के फाल, कुल्हाड़ियाँ तथा सुरमे की सलाइयाँ प्राप्त हुई हैं.

पश्चिमी मध्य प्रदेश

  • पश्चिमी मध्य प्रदेश से प्राप्त स्थलों को ‘मालवा संस्कृति’ के नाम से जाना जाता है. 
  • इन स्थलों में कयथा और नवादातोली दो सबसे महत्वपूर्ण स्थल हैं. 
  • इस संस्कृति का काल 2200-2000 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है. 
  • नवादातोली का उत्खनन कार्य प्रो. एच. डी. संकालिया ने करवाया है. 
  • यहाँ से प्राप्त फसलों में-दो किस्म का गेहूँ, अलसी, मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर और केसारी शामिल हैं. 
  • मालवा संस्कृति (नवादातोली) के मृदभांड उत्तम कोटि के हैं.

पश्चिमी महाराष्ट्र

  • महाराष्ट्र के उत्खनित स्थलों में दायमाबाद अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि महाराष्ट्र के आद्य ऐतिहासिक जीवनयापन का आधारभूत अनुक्रम यहीं प्राप्त हुआ है. 
  • इस संस्कृति को जोरवे संस्कृति कहा जाता है. 
  • जोरवे संस्कृति की तिथि 1400-1000 ईसा-पूर्व निर्धारित की गई है, किन्तु इनामगाँव जैसे स्थलों पर यह संस्कृति 700 ईसा पूर्व तक विद्यमान रही. 
  • दायमाबाद से तांबे की चार वस्तुएं प्राप्त हुई हैं-
  1. रथ चलाते हुए मनुष्य, 
  2. सांड,
  3. गेंडे तथा 
  4. हाथी .
  • यहाँ से बेर की झुलसी गुठली भी प्राप्त हुई है. 
  • नेवासा से पटसन को साक्ष्य मिला है. 
  • जोरवे संस्कृति में कलश-शवाधान प्रचलित था. ये कलश घरों में फर्श के नीचे रखे जाते थे.
  • टोंटीदार बर्तन ‘जोरवे संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता है.
  • ताम्रपाषाण काल के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे. वृषभ धार्मिक संप्रदाय का प्रतीक था.
  • इस संस्कृति के लोग काले व लाल मृदभाण्डों का प्रयोग करते थे. 
  • सूखा के कारण ताम्रपाषण संस्कृति का पतन हुआ.

प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्व (The Importance of Ancient Indian History)

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Wednesday, July 10, 2019

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत (Sources of Ancient Indian History)

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत (Sources of Ancient Indian History) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत (Sources of Ancient Indian History) प्राचीन भारत (ANCIENT INDIA)

इतिहासकार भारतीय इतिहास को तीन भागों में बाँटते हैं —

  1. प्रागैतिहासिक काल—जिसका कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है.
  2. आद्य इतिहास-जिसका लिखित साधन तो उपलब्ध है, किंतु उसे अब तब पढ़ा नहीं जा सका है. इसके अंतर्गत हड़प्पा संस्कृति तथा वैदिक काल आते हैं.
  3. ऐतिहासिक काल-इसके अन्तर्गत लिखित उपलब्ध सामग्री को पढ़ा जा सका है तथा जिसका काल 600 ई.पूर्व. से शुरू होता है.

प्रागैतिहासिक काल का इतिहास लिखते समय इतिहासकार पूर्ण रूप से पुरातात्विक साधनों पर निर्भर रहता है. आद्य इतिहास लिखते समय वह पुरातात्विक और साहित्यिक साधनों का उपयोग करता है तथा इतिहास लिखते समय वह पुरातात्विक साधनों तथा साहित्यिक साधनों के साथ-साथ विदेशियों के वर्णन को भी आधार बनाता है. इस प्रकार प्राचीन भारत के इतिहास जानने के मुख्यतः तीन स्रोत हैं.

  1. पुरातात्विक स्रोत 
  2. साहित्यिक स्रोत तथा 
  3. विदेशियों के विवरण. 

पुरातात्विक स्रोत

  • पुरातात्विक स्रोत के अन्तर्गत मुख्य रूप से अभिलेख, सिक्के, स्मारक एवं भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला, अवशेष आदि आते हैं.
  • प्राचीन वस्तुओं के अध्ययन का कार्य सर विलियम जोन्स ने शुरू कर 1774 ई. में ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ की स्थापना कर विभिन्न शिलालेखों को भारी संख्या में एकत्रित किया. 
  • जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि का अनुसंधान कर इसके अध्ययन को सरल बनाया. 
  • इसके पश्चात् सर कनिंघम, डॉ. मार्शल, डॉ. बॉगल, डॉ. स्टाइन, डॉ. ब्लोच, डॉ. स्पूनर आदि ने महत्वपूर्ण पद सम्भाले तथा पुरातत्व विभाग में महत्वपूर्ण योग दिया.

अभिलेख

  • पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण स्थान अभिलेखों का है. 
  • अभिलेख अधिकतर पत्थर या धातु की चादरों पर खुदे हैं. इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र तथा इनकी और दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र कहते हैं. 
  • अभिलेख पत्थर एवं धातु की चादरों के अतिरिक्त मुहरों, स्तूपों, मंदिर की दीवारों, ईटों और मूर्तियों पर भी खुदे हैं.
  • ईसा के आंरभिक शतकों से पत्थरों की जगह ताम्रपत्रों का प्रयोग (अभिलेख के लिए) शुरू हुआ, फिर भी दक्षिण भारत में पत्थर का प्रयोग इस काम के लिए होता रहा. 
  • दक्षिण भारत में मंदिरों की दीवारों पर भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए हैं.
  • सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं. अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख गुर्जरा (म. प्र.) तथा मास्की (आन्ध्र प्रदेश) अभिलेखों पर है. 
  • अधिकतर ब्राह्मी लिपि में लिखे अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने सफलता पायी. 
  • अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक तथा यूनानी (ग्रीक) लिपि में मिलते हैं. 
  • गुर्जरा तथा मास्की के अतिरिक्त पानगुडइया (म. प्र.), निटूर तथा उदेगोलम के अभिलेखों में भी अशोक के नाम का उल्लेख है. 
  • लूंघमान एवं शरेकुना से प्राप्त अशोक के अभिलेख यूनानी अरमाइक लिपियों में हैं.  
  • अशोक के बाद के अभिलेखों को-सरकारी तथा निजी–दो भागों में बाँटा जा सकता है. 
  • सरकारी अभिलेख राजकवियों की लिखी हुई प्रशस्तियाँ तथा भूमि अनुदान-पत्र शामिल हैं. 
  • निजी अभिलेख बहुधा मंदिरों और मूर्तियों पर मिले हैं. इन पर खुदी तिथियों से उस मंदिर या मूर्तियों के निर्माण समय का ज्ञात होता है. 
  • अभिलेखों से उन तथ्यों की पुष्टि होती है जिनका उल्लेख साहित्य में मिलता है, जैसे पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि पुष्पमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ किए थे. 
  • इस बात की पुष्टि उसी के वंशज धनदेव के अयोध्या अभिलेख से होती है. 
  • सातवाहन राजाओं का पूरा इतिहास ही अभिलेखों के आधार पर ही लिखा गया है.
  • एशिया माइनर में बोगजकोई नमक स्थान पर 1400 ई. पू. का एक अभिलेख (संधिपत्र) मिला है जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य वैदिक देवताओं के नाम दिए गए हैं. 
  • इससे ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों के वंशज एशिया माइनर (मध्य एशिया) में भी रहते थे. 
  • मिस्र में तेलुअल-अमनों में मिट्टी की कुछ तख्तियां मिली हैं, जिन पर बेबीलोनिया के कुछ शासकों के नाम दिए गए हैं जो ईरान और भारत के आर्य शासकों के नामों जैसे हैं. 
  • पासिंपोलिस तथा बेहिस्तून अभिलेखों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट दारा (डेरियस) प्रथम ने सिंधु नदी घाटी पर अधिकार कर लिया.
  • नहीं पढ़े जा सकने वाले अभिलेखों में सबसे प्राचीन हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर हैं जो लगभग 2500 ई. पू. के हैं.
  • फिरोजशाह तुगलक को अशोक के दो स्तंभलेख मेरठ तथा टोपरा (हरियाणा) से मिले थे जिन्हें उसने दिल्ली मँगवाया.
  • आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं तथा ये ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं. 
  • अभिलेखों में संस्कृत का प्रयोग दूसरी सदी ई. से मिलने लगता है. 
  • चौथी-पाँचवीं सदी से संस्कृत का प्रयोग व्यापक रूप से होने लगा. 
  • सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेख शास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं.

मुख्य अभिलेख, शासक एवं उनके विषय

अभिलेख शासक विषय
हाथी गुम्फा अभिलेख (तिथि रहित अभि.) कलिंग राज खारवेल खारवेल के शासन काल की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण मिलता है.
जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख नासिक अभिलेख रुद्रदामन रुद्रदामन की विजयों, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्राप्त होता है.
नासिक अभिलेख गौतमी बलश्री गौतमी पुत्र सातकर्णी के सैनिक सफलताओं तथा (सातवाहन) अन्य कार्यों का विवरण मिलता है.
प्रयाग स्तम्भ लेख समुद्रगुप्त समुद्रगुप्त की विजयों और नीतियों का पूरा विवेचन मिलता है.
मन्दसौर अभिलेख मालवा नरेश यशोधर्मन यशोधर्मन की सैनिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है.
ऐहोल अभिलेख पुलकेशिन द्वितीय हर्ष-पुलकेशिन II के युद्ध का विवरण मिलता है.
ग्वालियर अभिलेख प्रतिहार नरेश भोज गुर्जर-प्रतिहार शासकों के विषय में विस्तृत जानकारी मितली है.
भितरी तथा जूनागढ़ अभिलेख स्कन्दगुप्त स्कन्दगुप्त के जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण मिलता है .
देवपाड़ा अभिलेख बंगाल शासक विजयसेन विजयसेन के शासन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया गया है.

सिक्के

  • सिक्कों के अध्ययन को ‘मुद्रा-शास्त्र’ कहा जाता है. 
  • पुराने सिक्के सोना, चांदी, तांबा, कांस्य, सीसा एवं पोटिन के मिलते हैं. 
  • पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के साँचे सबसे अधिक कुषाण काल के हैं.
  • भारत के प्राचीनतम सिक्कों पर केवल चिह्न उत्कीर्ण हैं. उन पर किसी प्रकार का कोई लेख नहीं है. ये ‘आहत सिक्के’ या ‘पंचमाक्र्ड सिक्के कहलाते हैं. इन सिक्कों पर पेड़, मछली, हाथी, सॉड, अर्द्धचन्द्र की आकृतियाँ बनी होती थीं. 
  • राजाओं की अनुमति से व्यापारियों और श्रेणियों ने भी अपने सिक्के चलाए.
  • सिक्कों पर तिथियाँ, राजाओं और देवताओं के नाम अंकित रहते हैं. इसके अतिरिक्त कभी-कभी देवताओं के चित्र भी अंकित रहते हैं. इन बातों से इतिहास की तिथियाँ, शासकों के नाम एवं वंश, तत्कालीन धार्मिक अवस्था की जानकारी मिलती है. 
  • सिक्कों के आधार पर ही कई राजवंशों का इतिहास लिखने में सहायता मिली. 
  • पांचाल के मित्र, मालव तथा यौधेय आदि गणराज्यों का पूरा इतिहास ही उनके सिक्कों के आधार पर लिखा गया है. 
  • समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर यूप, अश्वमेघ, यज्ञ तथा कुछ पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है. चन्द्रगुप्त द्वितीय के चांदी के सिक्कों से पता चलता है कि उसने शकों को पराजित किया होगा, क्योंकि उस समय चांदी के सिक्के केवल पश्चिम भारत में ही चलते थे.
  • हिन्द-यूनानियों का इतिहास लिखने में भी सिक्कों ने महत्वपूर्ण योग दिया. सबसे पहले इन्होंने ही स्वर्ण मुद्राएँ जारी कीं. 
  • सबसे अधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएँ कुषाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्तों ने जारी किए. 
  • सबसे अधिक सिक्के मौर्योतर काल के मिले हैं जिसके तत्कालीन वाणिज्य व्यापार के उन्नत स्थिति का पता चलता है. 
  • उत्तर-गुप्त काल के सिक्के कम प्राप्त हुए हैं, जिसे उस समय के व्यापार में हास का पता चलता है.
  • सिक्कों का अध्ययन इतिहासकार डॉ. कौशाम्बी ने प्रस्तुत किया है.

स्मारक एवं भवन

  • प्राचीन काल में महलों और मंदिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है. साथ ही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक अवस्था का भी आभास मिलता है. 
  • मंदिरों में उत्तर-भारत की कला शैली को ‘नागर’ दक्षिण-भारत की कला शैली को ‘द्राविण’ तथा दक्षिणापथ की कला शैली को ‘वेसर’ शैली कहा जाता है. वेसर शैली में नागर और द्राविण का मिश्रण है. 
  • खुदाई से प्राप्त अवशेषों से हड़प्पा की नगर व्यवस्था, चन्द्रगुप्त मौर्य का पाटलिपुत्र स्थित राजप्रासाद (लकड़ी का) आदि का पता चलता है. 
  • जावा का स्मारक ‘बोरो बुदूर इस बात को प्रमाणित करता है कि 9वीं सदी में वहाँ महायान बौद्ध धर्म बहुत लोकप्रिय हो गया था.

मूर्तियाँ

  • प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से होता है. 
  • मूर्तियाँ जन-साधारण की धार्मिक आस्थाओं, कला के विकास आदि का द्योतक होती हैं. 
  • कुषाण की मूर्ति-कला में विदेशी प्रभाव अधिक है. 
  • गुप्तकाल की मूर्ति-कला में अन्तरात्मा एवं मुखाकृति में सामंजस्यता दिखाई पड़ती है तथा गुप्तोतर काल के इस कला में सांकेतिकता अधिक है. 
  • भारहुत, बोधगया साँची और अमरावती की मूर्तिकला में जनसाधारण के जीवन की अत्यंत सजीव झांकी प्रस्तुत करती है.

चित्रकला

  • अजन्ता की चित्रकला में ‘माता और शिशु तथा ‘मरणासन्न राजकुमारी जैसे चित्रों में शाश्वत भावों की अभिव्यंजना हुई है. 
  • इन चित्रों से गुप्त काल की कलात्मक उन्नति का पूर्ण आभास मिलता है.

भौतिक अवशेष

  • खुदाई से प्राप्त अवशेषों से विभिन्न संस्कृतियों के दर्शन होते हैं. 
  • अवशेष प्रागैतिहासिक काल तथा आद्य इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं. 
  • मोहनजोदड़ों से प्राप्त 500 से अधिक मुहरों से हड़प्पा संस्कृति के निवासियों के धार्मिक विश्वासों की जानकारी मिलती है. 
  • बासाढ़ से प्राप्त मिट्टी की मुहरों से व्यापारिक श्रेणियों का पता चलता है. 
  • भारत में लोहे का प्रयोग ई.पू. 1100 में हुआ. साहित्यिक साक्ष्य लोहे के प्रयोग की तिथि 700 ई. पू. बताते हैं. 

साहित्यिक स्रोत

  • प्राचीन भारतीय साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-धार्मिक साहित्य तथा धार्मिकेत्तर साहित्य. 
  • धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा जैन साहित्य आते हैं. .

ब्राह्मण साहित्य

  • ब्राह्मण साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है-जिनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथवर्वेद आते हैं. इनसे आर्यों के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है. 
  • उत्तरवैदिक कार्यों के जीवन का अध्ययन करने के लिए यजुर्वेद, सामवेद तथा अथवर्वेद की सहायता ली जाती है. 
  • इनमें से यजुर तथा साम में ऋग्वेद से अधिक मंत्र लिए गए हैं. 
  • अतः अथवर्वेद ही विशेष महत्वपूर्ण है. 
  • अथवर्वेद से उस समाज की जानकारी मिलती है जब आर्यों ने अनार्यों के अनेक धार्मिक विश्वास को अपना लिया था. 
  • वेदों के संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन व्यास थे. वेदों को अपौरुषेय अर्थात दैवकृत माना जाता है.

ऋग्वेद

  • चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन इस वेद में 10 मण्डल, 8 अष्टक एवं 1028 सूक्त हैं. 
  • इसमें खिल्यसूक्त भी शामिल है जिनकी संख्या 11 है. 
  • सूक्त रचयिताओं में गृत्सयद, विश्वमित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज (पुरुष) तथा घोष, लोपामुद्रा, शची पौलोमी और काक्षावृति (महिला) शामिल हैं. 
  • ऋग्वेद का दूसरा एवं सातवाँ मण्डल सर्वाधिक प्राचीन तथा पहला एवं दसवाँ मण्डल सबसे बाद का है. 
  • आठवें मण्डल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को ‘खिल’ कहा गया है.
  • ऋग्वेद में अधिकांश मंत्रों में देवताओं की स्तुतिपरक ऋचाएँ हैं, फिर भी इसके कुछ मंत्र ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध कराते हैं. 
  • जैसे एक स्थान पर ‘दाशराज्ञ युद्ध’ भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरु कबीले के मध्य हुआ था जिसका वर्णन किया गया है. 
  • भरत जन के पुरोहित (आय) वशिष्ट थे तथा विरोधी पुरू जन (दस जन-आर्य एवं अनार्य) के पुरोहित विश्वमित्र थे. 
  • भरत जन का राजवंश त्रित्सु था जिसके प्रतिनिधि सुदास एवं दिवोदास थे . 
  • ऋग्वेद में यदु, तुर्वश, द्रहयु, पुरु और अनु पाँच जनों का उल्लेख मिलता है. 
  • संहिता का अर्थ है-संकलन. ऋग्वदे की अनेक संहिताओं में से वर्तमान में ‘सर पर संहिता ही उपलब्ध है. 
  • ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ हैं-
  1. शाकल 
  2. वाष्कल, 
  3. शंखायन, 
  4. आश्वलायन एवं 
  5. मांडूक्य . 
  • ऋग्वेद की कुल मंत्रों की संख्या 10,600 है. 
  • ऋग्वेद के 10वें मण्डल के प्रमुख सूक्त में सर्वप्रथ्म शूद्रों का उल्लेख मिलता है. 
  • पुरुष सूक्त से ही दर्शन की अद्वैत धारा के विकास का आभास मिलता है. 
  • प्रसिद्ध गायत्री मंत्र (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है.

यजुर्वेद

  • ‘यजुष’ का शाब्दिक अर्थ है-‘यज्ञ’. 
  • अध्वर्य नामक पुरोहित इस वेद के मंत्रों का उच्चारण करता था. 
  • यजुर्वेद में यज्ञ की विधियों का उल्लेख है. 
  • यजुर्वेद गद्य (यजुष) तथा पद्य में लिखा गया है. 
  • इस वेद के दो भाग हैं-
  1. कृष्ण यजुर्वेद और 
  2. शुक्त यजुर्वेद .
कृष्ण यजुर्वेद 
  • इसकी मुख्य चार शाखाएँ हैं-
  1. तैत्तिरीय, 
  2. काठक, 
  3. कपिष्ठल, 
  4. मैत्रायणी.
शुक्ल यजुर्वेद
  • माध्यन्दिन तथा काण्व इसकी मुख्य शाखाएँ हैं. 
  • वाजसनेयी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसकी संहिताओं के द्रष्टा हैं इसलिए इसे वाजसनेपी संहिता भी कहा जाता है.
  • महर्षि पातंजलि द्वारा उल्लिखित 101 शाखाओं में इस समय केवल पाँच शाखाएं उपलब्ध है–
  1. काठक, 
  2. तैत्तिरीय, 
  3. मैत्रायणी, 
  4. कपिष्ठल तथा 
  5. वाजसनेय

सामवेद

  • सामवेद का शाब्दिक अर्थ है-‘गान’ . 
  • इसमें संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था. 
  • सामवेद की कुल 1549 ऋचाओं में से 75 को छोड़ शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं.
  • सोमयज्ञ के समय उद्गाता इन ऋचाओं का गान करते थे. 
  • इस वेद की तीन मुख्य शाखाएँ हैं-
  1. जैमिनीय, 
  2. राणायनीय तथा 
  3. कीथय . 
  • सामवेद के प्रमुख देवता ‘सविता’ या ‘सूर्य’ हैं. 
  • इन्द्र तथा सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन मिलता है. 
  • भारतीय संगीत का आरंभ सामवेद से ही माना जाता है.

अथवर्वेद

  • अथर्वा ऋषि द्वारा इस वेद की रचना की गई. 
  • इस वेद के दूसरे द्रष्टा आंगिरस ऋषि थे. 
  • अतः इसे अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहा जाता है. 
  • 20 मण्डल, 731 सूक्त एवं 5,839 मंत्रों वाले इस वेद के मुख्य विषय हैं-ब्रह्मज्ञान, रोग निवारण, औषधि प्रयोग, जन्त्र-मंत्र, टोना-टोटका आदि. 
  • शौनक तथा पिप्पलाद इस वेद की दो शाखाएँ हैं.
  • चारों वेदों के एक-एक उपवेद भी हैं, जो निम्न हैं-
वेद उपवेद
ऋग्वेद धनुर्वेद
यजुर्वेद शिल्पवेद
सामवेद गंधर्ववेद
अथर्ववेद आयुर्वेद

ब्राह्मण

  • ब्राह्मण में ब्रह्म शब्द का अर्थ है-‘यज्ञ’. अर्थात् यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधि-विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भाँति समझने के लिए ही ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई. 
  • ये ग्रंथ गद्य में लिखे गए हैं.
  • प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं. 
वेद ब्राह्मण ग्रंथ
ऋग्वेद ऐग्देय एवं कौषीतिकी
यजुर शतपथ या वाजसनेय एवं तैत्तिरीय
साम पंचविश या ताण्ड्य
अथर्व गोपथ ब्राह्मण

आरण्यक 

  • यह ब्राह्मणों का अंतिम भाग है जिसमें दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन है. 
  • जंगल (आरण्य) में पढ़े जाने के कारण इसे आरण्यक कहा गया. 
  • इनकी कुल संख्या सात है-
  1. ऐतरेय 
  2. शांखायन
  3. तैत्तिरीय
  4. मैत्रायणी 
  5. माध्यन्दिन
  6. तत्वकार एवं
  7. जैमिनी 

उपनिषद्

  • इसका शाब्दिक अर्थ है-‘समीप बैठना’ . 
  • शिष्य ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप बैठते थे. 
  • उपनिषद् को ‘ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है. 
  • उपनिषद् में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के संदर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह है. 
  • चूंकि उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं. 
  • अतः इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है. 
  • प्रमुख उपनिषद हैं-ईश, कठ, केन, मुण्डक, माण्डुक्य, प्रश्न, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक, श्वेताश्वर, कौषीतकी और मैत्रायणी . 
  • प्रसिद्ध राष्ट्रीय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है. 
  • यम-नचिकेता संवाद का वर्णन कठोपनिषद में है.

वेदांग (सूत्र)

  • इनकी संख्या छह हैं. 
  1. शिक्षा 
  2. कल्प 
  3. व्याकरण 
  4. निरूक्त 
  5. छन्द 
  6. ज्योतिष 
  • वैदिक शिक्षा संबंधी प्राचीनतम साहित्य ‘प्रतिशाख्य’ है.
  • क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु की व्याख्या करने के निमित यास्क ने ‘निरूक्त’ की रचना की.

स्मृतियाँ

  • वेदांग या सूत्रों के बाद स्मृतियों का उदय हुआ. 
  • ‘शस्तु वेद विक्षेयों धर्मशास्त्र तु वैस्मृति : ‘. अर्थात् स्मृतियों को ‘धर्मशास्त्र’ भी कहा जाता है. 
  • सम्भवतः मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं (200 ई. पू.-100 ई. मध्य). 
मनुस्मृति ई. पू.0 200-100 ई.
याज्ञवल्क्य स्मृति 100 ई. से 300 ई.
नारद स्मृति 300 ई. से 400 ई.
पराशर स्मृति 300 ई. से 500 ई.
वृहस्पति स्मृति 300 ई. से 500 ई.
कात्यायन स्मृति 400 ई. से 600 ई. 
  • पाणिनि का अष्टाध्यायी तथा पांतजलि का महाभाष्य व्याकरण ग्रंथ हैं.
  • मनुस्मृति के भाष्यकार-मेघातिथि, भारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविंद राय.
  • याज्ञवल्क्य के भाष्यकार-अपराक, विश्वरूप, विज्ञानेश्वर .

महाकाव्य

  • भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं- रामायण तथा महाभारत .

रामायण

  • रामायण की रचना वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में पहली-दूसरी शताब्दी में हुई थी. 
  • इस रामायण में आरंभ में 6000 श्लोक थे, जो कालांतर में 12,000 तथा फिर 24,000 हो गए. 
  • इसे चतुर्विंशति साहस्त्री संहिता भी कहा जाता है. 
  • भुशुण्डि रामायण को आदि रामायण कहा जाता है. 
  • भारत के बाहर चीन में सर्वप्रथम इन ग्रंथों का अनुवाद हुआ. 
  • वाल्मीकि कृत रामायण में सात काण्ड हैं—
  1. बालकाण्ड, 
  2. अयोध्याकाण्ड, 
  3. अरण्यकाण्ड 
  4. किष्किनधाकाण्ड, 
  5. सुन्दरकाण्ड, 
  6. युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड), 
  7. उत्तरकाण्ड.

महाभारत

  • यह महाकाव्य रामायण से विशाल है. 
  • इसके रचयिता महर्षि व्यास माने जाते हैं. 
  • महाभारत में मूलतः 8,800 श्लोक थे, जिसे ‘जयसंहिता’ कहा जाता था. 
  • तत्पश्चात श्लोकों की संख्या 24,000 हो गयी और भारत कहा गया पुनः इसके एक लाख श्लोक हो गए, जिसे ‘महाभारत’ या ‘शतसहस्त्री संहिता’ कहा गया. 
  • महाभारत का सर्वप्रथम उल्लेख ‘आश्वलायलन गृहसूत्र में मिलता है. 
  • यह महाकाव्य 18 पर्वो में विभाजित है- 
  1. आदि, 
  2. सभा, 
  3. वन, 
  4. विराट, 
  5. उद्योग, 
  6. भीष्म, 
  7. द्रोण, 
  8. कर्ण, 
  9. शल्य, 
  10. सौप्तिक, 
  11. स्त्री, 
  12. शांति, 
  13. अनुशासन, 
  14. अश्वमेध, 
  15. आश्रमवासी, 
  16. मौसल, 
  17. महाप्रस्थानिक एवं 
  18. स्वर्गारोहण 
  • महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध 18 दिनों तक चला. 

पुराण

  • पुराणों की संख्या 18 है. 
  • इनका रचना काल 5वीं शताब्दी ई.पू. है. 
  • पुराणों के पाँच लक्षण- 
  1. सर्ग, 
  2. प्रतिसर्ग, 
  3. वंश, 
  4. मन्वन्तर, तथा 
  5. वंशानुचरित-
  • 18 पुराण इस प्रकार हैं-
  1. मार्कण्डेय पुराण, 
  2. ब्रह्माण्ड पुराण, 
  3. वायु पुराण, 
  4. विष्णु पुराण, 
  5. भागवत पुराण, 
  6. मत्स्य पुराण, 
  7. पद्म पुराण, 
  8. नारदीय पुराण, 
  9. अग्नि पुराण, 
  10. ब्रह्मवैवर्त पुराण,
  11. लिंग पुराण, 
  12. वाराह पुराण, 
  13. स्कन्द पुराण, 
  14. वामन पुराण, 
  15. कूर्म पुराण, 
  16. गरूण पुराण, 
  17. ब्रह्म पुराण, 
  18. भविष्य पुराण, 
  • विष्णु, मत्स्य, वायु तथा भागवत पुराण ऐतिहासिक महत्व रखते हैं, क्योंकि इनमें राजाओं की वंशावलियाँ मिलती हैं. 
  • सबसे प्रामाणिक एवं प्राचीन मत्स्य पुराण है. 
  • मौर्य एवं गुप्त वंश की जानकारी विष्णु पुराण से तथा शृंग एवं गुप्त वंश की जानकारी वायु पुराण से प्राप्त होती है.
  • 16 संस्कारों की जानकारी गृह्य सूत्र से प्राप्त होती है.
  • शुल्ब सूत्र में यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विभिन्न प्रकार के मापों का विधान है.
  • अथर्ववेद में परीक्षित को कुरूओं का राजा कहा गया है.
  • कठ, ईशोपनिषद् श्वेताश्वर तथा मैत्रायणी यजुर्वेद से संबंधित उपनिषद् हैं.
  • सामवेद के प्रमुख उपनिषेद् हैं—छान्दोग्य तथा जैमिनीय.
  • मुण्डक, माण्डूक्य तथा प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेद के उपनिषद् हैं.
  • ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम एवं अभिषिक्त राजाओं के नाम तथा शतपथ ब्राह्मण में गांधार, कैकेय, शल्य, कुरू, पांचाल, कौशल, विदेह आदि राजाओं के नाम दिए गए हैं.
  • उपनिषद् को पराविद्या या आध्यात्म विद्या भी कहा जाता है.
  • कल्पसूत्र के तीन भाग हैं-
  1. श्रौत सूत्र- यज्ञ संबंधी नियम .
  2. गृह्यसूत्र- लौकिक एवं पारलौकिक कर्तव्यों का विवेचन
  3. धर्म सूत्र-धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कर्तव्यों का विवेचन.
  • मनुस्मृति सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक
  • आन्ध्र-सातवाह वंश तथा शृंगवंश का उल्लेख मत्स्य पुराण में है.
  • गणित एवं ज्यामीति का आरंभ शुल्ब सूत्र से ही होता है.

बौद्ध साहित्य

  • सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक हैं. इनकी संख्या तीन है-
  1. सुत्तपिटक, 
  2. विनय पिटक एवं
  3. अभिधम्म पिटक. 

सुत्तपिटक

  • इसमें बुद्ध के धार्मिक विचारों एवं उपदेशों का संग्रह है. 
  • यह त्रिपिटकों में सबसे बड़ा एवं श्रेष्ठ है. 
  • यह पाँच निकायों में विभाजित है-
  1. दीघनिकाय, 
  2. मज्झिमनिकाय, 
  3. संयुक्त निकाय, 
  4. अंगुत्तर निकाय, 
  5. खुद्यक निकाय.
दीघनिकाय 
  • इसमें बौद्ध सिद्धान्तों का समर्थन एवं अन्य धर्म सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है. 
  • महापरिनिब्बान-सूत्र इस निकाय का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है. 
  • इस सूत्र में बुद्ध के जीवन के आखिरी क्षणों का वर्णन है. 
  • यह सूत्र गद्य एवं पद्य दोनों में है.
मज्झिमनिकाय
  • इसमें बुद्ध को साधारण से लेकर अलौकिक शक्ति वाले दैवी-रूप में दिखाया गया है. 
संयुक्त-निकाय
  • यह निकाय गद्य एवं पद्य दोनों शैलियों में लिखा गया है.
अंगुत्तर निकाय
  • महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में कही बातों का वर्णन है. 
  • यह 11 निपातों में बँटा है.
खुद्यक निकाय
  • यह निकाय भाषा, विषय एवं शैली की दृष्टि से सभी निकायों से भिन्न है. 
  • खुद्यक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुतक, सुतनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, एवं जातक.

जातक में बुद्ध के पूर्वजन्म से संबंधित लगभग 500 कहानियों का संकल्पन है. 

विनय पिटक

  • इसमें मठ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं के अनुशासन से संबंधित नियम दिए गए हैं. 
  • यह चार भागों में बँटा है-
  1. पातिमोक्ख,
  2. सुत विमंग,
  3. विमंग,
  4. खन्धक,
  5. परिवार
पातिमोक्ख
  • अनुशासन संबंधी नियमों तथा उसके उल्लंघन पर किए जाने वाले प्रायश्चितों का संकलन है.
सुत विमंग
  • महाविभंग एवं भिखुनी विभंग इसके दो भाग हैं. 
  • महाविभंग में भिक्षुओं तथा भिखुनी विभंग में भिक्षुणियों के लिए नियमों का उल्लेख है. 
  • सूत विभंग का शाब्दिक अर्थ है-‘सूत्रों पर टीका’ .
खन्धक
  • मठ या संघ के निवासियों के जीवन के सदंर्भ में विधि-निषेधों की व्याख्या की गई है. 
  • खन्धक के दो भाग-महावग्ग एवं चुल्लवग हैं. 
  • महावग में संघ के अत्यधिक महत्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है तथा इसमें 8 अध्याय हैं. 
  • चुल्लवग के वर्णित विषय कम महत्वपूर्ण है. इसमें 12 अध्याय हैं.
परिवार
  • यह प्रश्नोत्तर क्रम में है.

अभिधम्म पिटक

  • इस पिटक में बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या है. 
  • इस पिटक का संकलन अशोक के समय में सम्पन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया. धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपंचति, कथावस्तु, यमक, पत्थान ग्रंथ इस पिटक के ग्रंथ (सात ग्रंथ) हैं.

 

त्रिपिटकों के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ निम्न हैं-

दीपवंश

  • चौथी सदी में रचित सिंहल द्वीप के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला यह पहला ग्रंथ है.

महावंश

  • पाँचवी सदी में रचित इस ग्रंथ में मगध के राजाओं की सूची प्राप्त होती है.

 

उपर्युक्त दोनों ग्रंथों में कपोल-कल्पित सामग्री की अधिकता है. 

  • मिलिन्दपन्हों में यूनानी राजा मिनांडर तथा बौद्ध भिक्षु नागसेन का दार्शनिक वार्तालाप है. 
  • इसमें ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के उत्तर-पश्चिम भारत के जीवन की झलक मिलती है.
  • आर्य-मंजु-श्री-मूल-कल्प में बौद्ध दृष्टिकोण से गुप्त सम्राटों का वर्णन मिलता है.
  • अंगुत्तर निकाय में 16 महाजनपदों का उल्लेख है. 
  • संस्कृत भाषा में लिखी गई बौद्ध ग्रंथो महावस्तु एवं ललित विस्तार से महात्मा बुद्ध के विषय में जानकारी प्राप्त होती है. 
  • परवर्ती मौर्य शासकों एवं शुंग वंश के बारे में दिव्यावदान से जानकारी मिलती है. 
  • कनिष्क के समकालीन अश्वघोष ने बुद्धचरित, सौन्दरानन्द, सारिपुत्र प्रकरण लिखा, जिसमें प्रथम दो महाकाव्य तथा अंतिम नाटक हैं. 
  • सुत्तपिटक को बौद्ध-धर्म का ‘इनसाइक्लोपीडिया’ कहा जाता है.
  • बुद्धघोष द्वारा रचित ग्रंथ ‘विसुद्धिमग्ग’ हीनयान शाखा का प्रामाणिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है.

जैन साहित्य (आगम)

  • जैन आगमों (साहित्य) में सबसे महत्वपूर्ण 12 अंग हैं. 
  • आगम के अंतर्गत 12 अंग के अतिरिक्त 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, नंदिसूत्र, अनुयोग द्वार एवं मूल सूत्र आते हैं. 
  • इन आगम ग्रंथों की रचना महावीर की मृत्यु के बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा की गई. 
  • 12 अंग इस प्रकार हैं-
  1. आचारंग सूत्र, 
  2. सूयूं कंडग, 
  3. थाणंग, 
  4. समवायंग, 
  5. भगवती सूत्र, 
  6. न्यायधम्मकहा 
  7. उवासगदसाओ, 
  8. अंतगडदसाओं, 
  9. अणुत्तरोववाइय दसाओं, 
  10. पण्हावागरणिआई, 
  11. विवाग सुयं, 
  12. द्विट्विावाय.
  • आचारंग सूत्र में जैन भिक्षुओं के आचार-नियमों का उल्लेख है. 
  • भगवती सूत्र में महावीर के जीवन की जानकारी मिलती है. 
  • नयाधम्मकहा में महावीर की शिक्षाओं का वर्णन है. 
  • उवासगदसाओ में उपासकों के जीवन संबंधी नियम दिए गए हैं. 
  • अंतगडदसाओ तथा अणुतरोववाईदसाओ में प्रसिद्ध जैन भिक्षुओं की जीवन कथाएँ हैं. 
  • विवागसुयमसुत में कर्मफल का विवेचन है. 
  • भूगवतीसूत्र में 16 महाजन-पदों का उल्लेख है. 
  • भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की जानकारी प्राप्त होती है. 
  • ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण परिशिष्ट पर्व है. इससे चन्द्रगुप्त मौर्य के बारे में जानकारी प्राप्त होती है. 
  • इसके अतिरिक्त आवश्यकचूर्णि, वसुदेव हिण्डी, वृहत्कल्पसूत्र भाष्य, कालिकापुराण, कथा-कोष भी महत्वपूर्ण जैन ग्रंथ है.
  • नंदिसूत्र एवं अनुयोग द्वार जैन धर्म के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्व-कोष हैं.
  • छेदसूत्र छह हैं-
  1. निशीथ, 
  2. महानिशीथ, 
  3. व्यवहार, 
  4. आचारदशा, 
  5. कल्प,
  6.  पंचकल्प. 

पूर्वमध्यकाल के जैन ग्रंथ

ग्रंथ लेखक ई.
समरादित्य कथा, धूत्तख्यिान,कथाकोष हरिभ्रद सूरि 705-775ई. 
कुवलयमाला उद्योतन सूरि 778ई.
उपमितिभव प्रपंचकथा सिद्धर्षिसूरि 605ई.
कथाकोष प्रकरण जिनेश्वर सूरि
आदिपुराण जिनसेन 9वीं सदी
उत्तरपुराण गुणभद्र 9वीं सदी
  • इन ग्रंथों से तत्कालीन सामाजिक धार्मिक दशा पर प्रकाश पड़ता है.
  • जैन ग्रंथों का संकलन अंतिम रूप से गुजरात के वल्लभी नगर में छठी सदी में हुआ.

धार्मिकेतर या लौकिक साहित्य

  • धार्मिक साहित्य के लेखों का मुख्य उद्देश्य अपने धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश देना था, इसलिए उससे राजनीतिक गतिविधियों पर पर्याप्त प्रकाश नहीं पड़ता है. 
  • लौकिक साहित्य से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक, सांस्कृतिक इतिहास जानने में काफी मदद मिलती है.
अष्टाध्यायी (पाणिनी) पूर्व मौर्य काल के भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा की जानकारी. 
मुद्राराक्षस (विशाखदत्त)
कथासरित्सागर (सोमदेव) मौर्यकालीन घटनाओं की जानकारी.
वृहत्कथामंजरी (क्षेमेन्द्र)
अर्थशास्त्र (कौटिल्य) या चाणक्य या विष्णुगुप्त 15 खण्डों में विभाजित 6000 या चाणक्य या विष्णुगुप्त श्लोकों वाले इस ग्रंथ में मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी मिलती है. इस ग्रंथ का दूसरा एवं तीसरा खण्ड सर्वाधिक प्राचीन है.
नीतिसार (कामन्दक) गुप्तकालीन राजतंत्र पर प्रकाश पड़ता
महाभाष्य (पांतजलि) शुंग वंश का इतिहास
मालविकाग्निमित्र (कालिदास)
रघुवंश (कालिदास) गुप्त नरेश समुद्रगुप्त की दिग्विजय
कथा सरित सागर (सोमदेव) राजा विक्रमादित्य के बारे में जानकारी
वृहत्कथामंजरी (क्षेमेन्द्र)

 

  • शूदक के मृच्छकटिक तथा दण्डी के दशकुमार चरित से तत्कालीन समाज की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है. 
  • मृच्छकटिक पहला ऐसा ग्रंथ है. जिसके पात्र पूरी तरह सामान्य जन हैं. इससे गुप्तकालीन सांस्कृतिक जानकारी प्राप्त होती है.
हर्षचरित (वाणभट्ट) हर्ष की उपलब्धि.
गौड़वहो (वाकपति) कन्नौज शासक यशोवर्मा के बारे में जानकारी.
विक्रमांकदेवचरित (विल्हण) कल्याणी के परवर्ती चालुक्य विक्रमादित्य की उपलब्धियाँ
रामचरित (संध्याकरनन्दी) बंगाल के शासक रामपाल की जीवनकथा.
कुमारपालचरित (जयसिंह)
द्रव्याक्रय काव्य (हेमचन्द्र) गुजरात के शासक कुमारपाल के बारे में जानकारी
नवसहसांकचरित (पद्मगुप्त) परमार वंश
पृथ्वीराज विजय (जयानक) पृथ्वीराज चौहान की उपलब्धि
नन्दिककलम्बकम पल्लव राजा नंदि वर्मा की जानकारी
कलिंगतुपरिण चोलराजा कुलोतुंग 1 का कलिंग आक्रमण
चचनामा (सिंघ के इतिहास का फारसी अनुवाद) यह इतिहास 13वीं सदी में अरबी में सिंध के लोगों ने लिखा था.

 

राजतरंगिणी (कल्हण) पूर्णतया ऐतिहासिक ग्रंथ, जिसमें कश्मीर का इतिहास लिखा गया है. 

 

1148-1150 के मध्य रचित ग्रंथ

गार्गी संहिता यूनानी आक्रमण की जानकारी.
कीर्तिकौमुदी (सोमेश्वर) चालुक्य वंश का इतिहास
मतविलास प्रहसन (पल्लव नरेश महेन्द्र विक्रम) 7 सदी में रचित इसमें वहाँ की सामाजिक धार्मिक जानकारी.
अवन्तिसुन्दरी कथा (दण्डी) पल्लवों का इतिहास
प्रबंधचिन्तामणि (मेरूतुंगाचार्य 1305 ई. में) पाँच खण्डों में विभाजित इस ग्रंथ से विक्रमांक, सातवाहन मूलराज, मुंज, भोज, सिद्ध- राज, जयसिंह, कुमारपाल, लक्ष्मणसेन, जयचन्द्र आदि के बारे में जानकारी मिलती है.

 

विदेशी यात्रियों के वर्णन

  • ये भी एक साहित्यिक साक्ष्य हैं. चूंकि विदेशी लेखकों की धर्मेत्तर घटनाओं में विशेष रूचि थी, अतः उनके वर्णन से सामाजिक और राजनीतिक अवस्था पर अधिक प्रकाश पड़ता है.
  • विदेशियों के वर्णन को तीन भागों में बाँटा जा सकता है—
  1. यूनान और रोम के लेखक 
  2. चीन के लेखक 
  3. अरब के लेखक. 
  • इन तीनों वर्गों के लेखकों में भी कमियाँ हैं-जैसे यूनानी भारतीय भाषा एवं परिस्थितियों से अनभिज्ञ थे, अतः उनके सभी वर्णन पूर्णतया सही नहीं हैं; चीनी यात्रियों ने प्रत्येक घटना को वौद्ध दृष्टिकोण से देखा; अरबों में अलबरूनी ने भी भारतीय साहित्य के आधार पर लिखा, किन्तु अन्य साधनों से प्राप्त साक्ष्य को विदेशियों के वर्णनों से मिलाकर उपयोग किया जाए तो इतिहास लेखन में काफी सहायता मिल सकती है.

यूनान और रोम के लेखक

  • इस वर्ग के लेखकों में सबसे पुराने हैं-हेरोडोटस और टीसियस. 
  • इन दोनों लेखकों ने भारत के बारे में जानकारी ईरान से प्राप्त किया है. 
  • इन दोनों के वृतांतों में कल्पित कहानियाँ (खासकर टीसियस के वृतांतों में अधिक) हैं.
  • सिकंदर के साथ आए यूनानी लेखकों के वर्णन अधिक महत्वपूर्ण हैं. 
  • इन लेखकों में नियार्कस, आनेसिक्रिटिस तथा आरिस्टोबुलस अधिक प्रसिद्ध हैं. 
  • इनसे भी अधिक विश्वसनीय है.-मेगास्थनीज के वर्णन. 
  • हालाँकि वर्तमान में मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ उपलब्ध नहीं है, किन्तु इंडिका के आधार पर अन्य लेखकों के वर्णन से तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है. 
  • एक यूनानी ग्रंथ ‘पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी’ जिसके लेखक का नाम तो ज्ञात नहीं है, किन्तु उसने 80 ई. में भारतीय समुद्रतट की यात्रा की थी तथा भारतीय बंदरगाहों तथा उससे आयात-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की जानकारी प्राप्त होती है. 
  • प्लिनी ने पहली सदी तथा टॉलमी ने दूसरी सदी में अपने ग्रंथ लिखे. 
यूनानी/रोमन लेखक ग्रंथ
हेरोडोटस (इतिहास का पिता) हिस्टोरिका
मेगास्थनीज इंडिका
अज्ञात लेखक पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी
प्लिनी नेचुरल हिस्टोरिका (लातिन भाषा में)
टॉलेमी ज्योग्राफी (यूनानी भाषा में)

 

  • टेरियस ईरान का राजवैद्य था.
  • डायमेकस सीरियाई नरेश अंतियोकस का राजदूत था, जो बिन्दुसार के दरबार में रहा.
  • डायनोसियस मिस्र नरेश टालमी फिलाडेल्फस का राजदूत था, जो अशोक के दरबार में आया.
  • प्लिनी द्वारा रचित नेचुरल हिस्टोरिका में भारत और इटली के मध्य व्यापार तथा भारतीय पौधों, पशुओं, खनिज-पदार्थों आदि की जानकारी प्राप्त होती है.

चीनी यात्रियों के वृतांत

  • इस वर्ग के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण फाह्यान हेनसांग तथा इ-त्सिंग के वर्णन हैं. 
  • फाह्यान 5वीं शती में (चन्द्रगुप्त II) भारत आया तथा यहाँ 14 वर्षों तक रहा. 
  • ह्वेनसांग (युवान च्यांग) हर्ष के काल में आया तथा 16 वर्षों तक रहा. 
  • इ-त्सिंग सातवीं शती के अंत में आया तथा काफी समय तक विक्रम-शीला एवं नालंदा विश्वविद्यालय में रहा. 
  • उसने 6 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया.
  • हेनसांग की भारत यात्रा का वृतांत सी-यू-की के नाम से प्रसिद्ध है. इसमें 138 देशों का विवरण प्राप्त होता है.
  • हेनसांग को ‘प्रिंस ऑफ पिलिग्रिम्स’ कहा जाता है.
  • इनमें अतिरिक्त मात्वान लिन ने हर्ष के पूर्वी अभियान का तथा चाऊ-जू-कुआ ने चोल कालीन इतिहास का वर्णन किया है.

अरब यात्रियों के वृतांत

  • इस वर्ग के लेखकों में मुख्य हैं—अल्बरूनी, सुलेमान, अलमसूदी. 
  • इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है-अल्बरूनी (अबूरिहान). 
  • अल्बरूनी ने ‘तहकीक-ए-हिन्द’ या ‘किताबुल हिन्द’ लिखी. 
  • अल्बरूनी ने अपनी पुस्तक में राजपूत कालीन समाज, धर्म, रीति-रिवाज की अच्छी झांकी प्रस्तुत की है.
  • आरंभ महमूद ने इसे बंदी बना लिया था, किंतु उसकी योग्यता से प्रभावित होकर उसे राजज्योतिषी के पद पर नियुक्त किया. 
  • अल्बरूनी किसी भी विदेशी लेखकों में सर्वाधिक विद्वान था. अल्बरूनी ज्योतिष, विज्ञान, गणित, भूगोल, दर्शन,अरबी, फारसी तथा संस्कृत का प्रकांड पंडित था. 
  • वह गीता से अत्याधिक प्रभावित था.
  • सुलेमान ने 9वीं सदी में भारत की यात्रा की. उसने पाल एवं प्रतिहार शासकों के तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति का वर्णन किया.
  • अलमसूदी, जो बगदाद का यात्री था, ने 10वीं सदी में भारत की यात्रा कर राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार शासकों के बारे में लिखा.

 

प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्व (The Importance of Ancient Indian History)

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